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Monday, April 16, 2018

भगवान! क्या मनुष्य देह मात्र ही है या कुछ और भी?



रंजन! मनुष्य देह भी है--और देह नहीं भी। मनुष्य देह में अदेह है; शरीर में छिपा अशरीरी है; पदार्थ में प्रच्छन्न परमात्मा है।


दुनिया में दो तरह की विचारधाराएं प्रभावी रही हैं। दोनों अधूरी हैं। एक है भौतिकवादी की परंपरा--चार्वाक, दिदरो, माक्र्स, फ्रायड, एपिकुरस और इस तरह के लोग; जिन्होंने कहा कि मनुष्य केवल देह मात्र है, और रत्तीमात्र भी ज्यादा नहीं, भिन्न नहीं, अन्य नहीं। बस देह है; सिर्फ मिट्टी का दीया है, इसमें कोई और ज्योति नहीं। यंत्र मात्र है। जब तक चल रहा है, चल रहा है; जब गिर गया, गिर गया। जैसे तुम्हारी घड़ी बंद हो जाए, तो फिर तुम यह थोड़े ही पूछते हो घड़ीसाज से कि इसकी आत्मा कहां गई?


मुल्ला नसरुद्दीन घड़ी खरीद कर लाया था। सस्ती मिल गई थी मेले में। अब मेले की घड़ी, और खूब सस्ती मिल गई थी, तो बहुत प्रसन्न घर तक आया था। लेकिन घर तक आते-आते घड़ी बंद हो गई! तो मुल्ला ने घड़ी खोली।


पत्नी ने बहुत कहा कि तुम्हें पता नहीं घड़ी सुधारना। क्या खोल कर बैठे हो? किसी घड़ीसाज के पास जाओ।


मुल्ला ने कहा, इतनी सस्ती घड़ी! अब घड़ीसाज लूटेगा! जरा मैं ही खोल कर देखूं कि मामला क्या है? घड़ी खोली, तो उसमें एक मरा हुआ मच्छर निकला।


मुल्ला ने कहा, तब तो मैं कहूं; जब ड्राइवर ही मर गया, तो घड़ी कैसे चलेगी।


चार्वाक से लेकर माक्र्स तक, तुम्हारे भीतर कोई ड्राइवर है--मच्छर जितना भी--इतना भी वे नहीं मानते! तुम बस यंत्र मात्र हो। घड़ी बंद हो गई, तो तुम यह नहीं पूछ सकते कि घड़ी में जो चलता था, वह कहां गया! पूछोगे, तो लोग पागल कहेंगे। घड़ी में कोई नहीं था जो चलता था। घड़ी तो एक संयोजन थी। कोई घड़ी की आत्मा नहीं थी जो उड़ गई--पंख पसार कर। चली गई अपने लोक! छोड़ गई देह को यहां। 


यह भौतिकवादी की परंपरा। इस परंपरा में आधा सत्य है। और ध्यान रखना, आधे सत्य पूरे असत्यों से भी बदतर होते हैं। वह जो उनमें आधा सत्य होता है, वही उनका खतरा है, क्योंकि वे सत्य जैसे मालूम होते हैं--और सत्य होते नहीं। आवरण सत्य का होता है; भीतर असत्य होता है।


इस आधे सत्य या आधे असत्य के विपरीत दूसरी परंपरा है--अध्यात्मवादियों की। उसके पीछे बड़ी भीड़ है। भौतिकवादियों के पीछे बहुत बड़ी भीड़ नहीं थी। लेकिन अब उनके पीछे भी भीड़ है, क्योंकि रूस और चीन, दो बड़े देश भौतिकवादी हो गए हैं। भौतिकवाद पहली दफा धर्म बना है। इसके पहले धर्म नहीं था। इक्के-दुक्के लोग, तर्कनिष्ठ लोग, बुद्धि से ही जीने वाले लोग, बुद्धिजीवी, कभी-कभार उस तरह की बातें कर देते थे। समाज उनका ज्यादा ध्यान भी नहीं रखता था। उनसे कुछ बनता-बिगड़ता भी न था। नक्कारखाने में तूती की आवाज थी। कौन चिंता लेता था! 


लेकिन अब भौतिकवाद भी एक धर्म है; उसके भी पंडित-पुरोहित हैं; उसकी भी त्रिमूर्ति है! कार्ल माक्र्स, फ्रेड्रिक एंजिल्स और लेनिन--ये तीन की त्रिमूर्ति है। जोसेफ स्टैलिन ने बहुत कोशिश की कि इसको चार बना दें, चतुर्भुज बना दें; अपने को बहुत लगाने की कोशिश की; जब तक जिंदा रहा, तब तक उसने तीन को चार में बदल दिया था। मरते ही हटा लिया गया। उसी तीन को चार बनाने की कोशिश माओत्से तुंग की थी। लेकिन वह त्रिमूर्ति थिर हो गई है। जैसे ईसाइयों में ट्रिनिटी का सिद्धांत है, वैसा कम्युनिस्टों में त्रिमूर्ति का। 


और जैसे हिंदुओं की काशी है, और मुसलमानों का काबा, और जैनों का गिरनार, और यहूदियों का जेरुसलम, वैसे ही कम्युनिस्टों का क्रेमलिन। काशी, काबा, क्रेमलिन! ये सब एक ही ढंग की चीजें हैं; इनमें कुछ भेद नहीं। जैसे अधिकारी पंडित-पुरोहित हैं, पोप हैं, पादरी हैं, शंकराचार्य हैं, वैसे ही अधिकृत कम्युनिस्ट पार्टी है, कम्युनिस्ट पार्टी का पोलिट ब्यूरो है, कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकृत विद्वान हैं, स्वीकृत विद्वान हैं। उसके भी अधिकारी हैं! उनसे अन्यथा जो जाए, वह पापी है। उनसे अन्यथा जो जाए, उसे यहीं नरक भेज दिया जाता है। क्योंकि कम्युनिस्ट भविष्य में तो भरोसा नहीं करते! मृत्यु के बाद तो उनका कोई नरक है नहीं। इसलिए उनको साइबेरिया यहीं भेज देना पड़ता है, जीते जी, या कारागृहों में डाल देना पड़ता है।


दूसरी परंपरा है अध्यात्मवादियों की। वे कहते हैं, आदमी देह नहीं है, आत्मा है। देह तो मात्र सपना है, माया है। 


यह भी आधा सत्य है। देह सपना नहीं है, और देह माया नहीं।


शंकराचार्य स्नान करके काशी के घाट पर सुबह-सुबह ब्रह्ममुहूर्त में सीढ़ियां चढ़ रहे हैं और एक शूद्र ने उन्हें छू लिया। बहुत नाराज हुए और कहा कि हे मूढ़ शूद्र! तुझे इतनी भी समझ नहीं कि ब्राह्मण स्नान करके पवित्र होकर पूजा की तैयारी में जा रहा हो, उसे छुआ जाता है!


लेकिन वह शूद्र भी अदभुत था। कोई साधारण शूद्र न रहा होगा। उसने कहा, एक बात का जवाब दे दें। जान कर ही मैंने छुआ है। इसी जवाब को जानने के लिए छुआ है। कल रात आपका प्रवचन सुना, आपके तर्क सुने। आप सिद्ध करते हैं संसार माया है। देह स्वप्न मात्र है। तो मेरे स्वप्न ने आपके स्वप्न को छुआ। एक स्वप्न दूसरे स्वप्न को छू ले, तो इसमें अपवित्र क्या हो जाएगा! न मैं हूं, न आप हैं। देह की तरह तो मैं भी असत्य, आप भी असत्य। असत्य में भी पवित्र असत्य और अपवित्र असत्य होते हैं? असत्य में भी ब्राह्मण असत्य और शूद्र असत्य होते हैं? मैं तो समझता हूं असत्य सिर्फ असत्य होता है। यदि मेरी देह ने आपको छुआ और आपकी देह अपवित्र हो गई, तो फिर देह है। फिर रात के तर्कों का क्या हुआ?


शंकराचार्य को इस तरह किसी ने न झकझोरा था। तार्किक वे बड़े थे। तर्क में उनसे कोई जीता न था। सारे देश में उन्होंने दुंदुभी पीट दी थी। शास्त्रार्थ कर-कर के लोगों को हराते चले गए थे। लेकिन इस शूद्र के सामने नत हो जाना पड़ा। और उस शूद्र ने कहा, यह भी हो सकता है आप कहें कि नहीं, देह तो माया है, लेकिन तुम्हारी आत्मा ने मेरी आत्मा को अपवित्र कर दिया। तो मैं यह कहना चाहता हूं कि रात आपने यह भी कहा था कि आत्मा अपवित्र होती ही नहीं। आत्मा तो पवित्र ही है। आत्मा के अपवित्र होने का कोई उपाय नहीं। देह असत्य है। आत्मा अपवित्र होती नहीं, क्योंकि आत्मा ब्रह्म-स्वभावी है। और ब्रह्म और अपवित्र हो जाए! तो मेरे ब्रह्म ने आपके ब्रह्म को अपवित्र कर दिया? और गंगा में स्नान ब्रह्म को करवाया था या शरीर को? गंगा का जल ब्रह्म को भी धोता है? बाहर का जल भीतर के अंतस्तल को धोने लगा?


यह पहला मौका था कि शंकराचार्य को किसी ने बेजुबान कर दिया। जैसे जीभ काट ली हो। झुक गए थे उस शूद्र के चरणों में। क्षमा मांगी थी, और कहा था, मुझे माफ कर दो। जो मैं कहता था, वह अब तक सिद्धांत था, दर्शनशास्त्र था। अब से उसे जीवन बनाऊंगा। 


फिर दिन में बहुत खोज की उस शूद्र की, लेकिन वह शूद्र पाया नहीं जा सका। वह शूद्र निश्चित ही कोई अदभुत रहस्यवादी संत रहा होगा। रहा होगा किसी बुद्ध, किसी कबीर, किसी क्राइस्ट की हैसियत का आदमी, जो शंकराचार्य को भी झकझोर दिया!


यह आधी परंपरा है--जो देह को माया कहती है।


रंजन, मैं दोनों परंपराओं में से किसी को भी स्वीकार नहीं करता हूं। दोनों को एक साथ स्वीकार करता हूं। मनुष्य देह है। देह सत्य है। और मनुष्य सिर्फ देह ही नहीं है, देह के भीतर आत्मा है। और आत्मा परम सत्य है। मनुष्य दोनों का जोड़ है। मनुष्य एक अदभुत संयोग है, जहां आकाश और पृथ्वी मिलते हैं। मनुष्य एक क्षितिज है।


मृत्योर्मा अमृतम गमय 


ओशो


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