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Monday, December 28, 2015

भगवान! बिहारी की एक अन्योक्ति है फूल्यो अनफूल्यो रहयो गंवई गांव गुलाब क्या भारत में आपके साथ भी यही हो रहा है? दूर दिगंत तक तो आपकी सुवास फैल रही है और भारत अछूता रहा जा रहा है!

‘कृष्ण वेदांत!

यह सहज है, स्वाभाविक है, जीवन का सामान्य कम है। इससे अन्यथा नहीं हो सकता। जीसस ने कहा है : पैगंबरों को उनके ही गांव में समादर नहीं मिलता। मिले भी कैसे! जीसस जिस गांव में पैदा हुए, जिस गांव में बड़े हुए, जिस गांव की धूल में खेले, पढ़े -लिखे, जिस गांव में पिता की लकड़ी की दूकान पर लकड़ियां बेची, जंगल से लकड़िया काटीं, पिता को लकड़ियों के सामने बनाने में साथ- सहयोग दिया-वह गांव अचानक कैसे स्वीकार कर ले कि जीसस में परमात्मा का अवतरण हुआ है! और सह घटना इतनी आकस्मिक है, इतनी अविच्छिन्न है अतीत से कि दोनों के बीच तालमेल बिठाना गांव के लोगों को असंभव है। यह बढ़ई का लड़का अचानक ईश्वर -पुत्र हो गया! इससे गांव के लोगों को भी अहंकार को भी चोट लगती है, ईर्ष्या भी जगती है, संदेह भी उठता है, अविश्वास भी पकड़ता है। और मानने का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता।

जीसस को देखने के लिए थोड़ी दूरी चाहिए। हर चीज को देखने के लिए परिप्रेक्ष्य चाहिए। अगर तुम्हें दर्पण में अपनी तस्वीर देखनी हो तो थोड़े फासले पर खड़ा होना होगा। अगर तुम बिलकुल दर्पण से नाक लगाकर खड़े हो जाओ तो अपना चेहरा भी दिखाई न पड़ेगा। थोड़ी दूरी, और चीजें साफ होती हैं।

जब पहली बार यूरीगागरिन अंतरिक्ष में गया और पहली बार उसने दूर से पृथ्वी को देखा तो उसने अपने संस्मरणों में कहा है कि मेरे मन में ऐसा भाव नहीं उठा कि मैं रूसी हूं; ऐसा भाव नहीं उठा कि कम्युनिज्म की विजय हो; ऐसा भाव नहीं उठा कि पृथ्वी देशों में विभक्त है। उतने अंतर से देखने पर सारी पृथ्वी एक मालूम हुई। देशों की सब सीमाएं झूठी हो गई, सब कल्पित नक्शों पर रह गई। असली पृथ्वी तो कहीं भी बंटी नहीं है, न असली सागर बंटे हैं, न असली नदिया बंटी हैं। आदमी के नक्यप्रें में सब बंटाव है।

युरीगागरिन ने कहा है कि जो मेरे मन में भाव उठा वह यह-मेरी पृथ्वी! मेरा देश नहीं, मेरी जाति नहीं, मेरा धर्म नहीं, मेरा विचार नहीं, मेरी विचारधारा नहीं, मेरी राजनीतिक कल्पना-परिकल्पना नहीं-मेरी पृथ्वी, बस मेरी पृथ्वी हरी – भरी इतनी प्यारी!

पृथ्‍वी से दूर जाकर यूरीगागरिन को पृथ्वी की वास्तविकता अनुभव में आयी। जीसस के गांव के लोग जीसस को पृथ्वी न पहचान सके। बुद्ध जब बारह वर्षों के बाद जागरूक होकर घर आये तो खुद बुद्ध के पिता न पहचान सके। बुद्ध के पिता ने कहा कि अभी भी तुझे क्षमा कर सकता हूं। ऐसे तूने मुझे बहुत आघात पहुंचाया है। इस बुढ़ापे में, इकलौता बेटा तू मेरा और छोड्कर भाग गया, न शर्म न संकोच। यह भगोड़ापन है। और ये भिखमंगों का समूह इकट्ठा कर लिया। अभी भी लौट आ यद्यपि घाव गहरा है, क्षमा करना कठिन है; लेकिन पिता का हृदय है, मैं तुझे क्षमा कर दूंगा। आ और सम्हाल अपने राज्य को। इसे मैं किसे सौंप जाऊं, मेरी मौत करीब आती है!

बुद्ध के पिता की आखें से भरी हैं। बुद्ध ने कहा : मेरी भी सुनेंगे, मेरा निवेदन सुनेंगे? जो घर छोड्कर गया था मैं वही नहीं हूं।

बुद्ध के पिता दस क्रोध में भी हंसने लगे और कहा : यह भी मजाक रही! मैं तुझे नहीं पहचानता? मेरे खून से तू बना है। मेरी हड्डी-पास -मज्जा से तू बना है। तू मेरा ही अंग है, मेरा ही एक विस्तार। मैं तुझे नहीं पहचानता? तू मुझे समझा रहा है कि तू वही नहीं है जो गया था! तू वही है।

थोड़ा सोचो, बुद्ध के पिता भी ठीक कहते हैं कि तू वही है और बुद्ध भी ठीक कहते हैं कि मैं वही नहीं हूं। एक क्रांति घट गयी है बीच में। चेतना में एक रूपांतरण हो गया है। लेकिन वह रूपांतरण तो आतरिक है। वह रूपांतरण तो उनको दिखाई पड़ेगा जो झुकेंगे; बुद्ध के पिता तो झुक नहीं सकते। पिता- भाव, अहंकार खड़ा है। वे तो क्रोध से भरे हैं, झुकने की बात कहां? वे तो नाराज हैं। वे तो क्षमा करने में भी सोच रहे हैं कि बहुत उपकार कर रहे हैं। और जब उन्होंने यह कहा कि तू मुझसे पैदा हुआ, मैं तुझे नहीं पहचानता! तो बुद्ध ने कहा : फिर मैं निवेदन करता हूं कि मैं आपसे आया हूं लेकिन आपसे पैदा नहीं हुआ। आप रास्ता थे मेरे आने के, लेकिन आप मेरे जन्मदाता नहीं है। और मैं यह भी निवेदन कर दूं कि आपके भी पहले मैं था। और – और जन्मों में भी मैं था। और – और मेरे पिता हुए, और- और मेरी माताएं हुइ। न मालूम कितने गर्भों से मैं गुजरा हूं लेकिन वे सब मार्ग थे। उनसे मैं उत्पन्न नहीं हुआ था, उनसे गुजरा था। आपसे भी गुजरा हूं। आप जरा क्रोध को शमन करें, गौर से मेरी तरफ देखें, मेरी आखों में झांकें।

बुद्ध की पत्नी भी बहुत नाराज थी। बारह वर्ष बाद ये घर लौटे थे। बारह वर्ष का इकट्ठा क्रोध संग्रहीभूत था। बड़ी मानिनी थी। राजपुत्री थी। किसी से कहा भी न था और कभी आंख से एक आंसू भी न गिराया था। क्षत्राणी थी। ऐसे आंसू गिराना शोभा भी न देता था। शिकायत भी न की थी। किसी ने कभी शिकायत भी न सुनी थी। पी गई थी, सब पी गई थी, जहर पी गई थी; मगर जहर कंठ तक भरा था! बुद्ध आये तो सब टूट पड़ा। एकदम पागल सिंहनी की भांति बुद्ध पर क्रुद्ध हो उठी। लांछना करने लगी, शिकायत करने लगी, निंदा करने लगी, व्यंग्य करने लगी।

बुद्ध अपने बेटे को छोड़ कर गये थे, तब बेटा केवल नया -नया पैदा हुआ था, एक ही दिन का था। अब वह बारह वर्ष का हो गया था। क्रोध में मां ने अपने बेटे से कहा कि ले, ये तेरे पिता हैं, तू बार -बार पूछता था कि मेरे पिता कौन हैं, मेरे पिता कहां हैं, ये रहे सज्जन! ये जो भाग गये थे छोड्कर-मुझे और तुझे, असहाय! इनसे मांग ले अपनी बपौती। इन्होंने तुझे पैदा किया है। मांग ले इनसे अपना अधिकार!

मजाक कर रही थी वह, व्यंग्य कर रही थी। बुद्ध के पास देने को था भी क्या? बेटा तो समझा नहीं, मां की बात सुनकर उसने अपनी झोली फैला दी। उसने कहा कि अगर आप ही मेरे पिता हैं तो मुझे संपदा, मेरा अधिकार, मेरी वसीयत! बुद्ध हंसने लगे और उन्होंने अपना भिक्षा-पात्र… वही उनके पास था और तो कुछ था नहीं… अपना भिक्षा -पात्र राहुल को दे दिया और कहा : राहुल, यह तेरी दीक्षा हुई! तू संन्यस्त हुआ, क्योंकि मेरे पास एक संपदा है जो मैं केवल संन्यासियों को दे सकता हूं। वह संपदा बाहर की नहीं है राहुल। वह संपदा सोना -चादी, हीरे – जवाहरातों की नहीं है- आत्मा की है। तू अभी छोटा है, मगर शायद इसीलिए कि तू अभी छोटा है समझ पाये। बड़े तो बड़े ज्ञान से भरे हैं। पिता तो सुनने को भी राजी नहीं हैं, शायद बेटा सुन ले!

और बेटे ने पहले सुना। राहुल झुका चरणों में और उसने कहा : मुझे अंगीकार करें! राहुल को झुकते देखकर, राहुल की आखों से गिरते आनंद के आंसू टपकते देखकर, यशोधरा झुकी-बुद्ध की पत्नी झुकी। उसे भी स्मरण आया कि मैं क्या कर रही हूं किससे लड़ रही हूं! मैं जरा गौर से तो देखूं? यह वही व्यक्ति तो नहीं है! इतनी गालियां मैंने दी होतीं, जो बारह वर्ष मुझे पहले छोड्कर गया था, तो मेरी गर्दन दबा दी होती, कि गर्दन मेरी तलवार से उतार दी होती। लेकिन यह चुपचाप खड़ा है, जैसे फूल बरसते हों, जैसे अंगारे नहीं, जैसे गालियां नहीं, स्वागत का गीत गाया जा रहा हो, मंगल गीत गाये जा रहे हों! अविक्षुब्ध, निस्वरंग, यह जो सामने खड़ी है प्रतिमा, यह वही तो नहीं है जिसे मैंने पति की तरह जाना था। नहीं यह कोई और है। भीतर कुछ बात बदल गयी है। भीतर की व्यवस्था बदल गयी है।

राहुल को झुकते देखकर… पर ध्यान रखना, राहुल बारह साल का लड़का, पहले झुका; सरल था, पुरानी कोई धारणा नहीं थी। पिता की को पुरानी याद नहीं थी। इसलिए पुरानी कोई बाधा नहीं थी। इसलिए पुरानी कोई अपेक्षा नहीं थी। सीधा देख सका। बीच में कोई धारणाओं का जाल न था, आंख पर कोई पट्टिया न थीं। कोई विचार न थे कि पिता कैसे होने चाहिए। पहली ही बार देखा था और अभिभूत हो गया था, आनंदमग्न हो गया था। ‘ अगर यही मेरे पिता हैं’… तो अहोभाव उतर आया था। निर्दोष उस चित्त में बुद्ध की प्रतिमा सीधी-सीधी बनी थी। उसकी क्रांति को होते देखकर यशोधरा झुकी। यशोधरा को झुकते देखकर बुद्ध के पिता शुद्धोधन झुके। फिर पूरा परिवार झुका।

कठिन है, जो निकट रहे हैं, जिन्होंने बचपन से देखा है, जो साथ बड़े हुए हैं, साथ खेले हैं, लड़े हैं झगड़े हैं, उन्हें समझना निश्चित कठिन है। उन पर नाराज न होना।


हंसा तो मोती चुने 

ओशो 

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