एक आदमी था, का हो गया उसकी आंखें चली गईं। चिकित्सकों ने कहा, आंखें
ठीक हो सकती हैं, ऑपरेशन करवाना होगा, तीन महीने विश्राम करना होगा। उस
बूढ़े ने कहा, ‘सार क्या? अस्सी साल का तो हो गया। फिर आंखों की मेरे घर में
कमी क्या है? आठ मेरे लड़के हैं, सोलह उनकी आंखें; आठ उनकी बहुएं हैं, सोलह
उनकी आंखें; मेरी पत्नी भी अभी जिंदा है, दो उसकी आंखें ऐसे चौंतीस आंखें
मेरे घर में हैं। दो आंखें न हुईं, क्या फर्क पड़ता है?’ दलील तो जंचती है।
लड़कों की आंखें, बहुओं की आंखें, पत्नी की आंखें चौंतीस आंखें घर में हैं। न
हुईं छत्तीस, चौतीस हुईं, क्या फर्क पड़ता है? दो आंख के कम होने से क्या
बिगड़ता है? इतने तो सहारे हैं!
नहीं, वह राजी न हुआ ऑपरेशन को। और कहते हैं, उसी रात उस घर में आग लग
गई। चौंतीस आंखें बाहर निकल गईं; बूढ़ा, अंधा का टटोलता, आग में झुलसता,
चीखता चिल्लाता रह गया। लड़के भाग गए, पत्नी भाग गई, बहुएं भाग गईं। जब घर
में आग लगी हो तो याद किसे रह जाती है किसी और की! याद आती है बाहर जा कर।
बाहर जा कर वे सब सोचने लगे, अब क्या करें? बूढ़े पिता को कैसे बचाएं? लेकिन
जब आग लगी तो आंखें अपने पैरों को ले कर बाहर भाग गईं। दूसरे क़ई याद कहां
ऐसे संकट के क्षण में! समय कहां, सुविधा कहां कि दूसरे की याद कर लें!
दूसरा तो सुविधा में, समय हो तो हम सोच पाते हैं। जब अपने प्राणों पर बनी
हो तो कौन किसकी सोच पाता है! वह का चीखने चिल्लाने लगा और तब उसे याद आई
कि मैंने बड़ा गलत तर्क दिया। आंख अपनी ही हो तो ही समय पर काम आती है।
और इस जीवन के भवन में आग लगी है। यहां हम रोज जल रहे हैं। यहां अपनी ही
आंख काम आएगी, यहां दूसरे की आंख काम नहीं आ सकती। फिर बाहर की दुनिया में
तो शायद दूसरे की आंख काम भी आ जाए, लेकिन भीतर की दुनिया में तो दूसरे का
प्रवेश ही नहीं है; वहा तो तुम नितांत अकेले हो। वहा तो तुम्हीं हो, और
कोई न कभी गया है और न कभी कोई जा सकता है। तुम्हारे अंतरतम में तुम्हारे
अतिरिक्त किसी की गति नहीं है, वहां तो अपनी आंख होगी तो ही काम पड़ेगी।
इसलिए मैं कहता हूं कि ज्ञान और ज्ञान में भेद है।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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