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Thursday, May 13, 2021

सेक्स की मांग जो इंसान के दिल में है, और अश्लीलता की मांग, इन दोनों में थोड़ा वैचारिक...






पहली बात तो यह कि सेक्स की मांग अश्लील नहीं है, लेकिन जो समाज सेक्स की निंदा करेगा उस समाज में सेक्स की अश्लील मांग शुरू हो जाएगी। सेक्स की मांग अश्लील नहीं है, लेकिन सप्रेसिव सोसाइटी सेक्स की मांग को अश्लील रास्तों पर ले जाएगी।


खाना खाना कोई, खाने की मांग कोई पाप नहीं है। लेकिन मैं एक ऐसे घर में पैदा हुआ जहां सोलह वर्ष तक मैंने कभी रात को खाना नहीं खाया था, और सोचता था कि रात खाना खाया तो नरक गया। न कभी घर में किसी को खाते देखा था। और जो आस-पास खाते थे, तो घर के लोगों का भाव भी देखा था कि वे सब नरक जाने वाले हैं। सोलह साल तक घर के बाहर भी ज्यादा नहीं गया था, तो मुझे कभी रात खाने का मौका भी नहीं आया था।



एक बार कुछ मित्रों के साथ पिकनिक पर गया, कालेज में पहुंचा तो। वे तो सब रात को खाने वाले थे। पहाड़ पर दिन भर घूमे, थक गए। उन्होंने दिन में तो खाने की कोई फिक्र न की, रात खाना बनाना शुरू किया। अब मैं दिन भर का भूखा हूं, थका-मांदा हूं। उनके खाने की सुगंध, सामने ही खाना बन रहा है। मेरा पूरा मन तो इनकार कर रहा है कि खाना मत खाना, क्योंकि इससे बड़ा कोई पाप नहीं है। और भूख कह रही है कि खाना खाना ही पड़ेगा, असंभव है रोकना। फिर उनके खाने की सुगंध घेर रही है। फिर उन सबका मनाना भी आकर्षण दे रहा है--कि खा ही लो, इससे क्या बिगड़ता है! हम सब नरक जाएंगे तो तुम भी चले चलना। इतने लोग सब नरक जाएंगे।



उनकी बात आखिर में मान ली। खाना खा लिया। खाना तो खा लिया, लेकिन रात में तीन बार वॉमिट हुई। जब तक पूरा खाना नहीं निकल गया तब तक मैं रात में सो नहीं सका।



उस दिन मैंने यही सोचा कि यह पापपूर्ण चीज थी, इसलिए वॉमिट हो गई। आज मैं जानता हूं, पाप-पुण्य होने से कोई संबंध न था। मेरा जो विरोध था, मेरी जो निंदा थी, मेरे जो मन का भाव था, मेरा जो सप्रेसिव दिमाग था--कि नहीं खाना है--उसने रिवोल्ट पैदा किया है, उसने वॉमिट भी पैदा कर दी। अब तो बहुत बार खा रहा हूं, अब वॉमिट नहीं होती। इतने लोग खा रहे हैं, उन्हें नहीं होती। उस दिन मैंने यही समझा था कि वॉमिट जो है, वह पाप को बाहर फेंक देने के लिए है।



सेक्स की मांग तो स्वाभाविक है। न हो तो आदमी बीमार है। वह मांग तो स्वाभाविक है। लेकिन उस स्वाभाविक मांग को अगर हम सब तरफ से निंदा करें और रोकने की कोशिश करें, तो मांग अश्लील बन जाएगी, पाप-पुण्य बन जाएगी। और उस आदमी को भी लगने लगेगा कि कोई अपराध का काम हो रहा है। वह उसे चोरी से भी करने लगेगा और ऐसे उपाय खोजेगा जहां वह मांग भी पूरी हो जाए अश्लील, और कोई बाधा भी न पड़े। अब दो ही उपाय हैं--या तो वह पिक्चर देख कर पूरा कर ले और या सड़कों पर चलती स्त्रियों के वस्त्र छीन ले। एक ही उपाय है--या तो वह कविता पढ़ कर पूरी कर ले या बाथरूम में गालियां लिख कर पूरी कर ले। वह कुछ उपाय खोजेगा और उस उपाय से एक नई मांग पैदा होगी, एक नया बाजार पैदा होगा।



मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सेक्स की मांग गलत है। मैं यह कह रहा हूं कि सेक्स के संबंध में हमारी जो धारणा है दुश्मनी की, वह गलत है। वह दुश्मनी की धारणा अश्लीलता पैदा करती है। अश्लीलता दमन का सहज परिणाम है। और जितना स्वस्थ समाज होगा उतना कम दमन वाला होगा, उतनी कम अश्लीलता होगी। क्योंकि चीजों के तथ्यों को हमने स्वीकार कर लिया होगा।



एक छोटा सा बच्चा पूछ रहा है, एक छोटे से बच्चे के मन में भी जिज्ञासा है कि लड़की का शरीर कैसा है? एक छोटी लड़की के मन में भी जिज्ञासा है कि लड़के का शरीर कैसा है? और हम सबने उनके शरीर ढांके हुए हैं। और जिज्ञासा बिलकुल स्वाभाविक है, क्योंकि लड़के को लड़की कुछ अलग मालूम पड़ती है; लड़की को लड़का कुछ अलग मालूम पड़ता है। घर के लोग अलग-अलग होने का भाव भी पैदा करते हैं, कांशसनेस भी पैदा करते हैं--कि वह लड़का है, वह लड़की है। लड़का गुड्डी खेल रहा हो तो इनकार करते हैं--कि यह क्या लड़कियों जैसा काम कर रहे हो! स्वाभाविक है कि वह जानना चाहे कि फर्क क्या है? भेद क्या है? और कभी उसको पूरा नहीं देखा है। तो वह छिप कर देखना चाहता है। वह डाक्टरी का खेल खेल कर और लड़की के घाघरे के भीतर घुस जाना चाहता है। वह कुछ न कुछ उपाय खोजेगा।



अब ये उपाय अश्लील हुए चले जा रहे हैं। ये उपाय खतरनाक हुए चले जा रहे हैं। और इनका ईजाद करने वाला बच्चा नहीं है, इनका ईजाद हम करवा रहे हैं। हम उसको रोक रहे हैं। अगर लड़के और लड़कियां नंगे साथ खेल रहे हों, स्नान कर रहे हों एक उम्र तक, नंगे बड़े हो रहे हों और कोई कांशसनेस न दी जा रही हो कि यह शरीर अलग, यह शरीर अलग, वे उसके अलगपन से परिचित हो गए होंगे, वे बड़े हो गए होंगे।



आज भी आदिवासी समाज में शरीर के प्रति वह जुगुप्सा नहीं है जो हममें है। क्योंकि शरीर खुले हुए हैं, जुगुप्सा का सवाल क्या है! सीक्रेसी नहीं है तो अश्लीलता का सवाल क्या है! एक आदिवासी को हैरानी ही होती है यह बात देख कर कि स्त्रियों के स्तनों का इतना प्रचार विज्ञापनों में हो, फिल्मों में हो! हैरानी ही होती है कि यह मामला क्या है? यह दिमाग खराब हो गया है लोगों का क्या? स्त्री के स्तन हैं सो ठीक बात है, अब इसमें मामला क्या है इतना बढ़ाने का!



और कालिदास से लेकर और सारे कवि स्त्री के स्तनों की चर्चा कर रहे हैं। महाकवि भी वही चर्चा कर रहा है। कालिदास भी वही कह रहे हैं। और सारे लोग वही कह रहे हैं। कालिदास को जंगल में फल लटके दिखाई पड़ते हैं तो भी यही दिखाई पड़ता है कि स्त्री के स्तनों जैसे फल लटके हुए हैं।



यह कुछ न कुछ अस्वस्थ हो गई कहीं कोई बात। कहीं हमने ऐसा धक्का दिया है कि हमने परवर्शन का उपाय पैदा कर दिया। नहीं तो फल में फल दिखाई पड़ना चाहिए। फल से स्त्री के स्तन को देखने का क्या संबंध है? कोई मामला नहीं समझ में आता। कोई एसोसिएशन नहीं दिखता है। लेकिन हमने जब सब तरफ से रोका है, तो माइंड नये-नये मार्ग खोज रहा है, नई तरकीबें खोज रहा है और नये उपाय खोज रहा है।



यह मांग, हमारी जो शुद्धतावादी दृष्टि है उसने पैदा की है। और मजा यह है कि वह शुद्धतावादी दृष्टि कहती है कि हम नियम इसलिए पैदा करते हैं कि आपको स्वस्थ कर सकें। हम व्यवस्था इसलिए देते हैं कि आप गड़बड़ न हो जाएं। हम अनुशासन इसलिए बनाते हैं कि आदमी भटक न जाए। और उसके अनुशासन, उसकी व्यवस्था, उसके सारे नियम मिल कर, जैसा आदमी है, उसको भटका रहे हैं।


चेति सकै तो चेति 


ओशो 




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