Osho Whatsapp Group

To Join Osho Hindi / English Message Group in Whatsapp, Please message on +917069879449 (Whatsapp) #Osho Or follow this link http...

Monday, December 28, 2015

समय

जब आल्बर्ट आइंस्टीन ने पहली बार सापेक्षता का सिद्धांत खोजा तो बड़ा जटिल प्रक्रिया है उस सिद्धांत आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत को ठीक से समझते थे। मगर जहां भी अल्वर्ट आइंस्टीन जाता, लोग उससे पूछते कि समझाइए, सापेक्षता का सिद्धांत क्या है? वह भी बड़ी मुश्किल में पड़ता था। बात बहुत जटिल है और सूक्ष्म है। मगर जीवन का बहुत गहरा सत्य है उसमें। महावीर ने इसी सापेक्षता के सिद्धांत का स्यादवाद कहा है। जो महावीर ने धर्म के जगत में किया था, वही अल्वर्ट आइंस्टीन ने विज्ञान के जगत में किया है। ढाई हजार साल के फासले पर अल्वर्ट आइंस्टीन ने पुन: उसी सिद्धांत की स्थापना की है जो महावीर ने की थी। मगर वैज्ञानिक आधारों पर! महावीर को बात तो केवल एक वैचारिक उद्घोषणा थी।

महावीर की बात भी कठिन है, इसलिए महावीर को बहुत अनुयायी नहीं मिले। बात जटिल है। और जो महावीर के अनुयायी तुम्हें दुनिया में दिखाई भी पड़ते हैं, वे भी पैदायशी है, उनकी भी समझ में कुछ नहीं है। कुछ थोड़े -से लोग महावीर से दीक्षित हुए होंगे, बहुत थोड़े -से लोग। आज भी जैनों की संख्या मुश्किल से तीन लाख है। अगर तीस जोड़े महावीर से दीक्षित हो गए हों तो पच्चीस सौ साल में उनके बाल-बच्चे बढ़ते -बढ़ते तीस लाख हो जाएंगे। कोई बहुत ज्यादा लोग महावीर से दीक्षित नहीं हुए होंगे। आदमी भी चूहों जैसे बढ़ते हैं, कम-से -कम इस देश में तो बढ़ते ही हैं।

अल्वर्ट आइंस्टीन की बात भी बहुत लोग नहीं समझ पाते थे, तो उसने समझाने के लिए एक उदाहरण खोज रखा था। जब भी कोई पूछता तो वह कहता कि सिद्धांत तो थोड़ा जटिल है, लेकिन एक उदाहरण, उससे शायद समझ में आ जाए। तो वह कहता कि तुम्हें किसी ने गर्म तवे पर बिठा दिया, घड़ी सामने है, टिक -टिक करके घड़ी सेकंड-सेकंड आगे बढ़ रही है। तवा गर्म होता जा रहा है। तुम उत्तप्त होते जा रहे हो। तुम घबड़ाने लगे। और पसीना -पसीना हुए जा रहे हो। तो तुम्हें कुछ हो सेकंड ऐसे मालूम पड़ेंगे जैसे कुछ घंटे बीत गए। और अगर घंटे- भर उस गरम तवे पर बैठे रहना पड़े तो ऐसा लगेगा जैसे कि वर्षों बीत गए हैं।

दुख में समय लंबा हो जाता है। घड़ी तो अपनी चाल से चलती है। लेकिन गरम तवे पर बैठे आदमी को लगो। कि घड़ी भी बेईमान, आज धीमे चल रही है। टिक -टिक भी आज आहिस्ता- आहिस्ता हो रहा है। आज ही सूझा था अस घड़ी को भी! रोज जाती थी गति से, आज बड़ी मंथर है। आज जैसे झिझक-झिझक कर चल रही है। जैसे आज मुझे सताने का तय ही कर रखा है।

और आइंस्टीन यह भी कहता कि समझो कि वर्षों से बिछड़ी हुई प्रेयसी तुम्हें मिल गई आज। यही घड़ी। तुम अपनी प्रेयसी का हाथ हाथ में लिए, पूर्णिमा की रात, बैठे हो आकाश के तले। वही घड़ी, अब भी टिक -टिक कर रही है; लेकिन अब घंटे ऐसे बीत जाएंगे जैसे क्षण बीते। रात ऐसे बीत जाएगी जैसे अभी आई अभी गई, हवा के झोंके की तरह। तुम्हारा मन कहेगा : बेईमानी घड़ी, आज बड़ी तेज चली!

घड़ी तो वही है, घड़ी की चाल वही है। घड़ी को पता भी नहीं है कि तुम कब गरम तवे पर बैठे थे और कब प्रेयसी का हाथ हाथ में लिए थे। घड़ी को न तुम्हारी अमावस का पता है न तुम्हारी पूर्णिमा का। घड़ी तो यंत्र है। लेकिन तुम्हारे भीतर जो मनोवैज्ञानिक बोध है समय का, वह लंबा हो जाएगा, छोटा हो जाएगा। तुम्हारा मनोवैज्ञानिक जो बोध है समय का, वह भूतियों निर्भर होता है होगी अनुभूति तो समय थोड़ा हो जाता है और जब होगी तो तुम्हारी अनु पर। जब सुखद दुखद बहुत छोटा हो जाता है।

इसलिए परम आनंद का जो क्षण है, समाधि का जो क्षण है, उसमें समय मिट ही जाता है, समय बचता ही नहीं। और जो महादुख का क्षण है, जिसको हम नरक कहते हैं… ईसाइयों का कथन ठीक है कि नरक अनंत है। उस संबंध में मैं ईसाइयों से राजी हूं -बजाय हिंदू  जैनों, बौद्धों के। हालांकि उनकी सिद्धांत तर्क से बैठता नहीं।

उससे ही संबंधित है। अनंत नहीं है नरक। लेकिन नरक की पीड़ा इतनी चरम है कि अनंत मालूम होती है। जैसे समाधि का आनंद इतना गहन है कि कालातीत हो जाता है, समय विलीन हो जाता है -ऐसे ही नरक में समय ही समय रह जाता है, अंतहीन! अंत आता ही नहीं मालूम होता। नरक में कभी सुबह नहीं होती-रात इतनी लंबी मालूम होती है! स्वर्ग में कभी रात नहीं होती-दिन इतना लंबा मालूम होता है। ये अंतरप्रतीतिया हैं।

जिन लोगों ने कहा है कि त्याग बड़ा महिमापूर्ण है, निश्चित ही यह उनकी अंतरप्रतीति है कि वे अभी भोग से ग्रस्त हैं; अभी उनको धन ने पकड़ा है। धन के त्याग की चर्चा कर रहे हैं, क्योंकि धन में अभी उनका लोभ लगा है। अभी भी हाथी- घोड़ों की गिनती कर रहे हैं-कितने छोड़े!



हंसा तो मोती चुने

 ओशो 

No comments:

Post a Comment

Popular Posts