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Friday, February 23, 2018

स्रष्टा सृष्टि से बड़ा होता है



रोम में एक बहुत कुशल कारीगर था, एक बहुत बड़ा लोहार था। उसकी कुशलता की प्रसिद्धि दूर-दूर के देशों तक थी। दूर-दूर के बाजारों में उसकी चीजें बिकतीं। दूर-दूर उसकी प्रशंसा होती। धीरे-धीरे बहुत धन उसके द्वार पर आकर इकट्ठा होने लगा। फिर रोम पर हमला हुआ। और दुश्मन ने आकर रोम को रौंद डाला। और रोम के सौ बड़े नागरिकों को बंदी बना लिया। उन सौ बड़े नागरिकों में वह लोहार भी एक था। उन सबके हाथों में जंजीरें पहना दी गईं और पैरों में बेड़ियां डाल दी गईं, और उन्हें एक दूर पहाड़ी घाटियों में फिंकवा दिया गया मरने को, मृत्यु की प्रतीक्षा करने को। सौ नागरिकों में निन्यानबे नागरिक रो रहे थे, उनकी आंखें आंसुओं से भरी थीं, और प्राण चिंता और व्याकुलता से, लेकिन वह लोहार निश्चिंत मालूम होता था। न उसकी आंखों में आंसू थे, न उसके चेहरे पर उदासी थी, उसे खयाल था इस बात का, मैं जीवन भर खुद लोहे की कड़ियां बनाता रहा हूं, तो कड़ियां कितनी ही मजबूत हों, मैं उन्हें खोलने का कोई न कोई उपाय जरूर खोज लूंगा। बहुत कुशल था वह कारीगर, निश्चिंत था इसलिए, आश्वस्त था कि घबड़ाने की कोई बात नहीं है। जैसे ही मुझे फेंक कर कैदी की तरह घाटी में सैनिक लौट जाएंगे, मैं कड़ियां खोल लूंगा।


और उसे फेंक कर सैनिक वापस लौटे, तो उसने पहला काम अपनी कड़ियों को देखने का किया। लेकिन जंजीर को देखते ही, बेड़ी को देखते ही उसकी आंखें आंसुओं से भर गईं और उसने अपने बंधे हुए हाथों से अपनी छाती पीट ली और रोने लगा। क्या दिखाई पड़ गया उसे जंजीर पर? एक बड़ी अजीब बात जिसकी उसने जीवन में कभी कल्पना भी न की थी। उसकी आदत थी, वह जो भी बनाता था, जो भी चीज तैयार करता था उसके कोने तरफ में हस्ताक्षर कर देता था। कड़ी जब उसने देखी, पैर की जंजीर जब देखी, तो पाया, उसके हस्ताक्षर हैं। वह उसकी ही बनाई हुई जंजीर थी। जो दूर बाजारों में बिक कर वापस लौट आई थी दुश्मन के हाथों। और अब, अब वह घबड़ा गया था। अब जंजीर को तोड़ना बहुत कठिन था, क्योंकि उसे पता था कमजोर चीज बनाने की उसकी आदत ही नहीं थी। परिचित था इस कड़ी से, इस जंजीर से। कमजोर चीज बनाने की उसकी आदत नहीं रही, उसने तो मजबूत से मजबूत चीजें बनाई थीं। उसे कब खयाल था कि अपनी ही बनाई हुई जंजीरें किसी दिन अपने ही पैरों पर पड़ सकती हैं। यह तो कभी सपना भी न देखा था। कोई भी आदमी कभी यह सपना नहीं देखता कि जो कारागृह मैं बना रहा हूं उनका अंतिम बंदी मैं ही होने को हूं। कोई कभी यह नहीं देखता कि जो जंजीरें मैं निर्मित करता हूं, वे मेरे ही हाथों पर पड़ जाएंगी। कोई इस बात की कल्पना भी नहीं करता, दूर खयाल भी इस बात का नहीं आता कि पूरे जीवन में मैं जो जाल रच रहा हूं, मैं ही उसमें फंस जाऊंगा। 


मैं आपसे निवेदन करता हूं, हर आदमी उसी जाल में फंस जाता है जिसका वह निर्माता है। और तब, तब वह चिल्लाता है और हाथ जोड़ता है और परमात्मा से प्रार्थनाएं करता है, व्रत-उपवास करता है, पूजा-अर्चना करता है, गिड़गिड़ाता है, घुटने टेक कर जमीन पर खड़ा होता आकाश की तरफ आंखें उठाता है--मुझे मुक्त कर दो, मुझे स्वतंत्र कर दो। लेकिन कौन करेगा स्वतंत्र? कोई आकाश से उतरेंगे देवता? कोई ईश्वर आएगा स्वतंत्र करने? जब परतंत्र होना चाहा था तब किससे पूछने हम गए थे? और किस परमात्मा से हमने प्रार्थना की थी? और किस मंदिर के द्वार पर हमने घुटने टेके थे? और किससे हमने पूछा था कि मैं परतंत्र होना चाहता हूं मुझे जंजीरें बनाने का रास्ता बता दो? किसी से भी नहीं, तब हम अपने से ही पूछ कर ये सब कुछ कर लिए थे। और स्वतंत्रता के लिए दूसरे के द्वार पूछने जाते हैं? और इसमें न हमें शर्म आती है और न यह खयाल आता है कि कैसी विक्षिप्त है यह बात। परतंत्रता अपनी निर्मित है तो स्वतंत्रता भी अपनी ही निर्मित करनी होगी। कोई प्रार्थना नहीं काम करेगी, कोई साथ नहीं देगा, कोई हाथ आकाश से नीचे नहीं उतरेगा कड़ियां खोलने को, अपने ही हाथों से जो बांधा है उसे खोलने पड़ेगा।


वह लोहार रोता रहा, छाती पीटता रहा, छोड़ दी उसने आशा जीवन की, अब बचने की कोई उम्मीद न थी। एक लकड़हारा बूढ़ा उस रास्ते से निकलता था, उसने पूछा, क्यों रोते हो? उस लोहार ने अपने दुख की कथा कही। उसने कहा, मैं सोचता था कि मुक्त हो सकूंगा इन जंजीरों से, लेकिन ये जंजीरें मेरी बनाई हुई हैं और बहुत मजबूत हैं। और अब, अब कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ता है। 


वह बूढ़ा हंसने लगा और उसने कहा, इतने निराश हो जाने का कोई कारण नहीं। अगर ये जंजीरें किसी और की बनाई हुई होतीं, तो निराश होने का कारण भी था, ये तुम्हारी ही बनाई हुई हैं। और स्मरण रखो, बनाने वाला जिन चीजों को बनाता है उनसे हमेशा बड़ा होता है। स्रष्टा सृष्टि से बड़ा होता है; निर्माता निर्मित से बड़ा होता है। तुमने जो बनाया है तुम उससे बड़े हो। और इसलिए घबड़ाओ मत, जो तुमने बनाया है उसे तोड़ने की सामर्थ्य हमेशा तुम्हारे भीतर है, घबड़ा गए तो चूक जाओगे, फिर मुश्किल हो जाएगी। और स्मरण रखो, कड़ियां कितनी ही मजबूत हों, जंजीरें कितनी ही मजबूत हों, जहां जंजीर जोड़ी जाती है वह एक कड़ी हमेशा कमजोर रह जाती है, उस पर जोड़ होता है जो खुल सकता है। इसलिए घबड़ाओ मत, धैर्य से काम लो। इतने कुशल कारीगर हो, बेड़ियां बनाने में इतने कुशल थे, तो यह क्यों भूल जाते हो कि खोलने में भी वह कुशलता काम आ सकती है। जो आदमी गांठ बांधना जानता है, वह बांधते ही उसको खोलना भी जान जाता है, सीख जाता है। हर व्यक्ति अपनी परतंत्रता निर्मित करता है, अगर उसे ठीक से देखे तो उसे खोलने का मार्ग भी उसके पास है। 


अंतर की खोज 

ओशो

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