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Monday, December 7, 2015

एक श्रोतापति की कथा

भगवान श्रावस्‍ती नगरी में ठहरे थे। वही जैत बन के पास ही एक नवयुवक वणिक अपनी पाँचसो बेल गाड़ियों सहित ठहरा था। जिसमें उसने बहुमूल्य, हीरे जवाहारात, मेवे, वस्‍त्र, आभूषण, और नाना प्रसाधान की वस्तुएँ भरी थी। जिनका वह व्यापार करता था। भगवान सुबह ध्‍यान के बाद ताप्‍ती(अचरवती) के किनारे एक वृक्ष की छाव में बैठे थे। पास ही आनंद टहल रहा था। युवक वणिक का व्यापार इस समय बहुत जोर शोर से चल रहा था। पर भगवान उसके इतने पास थे पर वह धड़ी भर का भी क्षण निकाल कर उन्‍हें सुनने नहीं आया। वह अपने व्‍यापार की वृद्धि को देख अति प्रसन्‍न हो रहा था।

वह धन कमाने में इतना तल्‍लीन था उसे भगवान दिखाई ही नहीं दिये। उसके पास से ही हजारों की संख्‍या में रोज श्रावस्‍ती निवासी गूजरें होगें, उससे सामान भी खरीदते होगें। शायद इसी लिए वह वणिक यहां खड़ा हो व्‍यापार कर रहा था। वह जानता था की भगवान को सुनने के लिए यहां से हजारों लोग गुजरते है। जिसमें बहुत धनवान भी होते थे। जिस के मन में वासना जितनी प्रगाढ़ होगी वह ध्यान के विषय में सोचगा भी नहीं। अगर वह किसी को ध्‍यान करते देखेगी तब भी यहीं सोच विचार करेंगे की ये लोग पागल है। इतना समय बैठ कर बरबाद कर रहे है। इतनी देर में तो न जाने कितना धन कमा लेते। वह केवल लाभ हानि की भाष समझता है। और भाषा उसे आती ही नहीं। 

जिस के मन संसार के मेध घिरे हो उसे निर्वाण का प्रकाश दिखाई नहीं पड़ेगा। वह अपने ही सपनों से आच्‍छादित रहता है, जो जितनी महत्वाकांक्षा से भरा होगा, उसे ध्‍यान साधना सन्‍यास सब आडम्‍बर ही दिखता होगा। 

व्‍यापार अच्‍छा चलने से वह वणिक युवक भविष्‍य के सपनों में खोया हुआ था। वह कल्‍पनाएं बुन रहा था। कि अगर इसी तरह व्‍यापार चलता रहा तो एक ही वर्ष में उसके पास धन-ही-धन होगा। आज कल ऐसा धंधा चल रहा जिसकी कभी कल्‍पना भी नहीं की थी। सुन्‍दर स्‍त्रीयों के चेहरे उसकी आंखों के सामने घूमने लगे। अब महलों की कल्‍पना शुरू हो गई। ऐसा महल बनाउगां, वसंत ऋतु के लिए अलग, शरद ऋतु के लिए अलग, हेमंत ऋतु के लिए अगल हो। जब ग्रीष्‍म ऋतु हो तब उस महल में शानदार पानी के फ़व्वारे हो चारों और ऊंचे छाया दार वृक्ष हो। इसी तरह से शरद में ऐसा महल हो जिस में धूप का प्रकाश पुरा दिन रहे।

 यही सब सपनों में खाया वह कल्‍पनाओं के लडडूओं का भोग लगा रहा था। क्‍योंकि अब तो मन को पता चल चुका है सब साधन धन के रूप आने वाले है इस तरह से मन दस कदम आपको आगे ही खड़ा रखना चाहता है। असल में समय को हम तीन भागों में जो बांटते है वह गलत है, भूत, वर्तमान और भविष्‍य। वर्तमान समय का हिस्‍सा नहीं होता वह शाश्‍वत का हिस्‍सा होता है। आप वर्तमान में मन को ला ही नहीं सकते। वर्तमान में जीना ही तो ध्‍यान है। मन कल जो जा चुका या आने वाले कल पर ही जीवित रह सकता है। वर्तमान तो उसके लिए मृत्‍यु तुल्‍य है।

भगवान ताप्‍ती के उस किनारे पर एक वृक्ष की छांव में बैठे उस युवक को घूमते हुए और उसके मन में उठे सपनों की तरंगों को देख रहे है। महसूस कर रहे है। भिक्षु आनंद उनके पास ही टहल रहा है। अचानक भगवान के चेहरे पर हंसी आती है। जिसे आनंद ने इस से पहले कभी नहीं देखा। क्‍योंकि कोई और है भी नहीं फिर भगवान का हंसने का कोई और क्‍या कारण हो सकता है।

आनंद ने पूछा: ‘’यूं अचानक बिना किसी प्रयोजन के आप क्‍यों हंसे? आकारण आपका यू हंसना। कोई तो पास नहीं है। फिर क्‍या करण हो सकता है?‘’

भगवान: ‘’ आनंद उस युवक को देख रहे हो। दूर जो नदी तट पर घूम रहा है। उस के चित की तरंगों की कल्‍पनाओं को देख कर मुझे हंसी आ गई। सपन देखो हमारा मन कितनी दूर के दिखाता है। जहाँ हम होंगे भी नहीं। देखो उस युवक को जो महलों की स्त्री के लिए और न जाने क्‍या-क्‍या ख्‍वाब उसका मन दिखा रहा है। और उस युवक कि आयु तो मात्र एक सप्‍ताह भर शेष रह गई है। भला एक सप्‍ताह में कहां महल बन पाते है। मृत्यु द्वार पर आ दस्‍तक दे रही है। पर वासनाओं से भरे मन में जो कोलाहल है। वह उस ध्‍वनि को सुन नहीं पा रहा। वह इतनी मुर्छा से भरा है। उसे उसके पदचाप भी सुनाई नहीं देते। पर ये सही भी है अगर मृत्‍यु के पद चाप जगह-जगह सुनाई पड़ने लग जाये तो लोगों का जीना असम्भव हो जाए। लाखों का हिसाब उसके मन में चल रहा है। और आयु के दिन सात रह गये है। इस लिए मैं हंसा। और अंदर से मुझे उस युवक पर दया भी आ रही है।‘’

भगवान की आज्ञा ले कर आनंद उस युवक के पास गया। और उसे अपने पास बुला कर कहां की तुझे एक सत्‍य से अवगत कराने के लिए आया हूं। वहां देख रहे हो पेड़ के नीचे, भगवान बैठे है, मेरा नाम आनंद है। में उनका शिष्‍य हूं। तथागत ने कहां है तुम्‍हारी आयु मात्र सात दिन रह गई है। सन्‍निकट मृत्‍यु की बात सुन कर उस युवक तो घबरा गया। वह खड़ा था अचानक बैठ गया। उसका सारा बदन थर-थर कांपने लगा। अभी सुबह की ताजा हवा ही चल रही थी। पर उस के चेहरे पर पसीने की बुंदे नजर आने लगी। 

भूल गया महलों की बातें, स्‍त्रीयों के चेहरे, लाखों का हिसाब। अब इतने कम समय में मन के लिए जगह ही नहीं है। वह अपना जाला बुने उसके लिए तो थोड़ी दुरी चाहिए। 

उस युवक ने भी बड़े स्‍वप्‍न देखे थे। अभी तो युवा ही था। अभी तो उसकी कामनाए, इच्छाएं। उसकी जीवेषणा शुरू ही हुई थी। अभी तो धन कमा कर मन उसे सींचने का विचार कर ही रहा था। जीवन की बेल ने अभी स्वप्नों पर फैलना ही शुरू किया था। मन अभी तो भूमि तैयार कर रहा था। फिर उस पर वासना के बीज बोता फिर वह बेल बन कर छाती। तब कहीं उसमें फूल लगते, उसमे फल आते। पर यह तो अभी से सब खत्‍म हो गया। वह बैठ कर रोने लगा। उसके इंद्रधनुष बने भी नहीं थे कि हवा ने पल में उन्‍हें छिटक दिया। बनने से पहले ही सब खत्‍म हो गया।

आनंद ने उसकी पीठ पर प्‍यार से हाथ फेरा और कहा युवक हताश न हो, उठ मौत पर ही सब समाप्‍त नहीं होता। उसके पार भी जीवन है। असल में जिसे हम जीवन समझते है वह तो मृतयु लोक है। यहां तो सब बना वह मिट ही जायेगा। इसके पार ही शाश्‍वत है। अमृत है। जहां आपसे कुछ छीना नहीं जा सकता है। उस पर भी देख अभी तेरे पास सात दिन है, चल भगवान के चरणों में, वहां तुम्‍हें अमृत पाठ देंगे। 

आनंद ने उस युवक को सम्‍हाला ओर कहा: हार मत, थक मत, मौत से कुछ भी नहीं मिटता। मौत से वहीं मिटता है जो झूठा था। मौत से वहीं मिटता है जो भ्रामक, है स्‍वप्‍न तुल्‍य है। मिथ्‍या है। मौत तो स्‍वप्‍न को ही मिटा सकती है, सत्‍य को नहीं। घबरा मत उठ। चल मेरे साथ भगवान के चरणों में। 

उस युवक ने क्षण की भी देरी नहीं की। उसके मन मैं अभी तक जो अंधकार था, वह पल में प्रकाशवान हो गया। महीनों जो भगवान के इतना निकट रह कर भी कभी भगवान को सुनने भी नहीं आया। और अचानक ऐसी क्रांति का घटना। चमत्‍कार है। उसके मन में एक भी क्‍यों नहीं उठा। गजब की त्‍वरा थी उस युवक की।

वह युवक भगवान के चरणों में ही रूक गया। उसने लौटकर भी पीछे नहीं देखा। उसकी पाँच सौ बेल गाड़ियाँ जो कीमती सामान से भरी थी। उन्‍हें क्षण में ही भुला दिया। उसकी वासना ऐसे तिरोहित हो गई। जैसे हवा बादलों को पल में छितर बितर करे दे। जो बादल अभी वासना से भरे दिखते थे। वह पल में बिखर गये। कैसी क्रांति घटी। अभी एक दिन पहले तो गाड़ियाँ ही उस की सब कुछ थी।

 भगवान इतने पास है उसे इसका पता भी नहीं था। अब अचानक भगवान के संग आ गाडियों को व्‍यापार को भूल गया। अभी कल तक रात-रात जाग कर हिसाब लगाता था। रात नींद भी नहीं आती होगी की कहीं कोई नौकर रात हेरा-फेरा तो नहीं कर रहा है। कोई चौरी तो नहीं कर रहा है। सोते में भी गाडियों कि फिक्र लगी रहती होगी। जिसके पास धन है उसे कहां नींद आती है?

और पल में बात बदल गई। अब तो सारे खेल के पाँसे ही उल्‍टे हो गये। उसकी जीवन धारा बदल कर राधा हो गई। नौकर चाकर बुलाने के लिए आये मालिक चलो व्‍यापर का टाईम हुआ जाता है। ग्राहक बहार खड़े रहा तक रहे है। सेवक आये उन्‍होंने कहा मालिक सुबह का नाश्ता भी नहीं किया दोपहर होने वाली हे। आपकी तबीयत खराब हो जाएगी। सब आपकी बाट जोह रहे हे। 

मुनीम आया व्‍यापर के बारे में ऊंच नीच बताई। अभी तो भगवान ने हमारी सुनी है। इसी दिन का तो इंतजार करे रहे थे। मालिक चलो आपको क्‍या हो गया है। वहां सब गड़ वड हो जायेगी। लोग न जाने तरह-तरह की बातें कर रहे हे। घर के लोग जब सुनेंगे तो मैं क्या जवाब दूँगा। दुकान के सामने भीड़ लगी है। ग्राहकों की। आप यहां बैठे क्‍या कर रहे है। आप ऐसा करेंगें तो परिवार के लोगों को मैं क्‍या मुख दिखलाऊं गा। क्‍या जवाब दूँगा। और मुनीम उस युवक के पैर पकड़ कर रोने लगा। मालिक आप नहीं जाते तो मैं भी नहीं जाऊँगा।

युवक हंसा, मुनीम जी मुझे तो मंजिल मिल गई। मेरा अंत समय आ गया है। अब मेरे लिए ये सब करने का समय नहीं है। तुम सब हिसाब कर लेना। किसी का एक पाई भी नहीं रखना। और जो बचे उसे आधा तुम खुद रख आधा मेरे मात-पिता परिवार के लोगो को दे देना और कह देना मैं मर गया हूं। मुझे किसी से कोई आग्रह नहीं है। मेरा इंतजार मत करना। में अब कभी नहीं आऊँगा। मेरी अब आप से आज आखरी मुलाकात है। यहां कभी मत आना। अपना समय खराब मत करना। मैं ये जो कर रहा हूं बहुत सोच-विचार कर होश हवास में कर रहा हूं।

मुनीम रोता कल्‍पता चला गया। नौकर चाकरों ने समझा मालिक का दिमाग खराब हो गया है। ये बुद्ध है ही ऐसे जो भी इनके पास आता है फिर वह कहीं का नहीं रहता।

वह युवक दिन भर भगवान के चरणों में रहता, प्रवचन के समय भी भगवान के चरणों में बैठ कर सुनता। रात जब भगवान सो जाते जब भी उनके चरणों के पास ही बैठा रहता। जब मृत्‍यु इतने पास हो तब कहां नींद। दिन रात भगवान की गंध कुटी में होश की तरंगों में जीता। जब उसने मृत्‍यु को अंगीकार कर लिया तब समय की गति वह गति थोड़े ही रही होगी जो आपकी और हमारी है। 

एक बच्‍चें के समय की घड़ी तेज चलती है। जैसे आदमी बूढा होता जाता है धीरे-धीरे होती चली जाती है। देखा नहीं बुजुर्ग व्‍यक्‍ति का टाईम काटना कितना मुश्‍किल हो जाता हे। एक युवक के पास समय ही नहीं है। समय सापेक्ष है। सात दिन युवक ने ऐसे जीए जैसे कोई सतर वर्ष में भी नहीं जीता। पूर्व त्‍वरा से भभक कर कुनकुना नहीं। 

सात दिन बाद जब युवक मरा तो श्रोतापति फल को पाकर मरा।

श्रोतापति फल का अर्थ है। जो ध्‍यान की धारा में प्रविष्‍ट हो गया हो। जो उतर गया हो ध्‍यान की धारा में, जो जीवन के मूल स्त्रोत में उतर गया हो। जीवन का मूल स्‍त्रोत ध्‍यान है। ध्‍यान से ही हम आये है। ध्‍यान में ही हमें जाना है। हम समाधि से उत्‍पन्‍न हुए है। समाधि की ही तरंग है। समाधि की एक लहर की तरह हम जीते है और तरह से उसी में लीन हो जाते है। इसी भाव बोध को हम कहते है श्रोतापति।

मृत्‍यु से पहले जो ध्‍यान की धारा में प्रविष्‍ट हो जाता है उससे ज्‍यादा भाग्‍यशाली कोई नहीं। क्‍योंकि मृत्‍यु से पहले जिसने ध्‍यान को जान लिया, फिर उसकी कोई मृत्‍यु नहीं है। जिन्होंने मृत्‍यु से पहले ध्‍यान को नहीं जाना वह अपने को शरीर ही समझते है। जब आप शरीर के अलावा किसी दुसरी चीज को नहीं जानते तब तो वहीं तो मरेगा जिसे आप अपना मानते है। जब आप शरीर ही है, तब शरीर मरता है, तो उसे पकड लेते हो की यहीं तो में हूं, यही अंहकार अपने होने का आपके साथ बना रहता है। मैं शरीर हूं। देखा नहीं कई लोग अपने को धन समझते है की में हूं, उनके प्राण धन में होते है।

 पुरानी कहानी नहीं सुनी एक राज के तोते में प्राण होते है। किसी के मकान में, किसी के किसी लड़की, किसी के पैसे में जब उनका दिवाला निकलता है तब कहा जी पाते है। वह अपने को शरीर नहीं धन मानते हे। धन नहीं तो मैं नहीं। इस शरीर से तादम्यता ही तुम्हें इस शरीर से जोड़े रहती है। जब आप अपने को शरीर मरता है तब यह शरीर मरता है तब अपने को मरा हुआ मान लेते है।

लोग मूर्च्छित मरते हे। शरीर को जब छूटते देखते है तब घबरा जाते है। और ये मत समझना की मृत्‍यु की कोई पीड़ा नहीं होती, मृत्‍यु की बड़ी सधन पीड़ा होती है। इस शरीर से जब प्राण निकलते है, उसकी तैयार मैं वह शरीर के प्रत्‍येक अनु से अपनी उर्जा उस मन में संग्रहीत करता हे। जिसे शरीर छोड़ना नहीं चाहता। पर वह कमजोर और लाचार है। वह अब उसे नहीं रोक सकता। हम उस पीड़ा को सह नहीं सकते। इस लिए हम बेहोश हो जाते है। क्‍योंकि हमने मरने की कोई तैयारी तो की नहीं होती। इस लिए उस अमूल्य क्षण को हम चुक जाते है। और वह क्षण हमसे अनछुआ रह जाता है। 


एस धम्मो सनंतनो 

ओशो


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