नानक कहते हैं, उसके सामने न तो कोई ऊंच, न कोई नीच; उसके सामने न तो
कोई योग्य, न कोई अयोग्य; वह बांटे जा रहा है। लेकिन अगर तुम लेने को तैयार
नहीं हो, तो तुम चूके चले जाओगे। तुम्हारी तैयारी के कारण वह तुम्हें नहीं
देता है। वह तो दिए ही चला जाता है। तुम्हारी तैयारी के कारण तुम लेने में
समर्थ होते हो।
जैसे एक जौहरी आए, और एक हीरा पड़ा हो और उठा ले। और तुम भी गुजरे थे
उसके पास से। हीरा तुम्हारे लिए भी उतना ही उपलब्ध था, हीरे ने जरा भी
फासला नहीं किया है कि जौहरी के हाथ जाऊंगा, और तुम्हारे हाथ न जाऊंगा।
तुमने उठाया होता तो हीरा मना न करता। हीरा तुम्हारे लिए भी उतना ही
प्राप्त था। लेकिन तुम्हारे पास आंख न थी कि तुम पहचान सको कि हीरा है। और
तुम्हारे पास वह परख न थी कि तुम हीरे को उठा लो। जौहरी के पास परख थी।
जौहरी के पास आंख थी, तैयारी थी।
परमात्मा तो तुम्हारे पास सामने ही पड़ा है। जहां भी तुम नजर उठाते हो,
वही है। लेकिन तुम्हारे पास नजर नहीं है। तुम्हारी आंखें उसे देख नहीं
पातीं। तुम्हारे हाथ उसे छू नहीं पाते। तुम्हारे कान उसे सुनते नहीं हैं।
तुम बधिर हो, अंधे हो, लंगड़े हो। वह बुलाता है तो भी तुम दौड़ नहीं पाते।
तुम उसे सुन ही नहीं पा रहे हो। और वह चारों तरफ मौजूद है। उसकी उपलब्धि
में किसी को कोई अंतर नहीं है। उसके सामने सब बराबर हैं। होंगे ही। क्योंकि
सभी उसी से आते हैं। सभी उसी में लीन हो जाते हैं। भेद कैसे होगा?
तुम क्या अपने दाएं हाथ और बाएं हाथ में भेद करते हो? कि दाएं हाथ में
चोट लगे तो ज्यादा दर्द होता है, बाएं में लगे तो कम होता है? दोनों
तुम्हारे हैं। बाएं और दाएं का फर्क तो ऊपरी है, भीतर तो तुम एक ही हो।
तो क्या गरीब और अमीर में परमात्मा अंतर करता है? क्या ज्ञानी और
अज्ञानी में अंतर करता है? क्या अच्छे और बुरे में अंतर करता है? पापी और
पुण्यात्मा में अंतर करता है? तब तो उसका दान भी सशर्त हो गया, कंडीशनल हो
गया। तब तो वह भी कहता है कि तुम ऐसे होओगे तो मैं दूंगा। तब तो वह तुम्हें
नहीं देता, अपनी शर्त को ही देता है। यह एक सौदा हो गया।
नहीं, परमात्मा तो दे ही रहा है बेशर्त; अनकंडीशनल उसकी वर्षा है। अगर
तुम नहीं ले पा रहे हो तो कहीं तुम ही चूक रहे हो। वह तो द्वार पर दस्तक
देता है, लेकिन तुम सोचते हो, शायद हवा का झोंका आया होगा। उसके पद-चिह्न
तुम्हें दिखाई पड़ते हैं, लेकिन तुम व्याख्या करते हो। और व्याख्या में ही
तुम चूक जाते हो। तुम व्याख्या ऐसी कर लेते हो, जो कि तुम्हारे अंधेपन को
बढ़ाती है।
बहुत तरह से तुम्हारी तरफ परमात्मा आता है। उसके आने में जरा भी कमी
नहीं है। जितना वह बुद्ध के पास आया, जितना नानक के पास आया, उतना ही
तुम्हारे पास आता है। उसके लिए कोई भी फर्क नहीं है, तुम में और नानक में।
लेकिन नानक उसे पहचान लेते हैं, जौहरी हैं। बुद्ध उसका दामन पकड़ लेते हैं।
तुम चूकते चले जाते हो।
तुम्हारे प्रयास से तुम योग्य बनोगे, परख के लायक बनोगे और तुम्हारे
प्रयास से तुम्हारा अंधापन टूटेगा। तुम्हारे प्रयास से तुम्हारा अहंकार
गिरेगा। हारोगे, थकोगे, गिर जाओगे। और जैसे ही तुम न रहोगे, वैसे ही तुम
पाओगे कि वह सदा सामने था, नाक के बिलकुल सीध में था, जहां नाक घूमती थी
वहीं था। और वह सदा उपलब्ध था। अगर चूक रहे थे, तो तुम चूक रहे थे अपने
कारण।
इसे ठीक से हृदय में समा लेना। अगर चूक रहे हो तो तुम चूक रहे हो अपने
कारण। अगर पाओगे तो अपने कारण नहीं पाओगे, उसके प्रसाद से पाओगे। यह बात
बेबूझ लगती है, जिन्होंने नहीं जाना। क्योंकि तब हमें लगता है कि जब हम
अपने कारण चूक रहे हैं, तो हम पाएंगे भी अपने ही कारण। यह ज्यादा साफ तर्क
मालूम पड़ता है कि जिस चीज को मैं अपने कारण चूक रहा हूं, अपने ही कारण
पाऊंगा। बस, वहीं तर्क की भूल हो जाती है। चूक तुम अपने कारण रहे हो, पाओगे
तुम उसकी कृपा से।
एक ओंकार सतनाम
ओशो
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