..... इन दो शब्दों को एक
नहीं समझना चाहिए। ये दोनों बिलकुल ही भिन्न हैं। इन दोनों का एक अर्थ
नहीं होता। ये दोनों एक नहीं हैं। व्यक्तित्व अहंकार से संबंधित है, और
निजता स्वरूप से, बीइंग से। व्यक्तित्व मात्र एक बाह्य हिस्सा है। अहंकार
केंद्र है और व्यक्तित्व है उसकी बाहरी परिधि। वह इंण्डिविजुअलिटी या ने
उसकी निजता बिलकुल भी नहीं। यह शब्द पर्सनैलिटी बहुत अर्थपूर्ण है। यह
ग्रीक शब्द परसोना से निकला है और परसोना का अर्थ होता है मास्क–बनावटी
चेहरा। ग्रीक नाटक में पात्र बनावटी मुखौटों में अपने चेहरे छिपा लेते थे।
इस तरह उनका असली चेहरा तो छिपा रहता था और बनावटी चेहरा ही असली लगता था।
पर्सनैलिटी का अर्थ होता है नकली चेहरा–मास्क, जो कि आप नहीं हैं परन्तु
दिखलाई पड़ते हैं।
हमारे बहुत सारे चेहरे हैं और इसलिए वस्तुतः किसी का भी एक व्यक्तित्व
नहीं है। हमारे बहु-व्यक्तित्व हैं। प्रत्येक को सारे दिन में कितने ही
चेहरे बदलने पड़ते हैं। आप एक चेहरे के साथ नहीं रह सकते। वह बहुत कठिन
होगा, क्योंकि सारे समय आप अलग-अलग लोगों के साथ होते हैं और आपको चेहरों
बदलना पड़ता है। आप अपने नौकर के सामने वही चेहरा लिए हुए नहीं हो सकते जो
कि आप अपने मालिक के सामने लिए होते हैं। आप अपनी पत्नी के समक्ष वही चेहरा
नहीं रख सकते जो कि अपनी प्रेमिका के सामने रखते हैं। इसलिए लगातार हमें
अपने पास निरंतर बदलते हुए चेहरों का इंतजाम रखना पड़ता है। सारे दिन व सारी
जिंदगी हम निरंतर चेहरे बदलते रहते हैं। आप इसके प्रति सजग हो सकते हैं।
आप जान सकते हैं कि कब आप एक चेहरों बदलते हैं और क्यों बदलते हैं और आपके कितने चेहरे हैं।
इसलिए व्यक्तित्व का अर्थ होता हैः एक बदलते हुए चेहरे का प्रबंध। और जब
आप कहते हैं कि किसी आदमी का महान व्यक्तित्व है, उसका इतना ही अर्थ होता
है कि उसके पास और अधिक चेहरे बदलने का प्रबंध है। वह कोई थिर व्यक्ति
नहीं, उसके पास प्रबंध और अधिक लचीला है। वह सरलता से परिवर्तन कर सकता है। वह एक बड़ा अभिनेता है।
आपको व्यक्तित्व हर क्षण निर्मित करना पड़ता है, इसलिए कोई भी अपने
व्यक्तित्व के साथ आराम से नहीं है। वह एक लगातार प्रयत्न है, इसलिए यदि आप
थक गए हैं, तो आपकी चमक खो जाएगी। सबेरे आपके व्यक्तित्व की एक चमक होती
है, शाम को वह खो जाती है। सारे दिन भर वह लगातार चेहरे बदलता रहा। इसलिए
जब मैं व्यक्तित्व शब्द का प्रयोग करता हूं, तो मेरा तात्पर्य है, एक झूठा
दिखलावा, जो कि आपने चारों और निर्मित किया है।
निजता दूसरी ही बात है। निजता का अर्थ वह नहीं, जो कि आपके द्वारा बनाई व
खड़ी की जाती है,बल्कि उसका अर्थ होता है आपके सच्चे स्वरूप का असली
स्वभाव। यह शब्द इंडीवीजुअलटी भी बहुत अर्थपूर्ण है। इसका अर्थ होता है वह
जो कि विभाजित नहीं किया जा सके, अविभाज्य हो–इंडिविजिवल। हमारा एक आंतरिक
जन्मजात, स्वभाव है जो कि विभाजित नहीं किया जा सकता, जो कि अविभाज्य है।
इसलिए कार्ल गुस्ताव जुंग इंडीवीजुअलटी को एक बहुत गहरी घटना बतलाता है। वह
कहता है कि यह अविभाज्यता सत्य की ओर गया मार्ग है–परमात्मा की ओर
अविभाज्यता–अर्थात निजता में, अखंड होना।
भारतीय शब्द योग का वही अर्थ होता है–अविभाज्य, अखंड। योग का अर्थ होता
है उस सबको फिर से जोड़ना जो कि विभाजित हो गया है, उस सबको फिर से संयुक्त
करना जो कि बंट गया है फिर से अविभाज्य को लौटा लाना। इसलिए योग का
अंग्रेजी में अनुवाद करना हो, तो यह ज्यादा ठीक होगा यदि हम उसे अविभाज्यता
की ओर जाना कहें।
यह निजता रहती है और अधिक गहरी हो जाती है, और अधिक तेज हो जाती है। जिस
क्षण भी आप अपने अहंकार को खोते हैं, जिस क्षण भी आप अपने व्यक्तित्व को
छोड़ते हैं, आप एक व्यक्ति हो जाते हैं–इंडीवीजुअल। यह एक व्यक्ति हो जाना
एक अनूठी घटना है, यह फिर से दोहराई जाने वाली नहीं है। एक बुद्ध फिर से
नहीं दोहराए जा सकते। गौतम सिद्धार्थ फिर से दोहराए जा सकते हैं। एक जीसस
फिर से पुनरुक्त हो सकते हैं, परन्तु एक जीसस क्राइस्ट नहीं। जीसस का अर्थ
होता है व्यक्तित्व: जीसस क्राइस्ट का अर्थ होता है अविभाज्यता, अखंडता,
निजता। गौतम-सिद्धार्थ एक साधारण बात है वे पुनरुक्त हो सकते हैं। कोई गौतम
सिद्धार्थ हो सकता है। जिस क्षण गौतम सिद्धार्थ ज्ञान की उपलब्धि कर लेते
हैं और बुद्ध होते हैं, तो फिर वह घटना पुनरुक्त नहीं हो सकती। वह अपूर्व
है। वह पहले कभी नहीं हुई और वह आगे भी कभी नहीं होगी। यह बुद्धत्व, यह
आत्मानुभव का शिखर इतना अनूठा व अपूर्व है कि वह पुनरुक्त नहीं हो सकता।
अतएव जब मैंने घाटी की भांति होने की बात कही और जब यह कहा कि हर एक घाटी
अपनी ही तरह से अनुगूँज करेगी तो मेरा तात्पर्य है फिर हर एक घाटी की अपनी
इंडीवीजुअलटी है, निजता है। बुद्ध की अपनी जितना है, जीसस की अपनी है,
कृष्ण की अपनी है। इसलिए इसे समझना जरा अच्छा होगा।
फिर बुद्ध, जीसस या कृष्ण इतने भिन्न क्यों होते हैं? वे भिन्न होते
हैं, जितनी भी भिन्न होने की संभावना है, परन्तु फिर भी वे हैं एक ही,
किसी गहरे अर्थों में। जहां तक अविभाज्यता का संबंध है, वे एक हैं जहां तक
निजता का संबंध हैं, वे भिन्न हैं। वे अविभाज्य तक आ गए हैं। जो कि
अस्तित्व की आधारभूत कहता है, उन्होंने उसे जान लिया है। परन्तु इस आधारभूत
एकता व उसके पा लेने का तात्पर्य यह नहीं है कि वे यूनीक–अपूर्व नहीं हैं।
सच में अब वे बहुत ही अपूर्व हैं। इसलिए मैं कहता हूं, यह विरोधाभासी में
से एक है।
दो साधारण आदमी भिन्न हो सकते हैं, परन्तु उनकी भिन्नता पूर्ण और
समग्र कभी नहीं हो सकती। यहां तक कि उनकी भिन्नताओं में भी समानताएं
होंगी। वस्तुतः उनकी भिन्नता सदैव मात्रा की होगी। यद्यपि वे दोनों परंपरा
बिलकुल ही विपरीत हैं, उनका भेद मात्र मात्रा का होता है। एक मनुष्य जो
कम्युनिस्ट है और दूसरा मनुष्य जो कि एण्टीकम्युनिस्ट है–विरोधी हैं–वे भी
मात्रा में ही भिन्न हैं। एंटी-कम्युनिस्ट जरा कम कम्युनिस्ट है मात्रा
में, और जो कम्युनिस्ट है वह जरा कम पूंजीवादी है मात्रा में। वह भेद सदा
ही मात्रा का है और वह कभी भी बदल सकता है। वे अपना डेरा कभी भी बदल सकते
हैं आसानी से–उसमें कोई अड़चन नहीं है।
साधारणतः वे बदलते रहते हैं। भेद सिर्फ ठंडे-गर्म का है–केवल मात्राओं
का। परन्तु एक बुद्ध और कृष्ण, एक क्राइस्ट और मोहम्मद, और एक लाओत्सु वे
महावीर–उनका भेद कभी भी मात्राओं का नहीं है वे कभी भी नहीं मिल सकते। और
सब से बड़ा विरोधाभास है कि वे सब उस ऐक्य को पहुंच गए हैं और फिर भी कभी
नहीं मिल सकते! वह भेद मात्राओं का नहीं है, यह भेद उनकी यूनिकनेस का
है–अपूर्वता का है।
क्या अर्थ है मरो इस अपूर्वता से? हम ऐक्य को बड़ी सरलता से समझ सकते
हैं। एक बूंद पानी में गिरा जाता है। और उसके साथ एक हो जाती है, परन्तु
वैसा एक होना मृत सदृश है, एक मृत ऐक्य। बूंद बिलकुल खो गई, अब वह कहीं भी
नहीं है। बुद्ध इस तरह नहीं गिर रहे हैं वे एक भिन्न तरीके से गिर रहे
हैं। यदि आप एक लौ सूरज के समक्ष जलाएं, तो वह लौ सूरज से एक हो जाएंगी:
परन्तु उसकी अपनी निजता नहीं खो जाएगी, अभी भी वह होगी। यदि हम इस कमरे में पचास लौ जला
दें, तो वे सब एक प्रकाश उत्पन्न करेंगी, परन्तु प्रत्येक लौ अपने में
अपूर्व, अनूठी लौ होगी। इसलिए यह ब्रह्म में लीन होना एक सामान्य विलय नहीं
है यह बहुत गूढ़ है। इसकी गूढ़ता यह है कि वह जो कि विलय होता है, शेष रहता
है। बल्कि इसके विपरीत पहली बार वह है।
यह जो इंडीवीजुअलटी है–निजता है, यह विभिन्न प्रकार से अनुगूँज करती है
और वही उसकी सुंदरता है वह सुंदर है। अन्यथा वह सिर्फ कुरूप होगा। जरा
सोचें कि बुद्ध उसी तरह से प्रतिध्वनि करते हैं जैसे कि जीसस, तो दुनिया
गरीब हो जाएगी–बहुत ही दीन। बुद्ध अपनी तरह से प्रतिसंवेदना करते हैं, एवं
जीसस अपनी तरह से प्रतिसंवेदन करते हैं। संसार इस तरह से समृद्ध होता है और
यह एक सुंदरता की बात है। संसार और अधिक स्वतंत्र होता है और आप भी आप हो
सकते हैं।
परन्तु यह भेद समझने जैसा है कि जब मैं कहता हूं कि आप भी आपके जैसे हो
सकते हैं, तो उसका अर्थ आपका अहंकार नहीं है। जब मैं कहता हूं कि आप हो
सकते हैं, तो उसका अर्थ आपका अहंकार नहीं है। जब मैं कहता हूं कि आप हो
सकते हैं, तो मेरा आशय है कि आपका स्वभाव, आपका ताओ, आपका अस्तित्व। परन्तु
उसकी अपनी निजता है। वह निजता पर्सनैलिटी नहीं, व्यक्तित्व नहीं। अतः मैं
कहता हूं कि वे एक ही अस्तित्व से संबद्ध हैं, पर फिर भी अपनी निजता में।
वे उसी गहनता से प्रतिसंवेदन करते हैं, परन्तु एक निजता की भांति। वहां कोई
अहंकार का भाव नहीं है, परन्तु अपूर्वता तो रहती है।
यह संसार कोई रंगीन इकाई नहीं है, यह कोई ऊब से भरा नहीं है, इसके
बहुरंग हैं, यह बहु ध्वनि वाला है। आप एक स्वर से भी संगीत पैदा कर सकते
हैं, परन्तु वह मात्र ऊबा देने वाला होगा, थका देगा: वह जीवंत नहीं होगा:
वह सुंदर नहीं होगा। कई स्वरों से एक अधिक सूक्ष्म व मिश्रित लय निकलती
है–बहु-स्वर वाली–मल्टीटोनल। एक आंतरिक लय चलती है, परन्तु वह उबाने वाली
नहीं होती। हर एक स्वर की अपनी निजता है। वह समग्रता की लयबद्धता को अपना
योगदान करता है। वह योगदान करता है, क्योंकि उसकी अपनी निजता है। बुद्ध
योगदान करते हैं, क्योंकि वे एक बुद्ध हैं। जीसस योगदान करते हैं, क्योंकि
वे एक जीसस हैं। वे एक नया स्वर देते हैं, एक नयी लहर। एक नई ही लय पैदा
होती है उनकी वजह से। परन्तु वह तभी संभव है जबकि उनकी अपनी एक निजता हो।
और ऐसा गहरी बातों के लिए ही नहीं है। यहां तक बहुत छोटी वे मामूली बातों में भी बुद्ध और जीसस भिन्न हैं। बुद्ध अपनी
ही तरह से चलते हैं। कोई उनकी तरह से नहीं चल सकता। जीसस अपनी ही तरह से
देखते हैं। कोई भी उस तरह से नहीं देख सकता। उनकी आंखें भी अनूठी हैं। उनके
हाव-भाव, उनके शब्द जो वे उपयोग करते हैं, अपूर्व हैं। कोई भी एक-दूसरे के
विशिष्ट गुण नहीं ले सकता।
यह दुनिया अपूर्व स्वरों की एक सिम्फनी, राग-रागिनी है और उसके कारण ही
संगीत ज्यादा समृद्धिशाली है। हर एक घाटी अपने ही ढंग से अनुगूँज करती है।
वे सभी शुभचिंतक लोग जो कि एक मृत एकता को थोपना चाहते हैं, जो कि सब जगह
से निजता को पोंछ डालना चाहते हैं, जो कहते हैं कि कुरान का तात्पर्य वही
है जो गीता का है, जो कहते हैं कि बुद्ध भी वही सिखाते हैं जो कि महावीर,
उनको पता नहीं है कि वे कितनी मूर्खता की बातें करते हैं। यदि वे अपनी बात
में जीत जाएं, तो यह दुनिया बहुत दीन-हीन व दरिद्र हो जाएगी। कैसे कुरान वह
कह सकती है जो कि गीता कहती है? और कैसे कुरान वह कह सकती है जो कि गीता
कहती है? और कैसे वह गीता कह सकती है, जो कुरान कहती है। कुरान की अपनी
निजता है, जो कि कोई गीता नहीं दोहरा सकती, और कोई कुरान गीता को पुनरुक्त
नहीं कर सकती।
कृष्ण की अपनी गरिमा है और मोहम्मद की अपनी। वे कभी नहीं मिलते और फिर
भी मैं कहता हूं कि वे उसी स्थान पर खड़े हैं। वे कभी नहीं मिलते हैं यह
सुंदरता है। और वे कभी भी नहीं मिलेंगे वे समानांतर रेखाओं की भांति हैं जो
कि अनंत को जाती हैं। वे कभी भी नहीं मिलेंगे। यही मेरा मतलब है अपूर्वता
से। वे शिखर की तरह हैं। जितना ही शिखर ऊंचा उठता है, उतनी ही कम संभावना
उसके दूसरे शिखर से मिलने की हो जाती है। आप मिल सकते हैं यदि आप जमीन पर
हैं तो। प्रत्येक चीज मिल रही हैं। परन्तु जितने उपर आप उठते जाते हैं,
शिखर होते जाते हैं, उतनी ही मिलने की संभावना कम होती जाती है। इसलिए वे
हिमालय के शिखरों की भांति हैं, जो कि कभी नहीं मिलते। यदि आप उन पर एक
झूठी एकता को थोपे, तो आप उन शिखरों को सिर्फ नष्ट कर देंगे। वे भिन्न
हैं, परन्तु उनकी भिन्नता रंगों की नहीं, उनकी भिन्नता किसी द्वंद्व के
लिए नहीं है।
द्वंद्व इसीलिए है, क्योंकि हम भिन्नताओं को स्वीकार करने के लिए तैयार
नहीं हैं। फिर हम उनमें समरूपताएं ढूंढते हैं। या तो समरूपताएं होनी चाहिए
अथवा हम द्वंद्व में होंगे। या तो हम वही बात बोले अन्यथा हम शत्रु होंगे।
हमारे पास दो ही विकल्प हैं और दोनों ही गलत हैं। वे एक ही भाव से संबद्ध
हैं। क्यों नहीं वे भिन्न हो सकते–बिलकुल ही भिन्न जो कि कहीं भी न मिलते
हो? क्या आवश्यकता है किसी भी द्वंद्व की? वास्तव में, भिन्न स्वर एक
बहुत सुंदर लय उत्पन्न करते हैं। तब एक अधिक गहरा मिलन होता है। स्वरों
में कोई मेल नहीं है, परन्तु जो कुछ स्वर मिलकर उत्पन्न करते हैं, उसमें
मेल हैं। परन्तु उस लयबद्धता को, उस एकलयता
के अनुभव करना प्रारंभ करना पड़े।
यदि कोई भिन्न को ही जानता है तो मोहम्मद, जीसस, बुद्ध, मात्र स्वर
हैं। कोई एक लयवदिता अनुभव नहीं होती, परन्तु विश्व एक छंद है। यदि आप
अंतरालों को अनुभव करना शुरू करें, उनमें जो आंतरिक एकता है उसे अनुभव करें
और ऊंचे शिखरों को जो कि कहीं भी नहीं मिलते, और यदि आप इन सब को एक साथ,
इकट्टा, उनकी समग्रता में, एक संयुक्त एकता में देख सकें, तो आप दोनों को
स्वीकार कर सकते हैं—उनकी निजता को भी और उनमें जो लयबद्धता है उसको भी। तब
फिर कोई समस्या नहीं है।
आत्मपूजा उपनिषद
ओशो
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