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Tuesday, December 31, 2019

"जैसे विषयीगत रूप से अक्षर शब्‍दों में और शब्‍द वाक्‍यों में जाकर मिलते है और विषयगत रूप में वर्तुल चक्रों में और चक्र मूल तत्‍व में जाकर मिलते है, वैसे ही अंतत: इन्‍हें भी हमारे आस्‍तित्‍व में आकर मिलते हुए पाओ।‘’



प्रत्‍येक चीज मेरे अस्‍तित्‍व में आकर मिल रही है। मैं खुले आकाश के नीचे खड़ा हूं और सभी दिशाओं से, सभी कोने-कातर से सारा आस्‍तित्‍व मुझमें मिलने चला आ रहा है। इस हालत में तुम्‍हारा अहंकार नहीं रह सकता। इस खुलेपन में जहां समस्‍त अस्‍तित्‍व तुममें मिल रहा है, तुम मैंकी भांति नहीं रह सकते हो। तुम खुले आकाश की भांति तो रहोगे, लेकिन एक जगह केंद्रित मैंकी भांति नहीं।


इस विधि को छोटे-छोटे प्रयोगों से शुरू करो। किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाओ। हवा बह रही है। और वृक्ष के पत्‍तों से सरसराहट की आवाज हो रही है। हवा तुम्‍हें छूती है, तुम्‍हारे चारों और डोलती है। तुम्‍हें छू कर गूजर रही है, लेकिन तुम उसे ऐसे मत गुजरने दो। उसे अपने भीतर प्रवेश करने दो और अपने में होकर गुजरने दो। आंखें बंद कर लो। और जैसे हवा वृक्ष से होकर गुज़रे और पत्‍तों में सरसराहट हो, तुम भाव करो कि मैं भी वृक्ष के समान खुला हुआ हूं। और हवा मुझमें से होकर गुजर रही है। मेरे आस-पास से नहीं, ठीक मेरे भीतर से होकर वह बह रही है। वृक्ष की सरसराहट तुम्‍हें अपने भीतर अनुभव होगी और तुम्‍हें लगेगा कि मेरे शरीर के रंध्र-रंध्र से हवा गुजर रही है।


हवा वस्‍तुत: तुमसे होकर गुजर रही है। यह कल्‍पना ही नहीं है, यह तथ्‍य है। तुम भूल गये हो। तुम नाक से ही श्‍वास नहीं लेते,तुम्‍हारा पूरा शरीर श्‍वास लेता है। एक-एक रंध्र से श्‍वास लेता है। लाखों छिद्रों से श्‍वास लेता है। अगर तुम्‍हारे शरीर के सभी छिद्र बंद कर दिये जाये,उन पर रंग पोत दिया जाये और तुम सिर्फ नाक से श्वास लेने दिया जाए तो तुम तीन घंटे के अंदर मर जाओगे। सिर्फ नाक से श्‍वास लेकर तुम जीवित नहीं रह सकते। तुम्‍हारे शरीर का प्रत्‍येक कोष्‍ठ जीवंत है और प्रत्‍येक कोष्‍ठ श्‍वास लेता है। हवा सच में तुम्‍हारे शरीर से होकर गुजरती है, लेकिन उसके साथ तुम्‍हारा संपर्क नहीं रहा है।


तो किसी झाड़ के नीचे बैठो और अनुभव करो। आरंभ में यह कल्‍पना मालूम पड़ेगी। लेकिन जल्‍दी ही कल्‍पना यथार्थ बन जाएगी। वह यथार्थ ही है कि हवा तुमसे होकर गुजर रही है। और फिर उगते हुए सूरज के नीचे बैठो और अनुभव करो कि सूरज की किरणें न केवल मुझे छू रही है। बल्‍कि मुझमें प्रवेश कर रही है। और मुझसे होकर गुजर रही है। इस तरह तुम खुल जाओगे, ग्रहणशील हो जाओगे।
यह प्रयोग किसी भी चीज के साथ किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, मैं यहां बोल रहा हूं,और तुम सुन रहे हो। तुम मात्र कानों से भी सून सकते हो और अपने पूरे शरीर से भी सून सकते हो। तुम अभी और यहीं यह प्रयोग कर सकते हो। सिर्फ थोड़ी सी बदलाहट की बात है। और अब तुम मुझे कानों से ही नहीं सुन रहे हो, तुम मुझे अपने पूरे शरीर से सून रहे हो। तुम्‍हारा कोई अंश नहीं सुनता है, तुम्‍हारी ऊर्जा का कोई एक खंड नहीं सुनता है; पूरे के पूरे सुनते हो। तुम्‍हारा समूचा शरीर सुनने में संलग्न होता है। और तब मेरे शब्‍द तुमसे होकर गुजरते है; अपने प्रत्‍येक कोष्‍ठ से, प्रत्‍येक रंध्र से, प्रत्‍येक छिद्र से तुम उन्‍हें पीते हो। वे सभी और से तुममें समाहित होते है।


तुम एक और प्रयोग कर सकते हो: जाओ और किसी मंदिर में बैठ जाओ। अनेक भक्‍त आएँगे जाएंगे ओर मंदिर का घंटा बार-बार बजेगा। तुम अपने पूरे शरीर से उसे सुनो। घंटा बज रहा है और पूरा मंदिर उसकी ध्‍वनि से गूंज रहा है। मंदिर की प्रत्‍येक दीवार उसे प्रतिध्‍वनित कर रही है। उसे तुम्‍हारी ओर वापस फेंक रही है।


इस लिए हमनें मंदिर को गोलाकार बनाया है। ताकि आवाज हर तरफ से प्रतिध्‍वनित हो और तुम्‍हें अनुभव हो कि हर तरफ से ध्‍वनि तुम्‍हारी और आ रही है। सब तरफ से ध्‍वनि लौटा  दी जाती है। सब तरफ से ध्‍वनि तुममें आकर मिलती है। और तुम उसे अपने पूरे शरीर से सुन सकते हो। तुम्‍हारी प्रत्‍येक कोशिका, प्रत्‍येक रंध्र उसे सुनता है। उसे पीता है। अपने में समाहित करता है। ध्‍वनि तुम्‍हारे भीतर होकर गुजरती है। तुम रंध्र मय हो गए हो। सब तरफ द्वार ही द्वार है। अब तुम किसी चीज के लिए बाधा न रहे हो। अवरोध न रहेन हवा के लिए,न ध्‍वनि के लिएन किरण के लिए, किसी के लिए भी नहीं। अब तुम किसी भी चीज का प्रतिरोध नहीं करते हो। अब तुम दीवार न रहे।


जैसे ही तुम्‍हें अनुभव होता है कि तुम अब प्रतिरोध नहीं करते,संघर्ष नहीं करते। वैसे ही अचानक तुम्‍हें बोध होता है कि अहंकार भी नहीं है। क्‍योंकि अहंकार तो तभी है जब तुम संघर्ष करते हो। अहंकार प्रतिरोध है। जब-जब तुम कहते हो, ‘नहींअहंकार खड़ा हो जाता है। जब-जब तुम कहते हो हांअहंकार विदा हो जाता है।


मैं उस व्‍यक्‍ति को आस्‍तिक कहता हूं,सच्‍चा आस्‍तिक  जिसने अस्‍तित्‍व को हाँ कहां है। उसमें कोई नहींनहीं रहा, कोई प्रतिरोध नही रहा। उसे सब स्‍वीकार है; वह सब कुछ को घटित होने देता है। अगर मृत्‍यु भी आती है तो वह अपना द्वार बंद नहीं करेगा। उसके द्वार मृत्‍यु के लिए भी खुले रहेंगे।

विज्ञान भैरव तंत्र 

ओशो

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