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Friday, July 20, 2018

जानना बड़ी और बात है, जानने का भ्रम और


सत्य के संबंध में जाना जा सकता है। बहुत जाना जा सकता है। सारे विश्व के पुस्तकालय भरे पड़े हैं, पटे पड़े हैं। मगर वह सत्य को जानने की व्यवस्था नहीं है। सत्य को जानने की प्रक्रिया तो ठीक उलटी है। सब कोटियां तोड़ देनी होंगी, सब शृंखलाएं विसर्जित कर देनी होंगी, सारी धारणाओं को नमस्कार कर लेना होगा--आखिरी नमस्कार! हिंदू की धारणा, मुसलमान की, ईसाई की, जैन की बौद्ध की, सिक्ख की, पारसी की, सारी धारणाओं को विदा कर देना होगा। क्योंकि जब तक तुम्हारी धारणाएं हैं, जब तक तुम्हारे पक्षपात हैं, जब तक तुम मान कर चल रहे हो, तब तक तुम उसे न जाने सकोगे जो है। तुम्हारी मान्यता उस पर आरोपित हो जाएगी। तुम्हारी आंखों पर चश्मा लगा है तो उसको रंग तुम्हें भ्रांति देगा क्योंकि उसका रंग तुम्हारे चारों तरफ हावी हो जाएगा। और क्या है हिंदू होना और मुसलमान होना और जैन होना? चश्मे हैं। अलग-अलग रंग के। और जिस रंग से तुम देखोगे, वही रंग सारे अस्तित्व का दिखाई पड़ने लगेगा।


अस्तित्व को देखना हो तो चश्मे उतार देना जरूरी है। शास्त्री के बोझ से मुक्त हो जाना जरूरी है। और जब तुम्हारे भीतर कोई भी ज्ञान नहीं रह जाता तब निर्दोषता का जन्म होता है। तब तुम्हारे भीतर वही हृदय होता है, जो तुम बच्चे की तरह लेकर आए थे। वही सरलता, वही जिज्ञासा, वही जानने की आतुरता। 


पंडित में जानने की आतुरता नहीं होती। वह तो जाने ही बैठा है!


एक मित्र ने प्रश्न पूछा है...प्रमोद उनका नाम है...कि आपको समझना इतना कठिन क्यों है? मुझे समझना कठिन नहीं है, मैं तो बहुत सीधी-सादी भाषा बोल रहा हूं, लेकिन वह जो प्रमोद के साथ "पंडित' जुड़ा है उस "पंडित' ने उपद्रव कर दिया है। वह "पंडित' नहीं समझने देगा। पांडित्य ने कभी किसी को नहीं समझने दिया। जीसस को सूली पर चढ़ाया? पंडितों ने। यहूदी धर्म के पंडित थे। किसने मंसूर के हाथ-पैर काटे, गर्दन काटी? मुसलमान पंडितों ने। मौलवियों ने, इमामों ने, अयातुल्लाओं ने। वे उनके पंडित थे। मंसूर से चूक गये, जीसस से चूक गये। बुद्ध को किसने इनकार किया इस देश में इस? देश से कैसे बुद्ध की अदभुत सुगंध तिरोहित हो गयी? पंडितों का जाल! उनके बर्दाश्त के बाहर हो गया।


और कारण है उनके बर्दाश्त के बाहर होने का। पंडित का एक स्वार्थ है, बहुत गहरा स्वार्थ है। उसका ज्ञान खतरे में है। अगर वह बुद्धों की सुने, तो उसे पहली तो बात यह करनी होगी कि ज्ञानी को छोड़ने का साहस, जुटाना होगा। और ज्ञान को छोड़ना ये है जैसे कि कोई उससे प्राण छोड़ने को कह रहा हो। वही तो उसी संपदा है। वही उसकी धरोहर है। उसी के बल पर तो उसके अहंकार में सजावट है, शृंगार है। वही तो उसका आभूषण है। वही तो है उसके पास, और तो कुछ भी नहीं है। वह शास्त्रों का बोझ ही तो उसे भ्रम दे रहा है--जानने का।


लेकिन जानना बड़ी और बात है, जानने का भ्रम और।


अज्ञान से आदमी नहीं भटकता इतना, जीना जानने के भ्रम से भटक जाता है। क्योंकि अज्ञानी कम से कम इतना तो अनुभव करता है कि मुझे पता नहीं। इतनी तो उसमें प्रामाणिकता होती है कि मुझे पता नहीं। लेकिन पंडित में यह प्रामाणिकता भी नहीं होती। पता तो नहीं है, मगर उसे ख्याल होता है मुझे पता है। उसने बिना जाने मान लिया है कि जान लिया। अब कैसे जानेगा? उसके जानने की दीवार बीच में खड़ी हो गयी। ज्ञान से नहीं जाना जाता सत्य, सत्य ध्यान से जाना जाता है। और ध्यान का अर्थ होता है: मन का अतिक्रमण। मनातीत हो जान। 

दीपक बारा नाम का 

ओशो

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