प्रेमी की तड़फन क्या है? प्रेमी की पीड़ा क्या है? प्रेमी की पीड़ा यही
है कि जिससे वह एक होना चाहता है उससे भी दूरी बनी रहती है। कितने ही पास
आओ, गले से गले मिलाओ दूरी बनी रहती है। निकट आ कर भी निकटता कहां होती है?
आत्मीय हो कर भी आत्मीयता कहां होती है?
प्रेमी की पीड़ा यही है: चाहता है कि कम से कम एक से तो अद्वैत हो जाए।
अद्वैत की आकांक्षा हमारे प्राणों में पड़ी है। वह हमारी गहनतम आकांक्षा है।
जिसको तुम प्रेम की आकांक्षा कहते हो, अगर गौर से समझोगे तो वह अद्वैत की
आकांक्षा है। वह आकांक्षा है कि चलो न हो सकें सबसे एक, कम से कम एक से तो
एक हो जाएं। कोई तो हो ऐसी जगह, जहां द्वि न हो, दूजा न हो, दूसरा न हो,
जहां बीच में कोई खाली जगह न रह जाए; जहा सेतु बन जाए; जहां मिलन घटित हो।
प्रेम की आकांक्षा अद्वैत की आकांक्षा है। ठीक ठीक तुमने व्याख्या न की
होगी। तुमने ठीक ठीक प्रेम की आकांक्षा का विश्लेषण न किया होगा। अगर तुम
उसका विश्लेषण करो तो तुम पाओगे : समस्त धर्म प्रेम की ही आकांक्षा से पैदा
होता है।
लेकिन प्रेमी भी एक नहीं हो पाते। क्योंकि एक होने के लिए प्रेम काफी
नहीं। एक होने के लिए आकांक्षा काफी नहीं। एक होने के लिए एक को देखने की
क्षमता चाहिए। देखने की क्षमता तो हमारी दो की है। देखते तो हम सदा दो को
हैं। देखते तो हम भिन्नता को हैं। भिन्नता हमारे लिए तन्धण दिखाई पड़ती है।
अभिन्नता हमें दिखाई नहीं पड़ती। अभिन्नता को देखने की हमारी क्षमता ही खो
गई है। सीमा दिखाई पड़ती है, असीम दिखाई नहीं पड़ता। लहरें दिखाई पड़ती हैं,
सागर दिखाई नहीं पड़ता। तुम दूसरों से कैसे भिन्न हो, यह दिखाई पड़ता है; तुम
दूसरों से कैसे अभिन्न हो, यह दिखाई नहीं पड़ता। अद्वैत तो तभी फल सकता है,
जब दो के बीच जो शाश्वत सेतु है ही, वह दिखाई पड़े।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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