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Monday, December 28, 2015

त्याग की महिमा

रामकृष्ण के पास एक आदमी आया। स्वर्ण- अशर्फिया लाया था भर कर एक झोले में। और आकर उसने रामकृष्ण के चरणों में चढ़ा दी झोली और कहा कि लें, ये हजार स्वर्ण – अशर्फिया हैं। कहना नहीं भूला-हजार! हजार जरा जोर से ही कहा। आसपास बैठे सब लोगों को सुनाई भी पड़ जाए। हजार स्वर्ण – अशर्फियां उन दिनों बहुत बड़ी बात थी। रामकृष्ण ने कहा : हजार हों कि दस हजार, अब यह झंझट, इनकी कौन देख -रेख करेगा? तू एक काम कर… तूने तो मुझे दे दी न?

उस आदमी ने कहा : आपके चरणों में समर्पित है। तो उन्होंने कहा : अब तू मेरी मान। इनको ले जा और गंगा में सिरा दे। गंगा मैया जाने। अब इनको कौन देखेगा? कभी मैं नहाने – धोने जाऊं तो अब इनके पीछे कोई बिठाओ कि यह देखे कोई। या फिर इनको ले जाओ गंगा साथ; फिर वहां नहाऊं तो भी नहीं न पाऊं, क्योंकि घाट पर नजर रखूं कि अशर्फिया कोई लेकर न चल दे! अब यह झंझट तू ले आया, चल, तेरी भी कट गई झंझट, मेरी भी काट। तू गंगा में डुबा दे।

उस आदमी को बड़ा धक्का लगा। ऐसी आशा नहीं थी। उसने सोचा था, रामकृष्ण कहेंगे : ‘ अहो, तू है भक्त! हे धन्यभागी! हे महापुरुष! जन्म- जन्म के पुण्यों का यह फल है। तू ही धन्य नहीं हुआ, तेरे पितर भी धन्य हो गए! इसी को त्याग कहते हैं! इसी की महिमा शास्त्रों में गाई है। ‘ यह तो कुछ कहा नहीं, पीठ भी न ठोंकी, सिर पर हाथ रख कर धन्यवाद भी न दिया-उल्टे कुछ नाराज मालूम हुए; उल्टे कुछ ऐसा लगा कि अपनी झंझट मुझे दे रहा है।… मेरी भी झंझट काट भैया, तू जाकर इनको गंगा में गिरा दे। गंगा पास ही बह रही है। ज्यादा दूर जाना भी न पड़ेगा।

बड़े बेमन से उस आदमी ने अपनी झोली उठाई। चला गंगा की तरफ। ‘नहीं’ भी नहीं कह सकता। जब दे ही चुके तो अब तुम कौन हो कहने वाले! कई बात तो मन में आया कि भाग जाए बीच से, कौन रामकृष्ण पीछे आ रहे हैं। मगर डरा भी। लोग महात्माओं से डरते भी बहुत हैं कि पता नहीं कोई अभिशाप वगैरह दे दें। और देखते तो रहे ही होंगे, हालांकि दिखाई नहीं पड़ रहा हूं उन्हें, मगर अंतर्दृष्टि महात्माओं की तो खुली होती है। तीसरा चक्षु! देख रहे होंगे और पढ़ रहे होंगे मेरा विचार भी। यह ठीक नहीं है। अब झंझट में जो हो गया हो गया, भूल हो गई। अब निपटा दो।

मगर बड़ी देर हो गई, वह आदमी लौटा नहीं। तो रामकृष्ण ने कहा कि भई बड़ी देर लग गई, वह आदमी कहां है, अभी तक लौटा नहीं! चले, देखने उस आदमी को। वह आदमी क्या कर रहा था, मालूम है। घाट पर उसने बड़ी भीड़ इकट्ठी कर ली थी। सैकड़ों आदमी इकट्ठे हो गए थे। वह एक-एक अशर्फी को बजाता था पहले घाट पर पत्थर पर गिर कर। खन -खन, खन- खन उसको बजाता। गिनती करता। पांच सौ सत्तर, फिर गंगा में फेंकता। पांच सौ अठहत्तर, फिर गंगा में फेंकता। ऐसे ही धीरे – धीरे कर रहा था और खूब बजा-बजा कर फेंक रहा था। रामकृष्ण गए, खड़े हो गए और कहा कि अरे मूड! गिनती किसलिए कर रहा है? जब फेंकना ही है तो गिनती किसलिए? गिनती जोड़ते वक्त करनी होती है, फेंकते वक्त क्या गिनती करनी है? थैली की थैली फेंक देना था। और यह बजा क्यों रहा है? यह बजा- बजा कर लेना… लेते समय तो ठीक, क्योंकि कहें कोई धोखा न दे रहा हो, कोई नकली सिक्के न पकड़ा रहा हो। लेकिन गंगा में फेंकते वक्त… गंगा को कोई फिक्र नहीं है कि नकली है कि असली तेरा धन। गंगा को कुछ लेना-देना नहीं है कि नौ सौ निन्यानवे फेंकी कि पूरी हजार फेंकी। गंगा कुछ हिसाब-किताब तेरा रखेगी भी नहीं। मगर तू मूढ़ का मुढ़ रहा!

यह कहानी सोचने जैसी है। आदमी इकट्ठे करते वक्त भी गिनता है और छोड़ते वक्त भी गिनता है। जब मानता है कि धन सत्य है, तब भी गिनता है और जब मानता है कि धन असत्य है, तब भी गिनता है! दोनों हालत में गिनता है! तो महावीर ने कितने घोड़े, कितने हाथी, कितने रथ, कितना धन, कितनी अशर्फियां, मणि -माणिक्य छोड़े, जैन शास्त्रों में ईसि।लसिला बड़ा लंबा है। ऐसा ही बौद्ध शास्त्रों में है, बुद्ध ने कितना छोड़ा। एक -दूसरे से होड़ लगी है। बढ़ाए चले जाते है।

तुम अगर शास्त्र उठा कर देखोगे तो जैसे -जैसे शास्त्र बाद में लिखे गए वैसे  वैसे संख्या बढ़ती चली गई। क्योंकि महावीर ने हजार स्वर्ण -रथ छोड़े तो बौद्ध कोई पीछे तो नहीं रह जाएंगे : उन्होंने बुद्ध से एक हजार एक छुड़वा दिए। तो फिर जब शास्त्र लिखा गया तो जैनियों ने एक हजार दो छुड़वा दिए, क्योंकि वे कहीं पीछे तो नहीं रह जाएंगे। महावीर- बुद्ध से तो कुछ लेना-देना नहीं है। न तो महावीर के पास इतने रथ थे और न बुद्ध के पास, क्योंकि दोनों का राज्य बहुत छोटी-छोटी तहसीलों से ज्यादा नहीं। बुद्ध के जमाने में भारत में दो हजार राज्य थे, कोई बहुत बड़े राज्य हो नहीं सकते उनके पास। बुद्ध के बाप -दादो का नाम कोई इतिहास में नहीं है; वह तो बुद्ध की वजह से। महावीर के बाप -दादो का भी नाम कोई इतिहास में नहीं है; वह तो महावीर की वजह से थोड़ी याद रह गई है। तो ये हाथी- घोड़ों के कारण नाम नहीं इनके। लेकिन फिर भी हमारा मन तो वही है।


हंसा तो मोती चुने 

ओशो 

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