मुल्ला नसरुद्दीन नदी के किनारे गया था तैरना सीखने। जो उस्ताद उसे
तैरना सिखाने को थे, वह तो एकदम चौंके, क्योंकि मुल्ला जैसे ही तट पर गया
नदी के, पत्थर पर पैर फिसल गया काई जमी होगी भड़ाम से गिरा, एक पैर तो
पानी में भी पड़ गया, कपड़े भी भींग गए, एकदम उठा और घर की तरफ भागा। उस्ताद
ने कहा कि बड़े मियां, कहां जाते हो? मुल्ला ने कहा कि अब जब तक तैरना न सीख
लूं, नदी के पास पैर न रखूंगा। यह तो खतरनाक धंधा है! यह तो उसकी दुआ कहो,
यह तो उसकी कृपा कहो। अगर जरा और फिसलकर अंदर चला गया होता, तो उस्ताद,
तुम तो खड़े थे बाहर, तुम तो देखते ही रहे, हम काम से गए थे! अब तो तैरना
सीख लूंगा, तभी पानी के पास फटकूंगा।
अगर अब तैरना कहां सीखोगे? कोई गद्देत्तकिए बिछा कर तैरना सीखा जाता है।
और गद्देत्तकिए बिछाकर तुम कितना ही तैरने का अभ्यास कर लो, पानी में काम न
आएगा, खयाल रखना। हाथ पैर पटकना सीख लोगे गद्देत्तकिए पर, लेकिन पानी में
सब बेकाम हो जाएगा।
नहीं, तैरना सीखने के लिए भी पानी के पास जाना ही पड़ता है। परमात्मा का
अस्तित्व कैसे सिद्ध करोगे? तर्क से? विचार से? तो तो तुम उल्टे काम में लग
गए। परमात्मा को जाना है लोगों ने निर्विचार से। परमात्मा को जाना है
लोगों ने हृदय से। और तुम सिद्ध करने लगे बुद्धि से। नहीं सिद्ध होगा, तो
आज नहीं कल तुम कहोगे: है ही नहीं। और एक बार तुम्हारे मन में यह बात गहरी
बैठ गई कि है ही नहीं, तो बस अटक गए। तो तुम्हारा विकास अवरुद्ध हुआ।
गलत प्रश्न न पूछो! पूछो कि क्या मैं हूं? पूछो कि कैसे मैं जानूं कि
मैं कौन हूं? परमात्मा को छोड़ो! परमात्मा से लेना देना क्या है? पहले पानी
की बूंद तो पहचान लो, फिर सागर को पहचान लेना। अभी बूंद से भी पहचान नहीं
और सागर के संबंध में प्रश्न उठाए। वे प्रश्न व्यर्थ हैं। उनके उत्तर सिर्फ
नासमझ देने वाले मिलेंगे। हां, किताबों में इस तरह के प्रमाण दिए हुए हैं,
बड़े बड़े प्रमाण दिए हुए हैं, बड़े पंडित, शास्त्री प्रमाण देते हैं ईश्वर
के होने का। और उनके प्रमाण सब बचकाने, दो कौड़ी के! क्योंकि प्रमाण कोई
दिया ही नहीं जा सकता।
क्या प्रमाण हैं उनके?
इस तरह के प्रमाण कि जैसे कुम्हार घड़ा बनाता है। बिना कुम्हार के घड़ा
कैसे बनेगा? इसी तरह परमात्मा ने जगत को बनाया, वह कुम्भकार है कुम्हार
है।…कर दिया शूद्र उसको भी!…अब जरा कोई इन बुद्धिमानों से पूछे कि अगर घड़े
को बनाने के लिए कुम्हार की जरूरत है, तो कुम्हार को बनाने के लिए भी तो
किसी की जरूरत है! वह कहते हैं, हां, परमात्मा ने कुम्हार को बनाया। फिर
तुम्हारी दलील का क्या होगा? परमात्मा ने संसार बनाया, फिर परमात्मा को
किसने बनाया?
यही तो बुद्ध ने पूछा, महावीर ने पूछा और पंडितों की बोलती बंद हो गई।
पंडित तो नाराज हो गए। इसको वह अतिप्रश्न कहते हैं। तुम पूछे कि संसार
किसने बनाया, तो सम्यक प्रश्न। और कोई पूछे कि भई, जब बिना बनाए कोई चीज
बनती ही नहीं, तो परमात्मा को किसने बनाया? तो अतिप्रश्न। तो जबान काट ली
जाएगी। यह न्याय हुआ? तुम्हारा ही तर्क जरा आगे खींचा गया।
और फिर इसका अंत कहां होगा? अगर तुम कहो कि हां, परमात्मा को फिर और
किसी बड़े परमात्मा ने बनाया, और उसको फिर किसी और बड़े परमात्मा ने बनाया,
तो इसका अंत कहां होगा? यह तो अंतहीन शृंखला हो जाएगी, व्यर्थ शृंखला हो
जाएगी। नहीं, ऐसे प्रमाणों से कुछ सिद्ध नहीं होता। ऐसे प्रमाणों से सिर्फ
प्रमाण देने वालों की नासमझी, बुद्धिहीनता, असंवेदनशीलता सिद्ध होती है और
कुछ भी सिद्ध नहीं होता। परमात्मा सिद्ध नहीं होता, सिर्फ प्रमाण देने
वालों का बुद्धूपन सिद्ध होता है।
बुद्ध परमात्मा का प्रमाण नहीं देते। बुद्ध परमात्मा का प्रमाण बनते हैं।
भेद को समझ लेना। बुद्ध प्रमाण बनते हैं परमात्मा का, बुद्ध प्रमाण होते
हैं परमात्मा का। मैं तुमसे कहूंगा, तुम भी प्रमाण बनो। तुम भी प्रमाण बन
सकते हो, क्योंकि तुम्हारे भीतर भी बुद्धत्व छिपा पड़ा है। झरने को तोड़ने की
जरूरत है। जरा चट्टान हटाओ विचारों की और फूटने दो भाव का झरना! नाचो, गाओ
जीवन के उत्सव को अनुभव करो! और तुम्हें पता चल जाएगा कि परमात्मा है। जिस
दिन तुम जानोगे कि जीवन एक रास है; एक महोत्सव है, राग से, रंग से भरा; एक
इंद्रधनुष है, सतरंगा; एक संगीत है, अदभुत स्वरों से पूर्ण, उस दिन
परमात्मा का प्रमाण मिल गया। हालांकि तुम वह प्रमाण किसी और को भी न दे
सकोगे। गूंगे का गुड़ हो जाता है वह अनुभव।
मगर धन्य हैं वे, जिन्हें कुछ ऐसा अनुभव मिल जाता है जिसे वह कह नहीं
पाते। इस जगत में सर्वाधिक धन्य वे ही हैं, जिन्हें गूंगे का गुड़ मिल जाता
है।
सपना यह संसार
ओशो
No comments:
Post a Comment