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Tuesday, December 3, 2019

अभय साधक के लिए पहली सीढ़ी है


महावीर ने अभय को साधक के लिए पहली सीढ़ी कहा है। और ठीक कहा है, क्योंकि जब तक अभय न हो जाए, तब तक कुछ भी न होगा। बड़ी मजे की घटना महावीर के संदर्भ में घटी है। और वह यह है कि महावीर ने कहा कि जब तक तुम अभय को उपलब्ध नहीं होते, तब तक तुम अहिंसक न हो सकोगे। आदमी हिंसक इसलिए तो है कि भयभीत है। हिंसा भय का बचाव है। कोई मुझे न मार डाले, इसलिए मैं खुद ही मारने को तैयार हूं। और कोई मुझे मारने आए, इसके पहले ही मैं उसे मारने चला जाता हूं। और बचना हो, तो यही उचित है कि आक्रमण के पहले ही आक्रमण कर दिया जाए। क्योंकि जो पहल करता है आक्रमण में, वह आगे निकल जाता है। हिंसा इसलिए इतनी हमारे मन को घेरे हुए है कि हम भीतर भयभीत हैं। हम डरे हुए हैं; इसलिए हम दूसरे को डराना चाहते हैं।

और हमें एक ही अनुभव है निडर होने का। वह तब हमें होता है, जब हमसे कोई डरता है, तो ही हमें निडर होने का अनुभव होता है--तुलनात्मक है। अगर आप किसी को डरा सकते हैं तो आपको आनंद आता है। आपको लगता है कि ठीक, अब मैं डरने वाला नहीं हूं, डरानेवाला हूं। वह जो आपसे ज्यादा डरता है, आपके सामने कंपता है, उसको देख कर आपको भरोसा आता है कि मैं कम कंप रहा हूं या आप अपने कंपन को ही भूल जाते हैं।

सम्राट होने का मजा क्या होगा? सत्ता में होने का मजा क्या है? हिंसा का मजा है, जो सत्ता में है, वह आपको कंपा सकता है। जिसके हाथ में शस्त्र है, वह आपको कंपा सकता है। जिसके हाथ में धन है वह आपको कंपा सकता है। और जिसके चारों तरफ लोग कंपते रहते हैं, उसको यह भरोसा रहता है कि मैं कंपने वाला नहीं हूं कंपाने वाला हूं।

हिटलर के संबंध में उसके एक अत्यंत विश्वासपात्र, निकट व्यक्ति ने किसी को पत्र में लिखा है कि हिटलर जब भी किसी को मरवाता था, तब बहुत प्रसन्न होता था। अक्सर अपने सामने वह किसी को गोली मरवा कर मरवा डालता था और सामने ही कोई तड़प कर शांत हो जाता था, उसके चेहरे पर ऐसी शांति और आनंद की लहरें छा जाती थीं। तो उस अत्यंत निकट जन ने हिटलर से पूछा कि तुम इतने प्रसन्न क्यों हो जाते हो, जब कोई मरता है? तो हिटलर ने कहा कि मुझे यह भरोसा आता है कि मैं मरने वाला नहीं हूं, मारने वाला हूं। मौत मेरा कुछ भी न बिगाड़ सकेगी। जब मैं किसी को मार डालता हूं, तो मैं मौत का मालिक हो गया हूं।


नादिर को, तैमूर को, चंगेज को, नेपोलियन को, सिकंदर को, हिटलर को, स्टालिन को, माओ को जो रस प्रतीत होता है दूसरे को नष्ट करने में, वह इस बात का है कि मैं जब नष्ट कर सकता हूं स्वयं, तो मुझे कौन नष्ट कर सकेगा? तुलना में जो हमसे ज्यादा डरता है, हम उससे बड़े हो जाते हैं। और इसलिए हर आदमी अपने आसपास किसी न किसी को डराता रहता है।

अगर एक दफ्तर में जाएं, तो मालिक मैनेजर को डरा रहा है; मैनेजर अपने नीचे के हेड क्लर्क को डरा रहा है; हेड क्लर्क अपने क्लर्क को डरा रहा है; क्लर्क चपरासी को डरा रहा है, चपरासी लौटकर अपनी पत्नी को डरा रहा है, पत्नी अपने बच्चों को डरा रही है। और यह चल रहा है। बच्चे को कुछ नहीं सूझता, तो अपने गुड्डे की टांग तोडकर उसको नष्ट कर देता है और प्रसन्न होता है।

अगर हम समाज को देखें, तो उसमें पर्त दर पर्त भय का संबंध है। और अगर पति पत्नी को नहीं डराए, तो पत्नी पति को डरा रही है। ऐसा घर पाना बहुत मुश्किल है, जहां न पति पत्नी को डरा रहा हो, न पत्नी पति को डरा रही हो। और ऐसा घर मिल जाए, तो समझना कि वह घर है, बाकी तो सब हायररकी है सताने की, एक दूसरे को परेशान करने का इंतजाम है।

हमें अपने से कमजोर की तलाश है; क्योंकि उसके सामने हम शक्तिशाली मालूम पड़ते हैं। अपने से दीन की तलाश है, क्योंकि उसके सामने हम धनी मालूम पड़ते हैं। अपने से मूढ़ की तलाश है; क्योंकि उसके सामने हम ज्ञानी मालूम पड़ते हैं। पर अगर इस सारी खोज को हम ठीक से देखें, तो ये सारे संबंध रुग्ण हैं और भय पर खड़े हैं। यह जो भय है, यह मिटता नहीं किसी को डराने से, सिर्फ छिपता है। और छिपा हम रहे हैं जन्मों से। और रत्ती भर हम उसे मिटा नहीं पाए हैं। सच तो यह है कि जितना हमने छिपाया है, उतना ही उसको मिटाना मुश्किल हो गया है। क्योंकि छिपा-छिपा कर हमने ही उसे ऐसे अंधेरे में डाल दिया है, जहां खुद को भी दिखाई नहीं पड़ता कि कहां है?

समाधी के सप्तद्वार 

ओशो


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