मेरे पास जैन-मुनि आते हैं, वे कहते हैं, कैसे ध्यान करें? तुम मुनि
कैसे हुए? क्योंकि मुनि तो कोई हो ही नहीं सकता बिना ध्यान के! मुनि का
अर्थ है, जिसका चित्त मौन हो गया। चित्त मौन कैसे होगा बिना ध्यान के? अब
तुम पूछने आये हो कि ध्यान कैसा! कितने वर्षों से मुनि हो? कोई कहता है तीस
वर्ष से मुनि हैं, कोई कहता चालीस वर्ष से मुनि हैं। तो तुम मुनि शब्द का
अर्थ भी भूल गये। मुनि का अर्थ ही ध्यानी होता है–मौन! जिसके भीतर चित्त
में अब तरंगें नहीं उठतीं विचार की। जो निर्विचार हुआ, निर्विकल्प हुआ।
मगर खयाल ही भूल गया है। मुनि शब्द का अर्थ ही भूल गया है। ध्यान तो ऐसा
लगने लगा जैसे जैन-धर्म से ध्यान का कोई संबंध नहीं है। और जैन-धर्म मौलिक
रूप से ध्यान पर खड़ा है। सभी धर्म मौलिक रूप से ध्यान पर खड़े हैं। और कोई
उपाय ही नहीं। जैन-धर्म उसी दिन मरने लगा, जिस दिन ध्यान से संबंध छूट गया।
अब तुम साधो अणुव्रत और महाव्रत, अब तुम साधो अहिंसा, लेकिन तुम्हारी
अहिंसा पाखंड होगी। क्योंकि ऊपर से आरोपित होगी। भीतर से आविर्भाव न होगा।
ध्यानी अहिंसक हो जाता है। होना नहीं पड़ता। ध्यानी में महाकरुणा का जन्म
होता है। अपने को जानकर दूसरे पर दया आनी शुरू होती है। क्योंकि अपने को
जानकर पता चलता है कि दूसरा भी ठीक मेरे जैसा है। अपने को जानकर यह स्पष्ट
अनुभव हो जाता है कि सभी सुख की तलाश कर रहे हैं, जैसे मैं कर रहा हूं।
अपने को जानकर पता चलता है, जैसे दुख मुझे अप्रिय है, वैसा सभी को अप्रिय
है। जिसने अपने को जान लिया, वह अगर अहिंसक न हो, असंभव! और जिसने अपने को
नहीं जाना, वह अहिंसक हो जाए, यह असंभव!
जिनसूत्र
ओशो
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