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Tuesday, March 8, 2016

प्रतिध्वनि

धन पाने के लिए लोग कितना दौड़ते हैं! पाकर भी क्या पाते हैं? क्या मिल पाता है? हाथ तो खाली के खाली रह जाते हैं। मरते वक्त निर्धन के निर्धन ही रहते हैं। मगर सारा जीवन गंवा देते हैं। वही जीवन ध्यान भी बन सकता था, जिसे तुमने धन बनाया। वही जीवन-ऊर्जा ध्यान भी बन सकती थी, जिसे तुमने धन में गंवाया। वही जीवन-ऊर्जा तुम्हारे जीवन का आत्यंतिक समाधान बन सकती थी, समाधि बन सकती थी, और तुम व्यर्थ सामान जुटाने में लगे रहे। और सामान भी ऐसा जुटाया जो मौत के क्षण में साथ न ले जा सकोगे, मौत जिसे छीन लेगी। और सामान भी ऐसा जुटाया कि न मालूम कितनों को दुख दिया, न मालूम कितनों की पीड़ा निर्मित की, न मालूम कितनों के लिए नर्क बनाया। इतना दुख देकर तुम सुखी हो कैसे सकोगे? इतना दुख तुम पर लौट-लौट आएगा, अनंत गुना होकर बरसेगा। क्योंकि जगत तो एक प्रतिध्वनि है। तुम गीत गाओ, तुम्हारा ही गीत प्रतिध्वनित होकर तुम पर बरस जाता है। तुम गालियां बको, तुम्हारी ही गालियां लौटकर तुम पर बरस जाती हैं, छिद जाती हैं।

यह जगत तो एक प्रतिध्वनि मात्र है।


जिनसूत्र 


ओशो 

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