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Thursday, December 3, 2015

आदमी की असामर्थ्यता उसका धर्म है। आदमी की नपुंसकता उसका धर्म है

धर्म निर्णय है, संकल्‍प है, चेष्टा है। बाकी बस इंस्टिंक्ट है। बाकी सब प्रकृति हे। आपके जीवन में जो अपने आप हो रहा है वह प्रकृति हे। जो आप करेंगे तो ही होगा और तो भी बड़ी मुश्‍किल से होगा। वह धर्म हे। जो आप करेंगे, तभी होगा, बड़ी मुश्‍किल से होगा क्‍योंकि प्रकृति पूरा विरोध करेगी। कि यह क्‍या कर रहे हो, इसकी क्‍या जरूरत है? पेट कहेगा, ध्‍यान की क्‍या जरूरत है? भोजन की जरूरत है। शरीर कहेगा, नींद की जरूरत है, ध्‍यान की क्‍या जरूरत है? काम ग्रंथियां कहेगी कि काम की , प्रेम की जरूरत है। धर्म की क्‍या जरूरत है।

तो धर्म बिलकुल गैर जरूरी है। इसीलिए तो जो आदमी केवल शरी की भाषा में सोचता है वह कहता है, धर्म पागलपन है। शरीर के लिए कोई जरूरी नहीं है। बिहेवियरिस्‍ट्स है। शरीवादी मनोवैज्ञानिक है; वे कहते है क्‍या पागलपन है? धर्म की कोई जरूरत नहीं है। और जरूरतें है, धर्म की क्‍या जरूरत है। समाजवादी है, कम्‍युनिस्‍ट है, वे कहते है धर्म की क्‍या जरूरत है? और जरूरतें समण्‍ में आती है। क्‍योंकि उनको खोजा जो सकता है। धर्म की जरूरत समझ में नहीं आती। कहीं कोई कारण नहीं है। इसलिए पशुओं में सब है जो आदमी में है। सिर्फ धर्म नहीं है। और जिस आदमी के जीवन में धर्म नहीं है, उसको अपने को आदमी कहने का कोई हक नहीं है। क्‍योंकि पशु के जीवन में सब है जो आदमी के जीवन में है। ऐसे आदमी के जीवन में,जिसके जीवन में धर्म नहीं है वह कहां सक अपने को अलग करेगा पशु से?

पशु प्रकृति-जन्‍य है। आदमी भी प्रकृति जन्‍य है जब तक धर्म उसके जीवन में प्रवेश नहीं करता। उसी दिन मनुष्‍य प्रकृति से परमात्‍मा की तरफ उठने लगा।

प्रकृति है निम्‍नतम,अचेतन छोर; परमात्‍मा है अंतिम छोर, आत्यंतिक। जो आने आप हो रहा है। अचेतना में हो रहा है, वह है प्रकृति। जो होगा चेष्टा से, जागरूक प्रयत्‍न से वह है धर्म। और जिस दिन यह प्रश्‍न इतना बड़ा हो जायेगा कि अचेतन कुछ भी नह रह जायेगा। भूख भी लगेगी तो मेरी आज्ञा से प्‍यास भी लगेगी तो मेरी आज्ञा से, चलूंगा तो मेरी आज्ञा से, उठुंगा तो मेरी आज्ञा से,शरीर भी जिस दिन प्रकृति ने रह जायेगा। अनुशासन बन जायेगा। उस दिन व्यक्ति परमात्मा हो जायेगा।

अभी तो हम जो भी कर रहे है, सोचते भी है तो, मंदिर भी जाते है तो प्रार्थना भी करते है तो ख्‍याल कर लेना, प्रकृति जन्य तो नहीं है। हमारा तो धर्म भी प्रकृति जन्य होता है। इसलिए धर्म नहीं होगा। जिसको हम धर्म कहते है हव धोखा है धर्म का। इसलिए जब आप दुख में होते है। धर्म की याद आती है। सुख में नहीं आती।

आदमी की असामर्थ्यता उसका धर्म है। आदमी की नपुंसकता उसका धर्म है, उसकी विवशता? जब वह कुछ नहीं कर पाता तब वह परमात्‍मा की तरफ चल पड़ता है। तब तो उसका मतलब यह हुआ कि वह परमात्‍मा की तरफ भी किसी प्रकृति जन्‍य प्‍यास या भूख को पूरा करने जा रहा है। अगर आप परमात्‍मा के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करते है कि मेरे लड़के की नौकरी लगा दे। कि मेरी पत्‍नी की बीमारी ठीक कर दे। तो उसके अर्थ क्‍या हुआ? उसका अर्थ हुआ की आपकी भूख तो प्रकृति-जन्‍य है। और आप परमात्‍मा के सामने हाथ जोड़ कर खड़े है। आप परमात्‍मा से भी थोड़ी सेवा लेने की उत्‍सुकता रखते है। थोड़ी अनुगृहीत करना चाहते है। उसको भी कि थोड़ा सेवा का अवसर देना चाहते है। इसका ऐसे धर्म का कोई भी संबंध धर्म से नहीं है।

महावीर वाणी

ओशो 

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