तुमने कभी गौर किया, बाएं हाथ का उपयोग करने वाले लोगों को दबा दिया
जाता है! अगर कोई बच्चा बाएं हाथ से लिखता है, तो तुरंत पूरा समाज उसके
खिलाफ हो जाता है माता पिता, सगे संबंधी, परिचित, अध्यापक सभी लोग एकदम
उस बच्चे के खिलाफ हो जाते हैं। पूरा समाज उसे दाएं हाथ से लिखने को विवश
करता है। दायां हाथ सही है और बायां हाथ गलत है। कारण क्या है? ऐसा क्यों
है कि दायां हाथ सही है और बायां हाथ गलत है? बाएं हाथ में ऐसी कौन सी
बुराई है, ऐसी कौन सी खराबी है? और दुनिया में दस प्रतिशत लोग बाएं हाथ से
काम करते हैं। दस प्रतिशत कोई छोटा वर्ग नहीं है। दस में से एक व्यक्ति ऐसा
होता ही है जो बाएं हाथ से कार्य करता है। शायद चेतनरूप से उसे इसका पता
भी नहीं होता हो, वह भूल ही गया हो इस बारे में, क्योंकि शुरू से ही समाज, घर परिवार, माता पिता बाएं हाथ से कार्य करने वालों को दाएं हाथ से कार्य करने के लिए मजबूर कर देते हैं। ऐसा क्यों है?
दायां हाथ सूर्यकेंद्र से, भीतर के पुरुष से जुड़ा हुआ है। बाया हाथ
चंद्रकेंद्र से भीतर की स्त्री से जुड़ा हुआ है। और पूरा का पूरा समाज पुरुषकेंद्रित है।
हमारा बायां नासापुट चंद्रकेंद्र से जुड़ा हुआ है। और दायां नासापुट
सूर्यकेंद्र से जुड़ा हुआ है। तुम इसे आजमा कर भी देख सकते हो। जब कभी
बहुत गर्मी लगे तो अपना दायां नासापुट बंद कर लेना और बाएं से श्वास
लेना और दस मिनट के भीतर ही तुमको ऐसा लगेगा कि कोई अनजानी शीतलता तुम्हें
महसूस होगी। तुम इसे प्रयोग करके देख सकते हो, यह बहुत ही आसान है। या फिर
तुम ठंड से कांप रहे हो और बहुत सर्दी लग रही है, तो अपना बायां नासापुट
बंद कर लेना, और दाएं से श्वास लेना; दस मिनट के भीतर तुम्हें पसीना आने
लगेगा।
योग ने यह बात समझ ली और योगी कहते हैं और योगी ऐसा करते भी हैं प्रात:
उठकर वे कभी दाएं नासापुट से श्वास नहीं लेते। क्योंकि अगर दाएं नासापुट
से श्वास ली जाए, तो अधिक संभावना इसी बात की है कि दिन में व्यक्ति
क्रोधित रहेगा, लड़ेगा झगड़ेगा, आक्रामक रहेगा शांत और थिर नहीं रह सकेगा।
इसलिए योग के अनुशासन में यह भी एक अनुशासन है कि सुबह उठते ही सबसे पहले
व्यक्ति को यह देखना होता है कि उसका कौन सा नासापुट क्रियाशील है। अगर
बायां क्रियाशील है तो ठीक है, .वही ठीक क्षण होता है बिस्तर से बाहर आने
का। अगर बायां नासापुट क्रियाशील नहीं है तो अपना दायां नासापुट बंद करना
और बाएं से श्वास लेना। धीरे धीरे जब बायां नासापुट क्रियाशील हो जाए,
तभी बिस्तर से बाहर पाव रखना।
हमेशा सुबह उसी समय बिस्तर से बाहर आना जब बायां नासापुट क्रियाशील हो,
और तब तुम पाओगे कि तुम्हारी पूरी की पूरी दिनचर्या में अंतर आ गया है। तुम
कम क्रोधित होगे, चिड़चिडाहट कम होगी और अधिकाधिक शांत, थिर और ठंडे
अनुभव करोगे। ध्यान में अधिक गहरे जा सकोगे। अगर लड़ना झगड़ना चाहते हो, तो
उसके लिए दायां नासापुट अच्छा है। अगर प्रेमपूर्ण होना चाहते हो, तो उसके
लिए बायां नासापुट एकदम ठीक है।
और हमारी श्वास हर क्षण, हर पल बदलती रहती है। तुमने शायद कभी ध्यान
नहीं दिया होगा, लेकिन इस पर ध्यान देना। आधुनिक चिकित्साशास्त्र को इसे
समझना होगा, क्योंकि रोगी के इलाज में इसका प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध
हो सकता है। ऐसे बहुत से रोग हैं, ऐसी बहुत सी बीमारियां हैं, जिनके ठीक
होने में चंद्र की मदद मिल सकती है। और ऐसे रोग भी हैं जिनके ठीक होने में
सूर्य से मदद मिल सकती है। अगर इस बारे में ठीक ठीक मालूम हो, तो श्वास का
उपयोग व्यक्ति. के इलाज के लिए किया जा सकता है। लेकिन आधुनिक
चिकित्साशास्त्र की अभी तक इस तथ्य से पहचान नहीं हुई है।
श्वास निस्तर परिवर्तित होती रहती है. चालीस मिनट तक एक नासापुट
क्रियाशील रहता है, फिर चालीस मिनट दूसरा नासापुट क्रियाशील रहता है। भीतर
सूर्य और चंद्र निरंतर बदलते रहते हैं। हमारा पेंडुलम सूर्य से चंद्र की
ओर, चंद्र से सूर्य की ओर आताजाता रहता है। इसीलिए हमारी भावदशा अकसर ही
बदलती रहती है। कई बार अकस्मात चिडचिडाहट होती है बिना किसी कारण के, अकारण
ही। बात कुछ भी नहीं है, सभी कुछ वैसा का वैसा है, उसी कमरे में बैठे हो कुछ भी नहीं हुआ है अचानक चिड़चिड़ाहट आने लगती है।
थोड़ा ध्यान देना। अपने हाथ को अपने नाक के निकट ले आना और उसे अनुभव
करना. तुम्हारी श्वास बायीं ओर से दायीं ओर चली गयी होगी। अभी थोड़ी देर
पहले तो सभी कुछ ठीक था, और क्षण भर के बाद ही सभी कुछ बदल गया, कुछ भी
अच्छा नहीं लग रहा। बस, लड़ने को, झगड़ने को और कुछ भी करने के लिए तैयार हो।
ध्यान रहे, हमारा पूरा शरीर दो भागों में विभक्त है। हमारा मस्तिष्क भी
दो मस्तिष्कों में विभाजित है। हमारे पास एक मस्तिष्क नहीं है; दो मस्तिष्क
हैं, दो गोलार्ध हैं। बायीं ओर का मस्तिष्क सूर्य मस्तिष्क है, दायीं ओर
का मस्तिष्क चंद्र मस्तिष्क है। तुम थोडी उलझन में पड़ सकते हो, क्योंकि ऐसे
तो बायीं ओर सब कुछ चंद्र से संबंधित होता है, तो फिर दायीं ओर के
मस्तिष्क का चंद्र से क्या संबंध! दायीं ओर का मस्तिष्क शरीर के बाएं
हिस्से से जुड़ा हुआ है। बाया हाथ दायीं ओर के मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है,
दायां हाथ बायीं ओर के मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है, यही कारण है। वे एक दूसरे
से उलटे जुडे हुए हैं।
दायीं ओर का मस्तिष्क कल्पना को, कविता को, प्रेम को, अंतर्बोध को जन्म
देता है। मस्तिष्क का बाया हिस्सा बुद्धि को, तर्क को, दर्शन को, सिद्धांत
को, विज्ञान को जन्म देता है।
और जब तक व्यक्ति सूर्यऊर्जा और चंद्रऊर्जा के बीच संतुलन नहीं पा
लेता है, अतिक्रमण संभव नहीं है। और जब तक बाया मस्तिष्क दाएं मस्तिष्क से
नहीं मिल जाता है और उनमें एक सेतु निर्मित नहीं हो जाता है, तब तक सहस्रार
तक पहुंचना संभव नहीं है। सहस्रार तक पहुंचने के लिए दोनों ऊर्जाओं का एक
हो जाना आवश्यक है, क्योंकि सहस्रार परम शिखर है, आत्यंतिक बिंदु है। वहां न
तो पुरुष की तरह पहुंचा जा सकता है, न ही वहा स्त्री की तरह पहुंचा जा
सकता है। वहा एकदम शुद्ध चैतन्य की तरह होकर, समग्र और संपूर्ण होकर
पहुंचना संभव होता है।
पुरुष की कामवासना सूर्यगत है, स्त्री की कामवासना चंद्रगत है। इसीलिए
स्त्रियों के मासिक धर्म का चक्र अट्ठाइस दिन का होता है, क्योंकि चंद्र का
मास अट्ठाइस दिन में पूरा होता है। स्त्रियां चंद्रमा से प्रभावित होती
हैं चंद्र का वर्तुल अट्ठाइस दिन का होता है।
और इसीलिए बहुत सी स्त्रिया पूर्णिमा की रात थोड़ा पागलपन का अनुभव करती
हैं। जब पूर्णिमा की रात आए, तो अपनी पत्नी या अपनी प्रेयसी से सावधान
रहना। वह थोड़ी परेशान और अस्तव्यस्त हो जाती है। जैसे पूर्णिमा की रात
समुद्र में ज्वार भाटा आने लगता है और समुद्र प्रभावित हो जाता है, ऐसे
स्त्रियां भी उत्तप्त हो जाती हैं।
क्या तुमने कभी ध्यान दिया है? पुरुष खुली आंखों से प्रेम करना चाहता
है। केवल इतना ही नहीं, बल्कि प्रकाश भी पूरा चाहता है। अगर किसी तरह की
बाधा न हो, तो पुरुष दिन में प्रेम करना पसंद करता है। और उन्होंने ऐसा
करना शुरू भी कर दिया है विशेषकर ‘अमेरिका में, क्योंकि उस तरह की बाधाएं
और समस्याएं अब वहां पर समाप्त हो गयी हैं। वहा लोग रात्रि की अपेक्षा सुबह
प्रेम अधिक करते हैं। स्त्री अंधकार में प्रेम करना पसंद करती है, जहां
थोड़ी भी रोशनी न हो और अंधेरे में भी वे अपनी आंखें बंद कर लेती हैं।
चंद्रमा रात्रि में, अंधकार में चमकता है, उसे अंधकार से प्रेम है रात्रि से।
इसीलिए स्त्रियां अश्लील साहित्य में उत्सुक नहीं हैं। अब नारी मुक्ति
आंदोलन के कारण, कुछ पत्रिकाओं ने प्लेबाय और इसी तरह की पत्रिकाओं के साथ
प्रतिस्पर्धा की शुरुआत की है इसी प्रतिस्पर्धा के कारण प्लेगर्ल पत्रिका
सामने आयी है। लेकिन मूल रूप से स्त्रियां अश्लील साहित्य में, अश्लील
पत्रिकाओं में जरा भी उत्सुक नहीं होतीं। असल में तो स्त्रियों को यह समझ
ही नहीं आता है कि आखिर पुरुष क्यों इतना अधिक नग्न स्त्रियों के चित्र
देखने में उत्सुक रहता है। इस तथ्य को समझने में उन्हें कठिनाई अनुभव होती
है।
पुरुष सूयोंमुन्धी होता है, उसे प्रकाश अच्छा लगता है। आंखें सूर्य का
हिस्सा हैं, इसीलिए आंखें देखने में सक्षम होती हैं। आंखों का तालमेल सूर्य ऊर्जा के साथ रहता है। तो पुरुष आंखों से, दृष्टि से अधिक जुड़ा हुआ है।
इसीलिए पुरुष को देखना अच्छा लगता है और स्त्री को प्रदर्शन करना अच्छा
लगता है। पुरुषों को यह समझ में ही नहीं आता है कि आखिर स्त्रियां स्वयं को
इतना क्यों सजाती संवारती हैं?
मैंने सुना है, एक दंपति हनीमून मनाने के लिए किसी पहाड़ी स्थान पर गए।
युवक बिस्तर पर लेटा हुआ पत्नी की प्रतीक्षा कर रहा था। और पत्नी थी कि
अपने श्रृंगार करने में लगी हुई थी, अपने को सजाने संवारने में लगी हुई
थी। उसने अपने शरीर पर पाउडर लगाया, बाल संवारे, नाखूनों पर नेल पालिश
लगाई, इत्र की कुछ बूंदें कान के पीछे लगाई, बस वह अपने को सजाती ही जा रही
थी। आखिरकार जब उस युवक से न रहा गया, तो वह बिस्तर से झटके से उठकर खड़ा
हो गया। पत्नी ने पूछा, क्या बात है? आप कहां जा रहे हो? वह अपने सूटकेस की
तरफ दौड़ा और बोला, अगर यह एक औपचारिक प्रेम ही रहने वाला है तो कम से कम
मैं अपने कपड़े तो पहन लूं।
स्त्रियों में प्रदर्शन की प्रवृत्ति होती है वे चाहती हैं कोई उन्हें
देखे। और यह एकदम ठीक भी है, क्योंकि इसी तरह से तो पुरुष और स्त्रियां एक
दूसरे के अनुकूल बैठ पाते हैं पुरुष देखना चाहता है, स्त्री दिखाना चाहती
है। वे एक दूसरे के अनुरूप हैं, यह एकदम ठीक है। अगर स्त्रियों को प्रदर्शन
में उत्सुकता न होगी, तो वे दूसरी कई मुसीबत खड़ी कर देती हैं। और अगर
पुरुष स्त्री को देखने में उत्सुक नहीं है, तो फिर स्त्री किसके लिए इतना
श्रृंगार करेगी, आभूषण पहनेगी, सजेगी संवरेगी आखिर किसके लिए? फिर तो कोई
भी उनकी तरफ नहीं देखेगा। प्रकृति में हर चीज एक दूसरे के अनुरूप होती है,
उनमें आपस में सिन्क्रानिसिटी, लयबद्धता होती है।
लेकिन अगर सहस्रार तक पहुंचना हो, तो द्वैत को गिराना होगा। परमात्मा तक
पुरुष या स्त्री की भांति नहीं पहुंचा जा सकता है। परमात्मा तक तो सहज रूप
में, शुद्ध अस्तित्व के रूप में ही पहुंचा जा सकता है, स्त्री और पुरुष के
रूप में नहीं।
‘सिर के शीर्ष भाग के नीचे की ज्योति पर संयम केंद्रित करने से समस्त सिद्धों के अस्तित्व से जुड्ने की क्षमता मिल जाती है।
’
ऊर्जा को अगर ऊपर की ओर गतिमान करना है, तो इसकी विधि संयम है। पहली
बात, अगर तुम पुरुष हो तो तुम्हें तुम्हारे सूर्य के प्रति तुम्हारे सूर्य ऊर्जा के केंद्र के प्रति, तुम्हारे काम केंद्र के प्रति, पूरी तरह
होशपूर्ण होना होगा। तुम्हें मूलाधार में रहना होगा, अपने संपूर्ण चैतन्य
को, अपनी पूरी ऊर्जा को मूलाधार पर बरसा देना होगा। जब मूलाधार पर पूरा होश
आ जाता है तो तुम पाओगे कि ऊर्जा हारा केंद्र की ओर उठ रही है, चंद्र की
ओर बढ़ रही है।
और जब ऊर्जा चंद्रकेंद्र की ओर गतिमान होगी, तो तुम बहुत संतृप्ति,
बहुत आनंदित अनुभव करोगे। सारी कामवासना के आनंद इसकी तुलना में कुछ भी
नहीं हैं कुछ भी नहीं हैं। जब सूर्य ऊर्जा अपनी ही चंद्रऊर्जा में उतरती
है, तो उस आनंद की सघनता उससे हजारों गुना अधिक होती है। तब सच में पुरुष
और स्त्री का मिलन घटित होता है। बाहर किसी भी स्त्री से कितनी भी निकटता
क्यों न हो, कितने भी करीब क्यों न हो, तुम अपने को पृथक और अलग ही अनुभव
करते हो। बाहर का मिलन तो बस सतही और औपचारिक ही होता है दो सतह, दो
परिधियां ही आपस में मिलती हैं। दो सतह एक दूसरे को स्पर्श करती हैं, बस
इतना ही होता है। लेकिन जब सूर्यऊर्जा चंद्रऊर्जा की ओर गतिमान होती है,
तब दो ऊर्जा केंद्रों की ऊर्जा आपस में मिल जाती है और जिस व्यक्ति के
सूर्य और चंद्र एक हो जाते हैं, वह परम रूप से आनंदित और संतृप्त हो जाता
है और फिर वह हमेशा आनंदित और संतृप्त बना रहता है, क्योंकि इसको खोने का
कोई उपाय ही नहीं है। यह आनंद और मिलन सनातन है।
अगर तुम स्त्री हो तो तुम्हें अपनी संपूर्ण चेतना को हारा तक ले आना होगा, और तब तुम्हारी ऊर्जा सूर्य केंद्र की ओर बढ़ने लगेगी।
प्रत्येक व्यक्ति में एक केंद्र निष्किय होता है और एक केंद्र सक्रिय
होता है। सक्रिय केंद्र को निष्किय केंद्र के साथ जोड़ दो, तो निष्क्रिय
केंद्र सक्रिय हो जाता है।
और जब दोनों ऊर्जाओं का मिलन होता है जब सूर्यऊर्जा और चंद्रऊर्जा
एक हो रहे होते हैं, तो ऊर्जा ऊपर की ओर उठती है। तब व्यक्ति ऊर्ध्वगमन की
ओर बढ़ने लगता है।
पतंजलि योगसूत्र
ओशो
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