एकनाथ के संबंध में भी मैंने कहानी सुनी है। गांव में एक आदमी था जो बड़ा
नास्तिक। आस्तिकों को झकझोर डाला था उसने। आखिर आस्तिक परेशान हो गए,
उन्होंने कहा, अगर तुम्हें कोई आदमी समझा सकता है तो बस एकनाथ। और कोई
तुम्हें नहीं समझा सकता। उसने कहा, कहां हैं एकनाथ? तो उन्होंने कहा, वे
दूसरे गांव में नदी के किनारे एक मंदिर में रहते हैं। तुम चले जाओ वहीं। वह
आदमी सुबह ही सुबह…ब्रह्ममुहूर्त में पहुंच गया, सोच कर कि साधु से मिल
लेना ब्रह्ममुहूर्त में ही ठीक होगा! फिर निकल पड़ें भिक्षा मांगने या और
कहीं चले जाएं!
तो पांच बजे ही पहुंच गया। पांच बजे से बैठा है मंदिर के दरवाजे पर।
दरवाजा खुला है और एकनाथ सोए हैं। जरा उजाला हुआ तो वह बहुत हैरान हुआ; जो
देखा उस पर आंखों को भरोसा न आया; आंखें पोंछीं, धोयीं पानी से, फिर फिर
देखा, जो देखा उस पर भरोसा नहीं आता था, नास्तिक हो कर भी नहीं आता था।
सोचने लगा कि यह तो महा नास्तिक मालूम होता है। वह शंकरजी की पिंडी पर पैर
टेके सो रहे थे। कम से कम नानक तो पैर किए थे सिर्फ, कोई काबा पर पैर टेक
नहीं दिए थे, सिर्फ उस दिशा में पैर किए थे, एकनाथ और एक कदम आगे बढ़
गए!…नानक की कहानी सुनी होगी, सोचा वही क्या करना, जरा और आगे! शंकरजी की
पिंडी पर पैर टेके हैं और मस्त पड़े है; पैरों को तकिया दिया हुआ है शंकरजी
की पिंडी का!
वह नास्तिक की छाती दहल गई। उसने कहा, मैं नास्तिक हूं, मैं ईश्वर को
मानता भी नहीं, लेकिन अगर मुझसे कोई कहे कि शंकरजी की पिंडी को पैर लगाओ,
तो मैं भी लगाऊंगा नहीं; हो न हो, कौन जाने; फिर पीछे झंझट हो मरने के बाद,
कहे कि क्यों, अब बोलो! हालांकि मैं मानता हूं कि ईश्वर नहीं है। मगर यह
मान्यता मान्यता ही है।
अनुमान अनुमान है, तर्क तर्क है, पता नहीं हो ही!
कौन देख आया! मरकर लौटकर किसी ने कहा तो नहीं कि नहीं है! न किसीने कहा है,
न किसी ने कहा, नहीं है, दोनों संभावनाएं खुली हैं, विकल्प खुले हैं। कौन
जाने? पचास पचास प्रतिशत का मामला! फिफ्टी फिफ्टी! हो भी सकता है, नहीं भी
हो सकता है। मगर यह आदमी तो हद है! यह सौ प्रतिशत माने बैठा है कि नहीं है।
यह तो तकिया लगाए हुए है। इससे क्या हल होगा?
मन में तो हुआ कि लौट जाऊं, इससे क्या हल पूछना है, यह और मुझे
बिगाड़ेगा। मगर अब इतनी दूर आ गया था तो सोचा कि जरा बात तो कर लूं, आदमी
वैसे जानदार मालूम पड़ता है! और जिस मस्ती से सो रहा है! छह बज गए, सात बज
गए, आठ बज गए…कहा, हद हो गई, यह कैसा साधु! साधु को तो ब्रह्ममुहूर्त में
उठना चाहिए। यह तो साधुओं और तामसियों का ढंग है कि पड़े हैं, सो रहे हैं
आठ आठ, नौ नौ बजे तक। यह आदमी बिलकुल नास्तिक है।
नौ बजे एकनाथ उठे। उस आदमी ने कहा, महाराज, पूछने तो बहुत कुछ आया था,
लेकिन अब कुछ और ही पूछने के लिए सवाल उठ गए हैं मन में। पहले तो यह कि
साधु को ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए। तो एकनाथ ने कहा, तुम क्या समझ रहे
हो मैं ब्रह्ममुहूर्त में नहीं उठा? अरे, साधु जब उठे तब ब्रह्ममुहूर्त। और
कौन तय करेगा ब्रह्ममुहूर्त? कोई ठेका लिया है किसी ने? कोई सील मुहर लगी
है? ब्रह्ममुहूर्त का क्या अर्थ है? ब्रह्म को जानने वाला जब उठे। ब्रह्म
को जानने वाला ब्राह्मण, ब्रह्म को जानने वाला जब उठे तब ब्रह्ममुहूर्त।
अज्ञानियों के जगने से ब्रह्ममुहूर्त हो सकता है! सारी दुनिया के अज्ञानी
उठ आएं पांच बजे तो भी कुछ नहीं होता। एकनाथ ने कहा, जब मैं उठूं, तब समझना
ब्रह्ममुहूर्त।
वह आदमी बोला कि बात तो जंचती है? मगर दूसरी बात! चलो यह भी ठीक कि जब साधु उठे तब ब्रह्ममुहूर्त; शंकरजी की पिंडी पर पैर
क्यों टेके पड़े हो? शर्म नहीं आती, संकोच नहीं लगता? आस्तिक हो या
नास्तिक? एकनाथ ने कहा कि यह सवाल जरा झंझट का है! मैं खुद ही पूछ रहा हूं
भगवान से आज कई साल हो गए कि बता, कहां पैर रखूं? तू बता, कहां पैर रखूं?
जहां पैर रखूं वहीं तू है। आखिर कहीं तो पैर रखूं! कोई अपने सिर पर तो पैर
रख न लूं। तेरे ही सिर पर पड़ेंगे। तो उसने ही मुझसे कहा कि तू झंझट न कर,
पिंडी पर पैर रख ले यहां मैं कम से कम हूं। पंडित पुरोहितों के कारण यहां
मैं रह ही नहीं पाता। तब से मैं पिंडी पर ही पैर रखने लगा, मैं भी क्या
करूं? जब वही कहे तो आज्ञा माननी पड़ेगी।
एकनाथ जिस अपूर्व प्रेम से भरकर यह बात कह रहे हैं, तो शंकर की पिंडी पर
भी पैर रखने का अधिकार है। लेकिन इसका कारण देख रहे हो। महा आस्तिकता इसका
कारण है। झुके आस्तिक, तो भक्ति, प्रतिमा को जला डाले, तो आराधना। सवाल
भीतर का है। सवाल बाहर का नहीं है। अपने हृदय को ही टटोलते रहो, वही है
दिशासूचक यंत्र।
सपना यह संसार
ओशो
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