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Tuesday, November 3, 2015

अभिजात

अभिजात कीमती शब्द है। अरिस्टोक्रेटिक हो। बड़ा अजीब लगेगा, समाजवाद की दुनियां है, वहां अरिस्टोक्रेसी कैसी? अभिजात्य। लेकिन महावीर के अर्थ में कुलीनता और अभिजात्य का अर्थ है, कता पर ध्यान न देता हो, शालीन हो। खताओं को नजर से बाहर कर देता हो, श्रेष्ठता पर ही ध्यान रखता हो। व्यर्थ को चुनता न हो और दूसरे में श्रेष्ठ होना चाहिए। इसकी तलाश करता हो।

अकुलीन का अर्थ होता है, जो पहले से मान कर बैठा है लोग बुरे है। कुलीन का अर्थ है, जो पहले से मान कर बैठा है कि लोग भले है। मूलतः कभी कभी भले हो जाते है, यह बात और है।

कुलीन आदमी, अभिजात्य चित्त वाला व्यक्ति, दो दिनों के बीच में एक रात को देखता है। अकुलीन व्यक्ति दो रातों के बीच में एक दिन को देखता है। कुलीन व्यक्ति फूलों को गिनता है, कांटों को नहीं। और मानता है कि जहां फूल होते है वहां थोड़े कांटे भी होते है। और उनसे कुछ हर्जा नहीं होता, कांटे भी फूल की रक्षा ही करते है।

अकुलीन चित्त कांटों की गिनती करता है, और जब सब कीटों को गिन लेता है तो वह कहता है, एक दो फूल से होता भी क्या है! जहां इतने कांटे है, वहां एक दो फूल धोखा है।

कुलीन, अकुलीनता चुनाव का नाम है, आप क्या चुनते है? श्रेष्ठ का दर्शन आभिजात्य है, अश्रेष्ठ का दर्शन शूद्रता है।

महावीर कहते है शिष्य ‘अभिजात हो, आंख की शर्म रखने वाला स्थिर वृत्ति हो।’

मैने सुना है कि अकबर के तीन पदाधिकारियों ने राज्य को धोखा दिया। राज्य के खजाने को धोखा दिया। पहले पदाधिकारी को बुलाकर अकबर ने कहां, तुमसे ऐसी आशा न थी! कहते है, उस आदमी ने उसी दिन सांझ जाकर आत्महत्या कर ली।

दूसरे आदमी को साल भर की सजा दी। तीसरे आदमी को पंद्रह वर्ष के लिए जेलखाने में डाला और सड़क पर नग्‍न करवाकर कोड़े लगवाये। मंत्री बड़े चिंतित हुए। जुर्म एक था, सजाएं बहुत भिन्न हो गयीं।

अकबर से पूछा मंत्रियों ने, ‘यह कुछ समझ में नहीं आता, यह न्याययुक्त नहीं मालूम होता। तीनों का जुर्म एक था। एक को आपने सिर्फ इतना कहां, तुमसे इतनी आशा न थी!’

अकबर ने कहां, ‘वह आंख की शर्म वाला आदमी था। इतना बहुत था। इतना भी जरूरत से ज्यादा था। सांझ उसने आत्महत्या कर ली।

‘दूसरे को आपने साल भर की सजा दी!’

अकबर ने कहां, ‘वह थोड़ी मोटी चमड़ी का है।’

‘और तीसरे को नग्‍न करके कोड़े लगवाये, और जेल में ड़लवाया!’

अकबर ने कहां, ‘कि जाकर तीसरे से मिलो, तुम्हें समझ में आ जायेगा।’

एक मंत्री भेजा गया जेलखाने में, जिसके कोड़े के निशान भी अभी नहीं मिटे थे, वह वहां बड़े मजे में था, और उसने कहां कि पंद्रह ही वर्ष की तो बात है, और जितना मैंने खजाने से मार दिया, उतना पंद्रह वर्ष नौकरी करके भी तो नहीं मिल सकता था। और पंद्रह ही वर्ष की तो बात है फिर बाहर आ जाऊंगा। और इतना मार दिया है कि पीढ़ी दर पीढ़ी बच्चे मजा करें। कोई ऐसी चिंता की बात नहीं। फिर यहां भी ऐसी क्या तकलीफ!

मंत्रियों ने कहां, ‘बड़े पागल हो, सड़क पर कोड़े खाये।’

उस आदमी ने कहां, ‘बदनामी भी हो तो नाम तो होता ही है। कौन जानता था हमको पहले। आज सारी दिल्ली में अपनी चर्चा है।’

महावीर वाणी 

ओशो 

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