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Sunday, November 15, 2015

इकदू जीभौ लख होहि लख होवहि लख बीस....

इकदू जीभौ लख होहि लख होवहि लख बीस।
लखु लखु गेड़ा अखिअहि एक नामु जगदीस।।

यदि एक जीभ से लाख जीभ हो जाएं, और लाख से भी बीस लाख हो जाएं, तो मैं प्रत्येक जीभ से लाख-लाख बार एक जगदीश का नाम जपूंगा।

तब तुम थकोगे, उसके पहले न थकोगे। तुमने अभी जपा ही क्या है? तुमने अभी ध्यान ही कितना किया है? तुमने अभी पुकारा ही क्या है? तुम चिल्लाए ही कहां? तुमने पूरी ताकत ही नहीं लगायी है। अगर तुम्हारे घर में आग लगी हो तो तुम जितनी तेजी से बाहर भागते हो, इतनी तेजी से भी तुम परमात्मा की तरफ नहीं भागे हो। कि तुम्हारी पत्नी मर जाए तो जैसे जार-जार हो कर तुम रोते हो, ऐसा तुम उसके वियोग के लिए अभी तक नहीं रोए। कि तुम्हारा बच्चा भटक जाए तो तुम जैसे पागल हो कर बेतहाशा खोजने निकल पड़ते हो, ऐसी तुमने अभी तक उसकी खोज नहीं की। तुम्हारी खोज कुनकुनी है। अभी तुम उबले नहीं।

नानक उस उबलने की बात कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि एक जीभ से लाख जीभ हो जाएं, और लाख से बीस लाख हो जाएं, तो मैं प्रत्येक जीभ से लाख-लाख बार एक जगदीश का नाम जपूंगा।

रोआं-रोआं उसी के नाम से भर जाए। और रोआं-रोआं उसी की प्यास अनुभव करे। और रोएं-रोएं में एक ही पुकार गूंजने लगे कि तुझे पाना है। और जीवन में सब व्यर्थ हो जाए। बस, एक परमात्मा की सार्थकता बचे। और सब गौण हो जाए। और सब छोड़ने को तुम तैयार हो जाओ। एक उसको पाना ही लक्ष्य बचे, तब तुम एकाग्र होओगे।

स्वामी के नाम की यही सीढ़ियां हैं कि एक जीभ से लाख जीभ हो जाएं, लाख जीभ से बीस लाख हो जाएं। और फिर एक-एक जीभ लाखों बार उसका ही नाम जपे। स्वामी के नाम की यही सीढ़ियां हैं, जिन पर चल कर साधक इक्कीस हो जाता है। अर्थात भगवतस्वरूप को प्राप्त हो जाता है।

इक्कीस शब्द आता है सांख्यों की गणना से। क्योंकि सांख्य कहते हैं, दो तरह से इक्कीस हो सकते हैं। सांख्यों की गणना बड़ी कीमती है। सांख्य शब्द का अर्थ भी होता है, गणना, संख्या। उसी से सांख्य बना है। क्योंकि उन्होंने पहली गणना की है मनुष्य के अस्तित्व की, इसलिए उस दर्शन का नाम ही सांख्य हो गया।

सांख्य कहते हैं कि पांच महाभूत उस एक से पैदा होते हैं। ये जो पृथ्वी, जल, आकाश…ये पांच महाभूत उससे पैदा होते हैं। लेकिन ये महाभूत तो स्थूल हैं। इन महाभूतों को बनाने वाली पांच तन्मात्राएं हैं, जो सूक्ष्म हैं। जो आंख से दिखाई नहीं पड़तीं। वैज्ञानिक भी राजी हैं कि तुम्हें जो दीवाल दिखाई पड़ती है, यह तो तुम्हें दिखाई पड़ती है। यह तो स्थूल रूप है। जैसी दीवाल है–तन्मात्रा–वह तो तुमने कभी देखी नहीं। वह तो वैज्ञानिक को थोड़ी सी उसकी झलक मिलती है। क्योंकि यह दीवाल तुम्हें तो थिर मालूम होती है, यह थिर नहीं है। यहां बड़ी गति है, और बड़ा जीवन है। एक-एक कण प्रकाश की गति से घूम रहा है। लेकिन गति इतनी ज्यादा है कि तुम उसे पकड़ नहीं पाते। वह इतनी सूक्ष्म है और इतनी तीव्र है…।

प्रकाश की किरण चलती है एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील। एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील प्रकाश की गति है। प्रकाश की गति से दीवाल के अतिसूक्ष्म कण– इलेक्ट्रान–घूम रहे हैं। उनकी गति इतनी तीव्र है कि तुम देख नहीं पाते। इसलिए दीवाल थिर मालूम पड़ती है। लेकिन दीवाल महान सक्रियता से गुजर रही है। हर चीज, पत्थर भी सक्रिय है और जीवंत है। और बड़ा कारोबार चल रहा है। इसलिए तो यह दीवाल एक दिन गिर जाएगी और खंडहर होगी। क्योंकि अगर यह बिलकुल थिर होती तो खंडहर कैसे होती? अगर कोई चीज बिलकुल थिर हो, तो नष्ट ही नहीं हो सकती। क्योंकि क्रिया न चल रही हो, तो भीतर संघर्षण नहीं होगा। संघर्षण नहीं होगा तो विनाश कैसे होगा?

इसलिए वैज्ञानिक सोचते हैं कि अगर किसी आदमी को बचाना हो लंबी उम्र तक, तो उसको शून्य डिग्री से नीचे ठंडा कर के बर्फ में रख देना चाहिए। तो फिर उसको अनंतकाल तक बचाया जा सकता है। क्योंकि गति कम हो जाती है। इसलिए तो हम फल को फ्रिज में रखते हैं। वह ठंडा रहता है, तो देर तक सड़ता नहीं। क्योंकि जितनी ठंडक होती है, उतनी गति क्षीण हो जाती है। इसलिए तो ठंडे मुल्कों के लोग ज्यादा उम्र पाते हैं, गर्म मुल्कों के लोगों की बजाय। क्योंकि जितनी गर्मी होती है, उतनी गति होती है। जितनी गति होती है, उतनी जल्दी क्षीणता हो जाती है। इसलिए तो तुम गर्मी में बेचैनी अनुभव करते हो। ठंड में अच्छा लगता है। सर्दी के दिनों में स्वस्थ मालूम पड़ते हो, गर्मी के दिनों में थोड़ा अस्वास्थ्य पकड़ने लगता है।

यह दीवाल परम-गति में लीन है। इसलिए गिरेगी। क्योंकि इसके भीतर संघर्षण हो रहा है। और संघर्षण होते-होते शक्ति क्षीण होगी। यह बिखर जाएगी, खंडहर हो जाएगा।

सांख्य कहते हैं कि पांच तन्मात्राएं हैं। वे सूक्ष्म रूप हैं। और उन पांच तन्मात्राओं के पांच महाभूत हैं, जो उनका स्थूल रूप हैं–दस। फिर पांच ज्ञानेंद्रियां हैं जो सूक्ष्म रूप हैं, और पांच कर्मेंद्रियां हैं जो स्थूल रूप हैं। आंख तुम्हारी कर्मेंद्रिय है, और देखने की क्षमता तुम्हारी सूक्ष्मेंद्रिय है। देखने की क्षमता न हो, तो आंख खो जाएगी, आंख रहे तो भी! कभी-कभी ऐसा होता है कि तुम आंख होते हुए अंधे हो जाते हो। क्योंकि तुम्हारा ध्यान कहीं और चला गया। और जब ध्यान कहीं और चला गया तो देखने की क्षमता कहीं और चली गयी। कान है, वह स्थूल इंद्रिय है–कर्मेंद्रिय, सुनने की क्षमता सूक्ष्म इंद्रिय है।

इसलिए तो नानक बार-बार कहते हैं, कि सुनिए। तो वे तुम्हारे इस कान के लिए नहीं कह रहे हैं। क्योंकि यह कान तो सुन ही रहा है। यह कान तो बंद ही नहीं होता। आंख तो कम से कम झपकती है, कान तो झपकता भी नहीं। तो क्या बार-बार कहना, सुनिए! वे भीतर की सूक्ष्म इंद्रिय को इशारा कर रहे हैं। जब वे कहते हैं सुनिए, तो वे यह कह रहे हैं कि कान के पास आ जाओ, इधर-उधर मत भटकना। नहीं तो कान तो सुन लेगा, तुम सुनने से वंचित रह जाओगे।

तो पांच सूक्ष्म इंद्रियां हैं, जिनका नाम ज्ञानेंद्रियां। और पांच स्थूल इंद्रियां हैं, जिनका नाम कर्मेंद्रियां। ऐसे बीस।
नानक कहते हैं कि जो अपना सब कुछ दांव पर लगा देगा, वह इक्कीस हो जाता है। वह इक्कीसवां परमात्मा है। और अगर तुमने दांव पर न लगाया और उसे न खोजा, तो भी तुम इक्कीस हो जाते हो, वह तुम्हारा अहंकार है।

इसलिए इक्कीस होने के दो ढंग हैं। बीस तो स्थिति है; इक्कीस होने के दो ढंग हैं। या तो तुम परमात्मा को पा लो अर्थात असली आत्मा को पा लो, अपने स्वरूप को पा लो, तो इक्कीस हो जाओगे। और या फिर एक झूठे स्वरूप की कल्पना कर लो कि मैं यह हूं। धनी हूं, ज्ञानी हूं, शक्तिशाली हूं, त्यागी हूं, राजा हूं, कुछ अकड़ बना लो। तो भी इक्कीस हो जाओगे। लेकिन यह इक्कीसवां झूठ है।

तो या तो बीस में एक झूठ जोड़ दो; बीस+झूठ। या बीस में सत्य जोड़ दो; बीस+सत्य। तुम इक्कीस हो जाओगे। हम सब भी इक्कीस हैं और नानक भी इक्कीस हैं। इससे ज्यादा तो कोई हो नहीं सकता। मगर हम झूठ को जोड़े हुए हैं। हमने बिना खोजे जोड़ लिया है। यह बड़े मजे की बात है।

तुमने कभी अपने को खोजा नहीं और तुम्हें खयाल है कि तुम अपने को जानते हो। इससे बड़ा झूठ जगत में दूसरा नहीं है। तुमने न कभी अपने को खोजा और न झलक पायी अपनी कभी। फिर भी तुम कहते हो, मैं हूं। और तुम्हें कुछ भी पता नहीं कि तुम कौन हो? तुम्हें उतना ही पता है कि जितना दर्पण बताता है। दर्पण क्या खाक बताएगा? दर्पण में तुम थोड़े ही दिखाई पड़ते हो, तुम्हारी चमड़ी का बाहरी हिस्सा दिखाई पड़ता है। दर्पण में तो तुम्हारे वस्त्र दिखाई पड़ते हैं, देह दिखाई पड़ती है, तुम थोड़े ही दिखाई पड़ते हो। तुम्हारी आत्मा दर्पण में थोड़े ही झलकती है। तुम्हारा स्वरूप थोड़े ही दर्र्पण में झलकता है। दर्पण जितना बताता है, उसको तुम समझते हो, मैं हूं।

और इस मैं को तुम इक्कीस माने हुए हो। यही दुख है। यही नर्क है। अगर तुमने इक्कीसवां झूठ जोड़ लिया, तो तुम दुख में पड़ोगे ही। बीस तो वही रहेंगे, यह इक्कीसवां झूठ रहेगा, इसलिए तुम नर्क में पड़ जाओगे। बीस तो जो हैं, तब भी वही रहेंगे। अगर यह इक्कीसवां सच हो जाए, तो सच होते ही तुम परम मुक्ति को अनुभव करोगे। क्योंकि उन बीस के कारण उपद्रव नहीं है। वह तो जीवन की व्यवस्था है। यह इक्कीसवां उपद्रव है। अगर झूठ है तो पीड़ा लाएगा।

इसलिए अहंकार जितना दुख देता है, और कोई चीज दुख नहीं देती। अहंकार के अतिरिक्त दुख का कोई सूत्र ही नहीं है। जितना दुख चाहिए हो उतना अहंकार बढ़ाओ। जितना अहंकार बढ़ाओगे, नर्क तुम्हारी मुट्ठी में होगा। जब चाहो, पैदा कर लो।

जितना आनंद चाहिए हो, उतना अहंकार घटाओ। जिस दिन अहंकार बिलकुल न होगा, स्वर्ग तुम्हारी मुट्ठी में होगा। तुम्हारी छाया बन जाएगा। तुम जहां जाओगे, वहां स्वर्ग होगा। फिर तुम्हें नर्क नहीं भेजा जा सकता। अगर तुम्हें नर्क में भी पटक दिया जाए तो तुम पाओगे कि वहां भी स्वर्ग है। क्योंकि जिसके पास अहंकार नहीं, उसे सब जगह स्वर्ग है। और जिसके पास अहंकार है, उसे कोई जबर्दस्ती स्वर्ग में भी डाल दे, तो वहां भी दुख ही पाएगा। क्योंकि दुख का संबंध या सुख का संबंध स्थितियों से नहीं है। वह भीतर का इक्कीस सच है या झूठ…!
नानक कहते हैं कि जिसने सब दांव पर लगा दिया–स्वामी के नाम की यही सीढ़ियां हैं–दांव पर लगाना। लगाते जाना। ऐसी घड़ी आ जाए कि कुछ बचे ही न दांव पर लगाने को, सब लगा दिया…।

जिन पर चल कर साधक इक्कीस हो जाता है, अर्थात भगवतस्वरूप को प्राप्त करता है। आकाश की, उच्च पद की चर्चा सुन कर, कीट के समान क्षुद्र लोगों को भी स्पर्धा हो जाती है।

एक ओंकार सतनाम 

 
ओशो 

 

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