यह सवाल महत्वपूर्ण है और बहुत ऊपर से देखे
जाने पर समझ में नहीं आ सकेगा। थोड़े भीतर गहरे झांकने से यह बात स्पष्ट हो
सकेगी कि ऐसा क्यों होता है। जैसे, इस कमरे में आप हैं और आप इस कमरे के
बाहर कभी भी नहीं गए हैं, कभी गए ही नहीं। इस कमरे में आप हैं, बड़े आनंद
में हैं, बड़ी शांति में हैं, बड़े सुरक्षित। न कोई भय, न कोई अंधकार, न कोई
दुख; लेकिन इस कमरे के बाहर आप कभी नहीं गए हैं।
तो इस कमरे में रहने की दो शर्तें हो सकती हैं: एक तो यह कि आपको कमरे
के बाहर जाने की कोई स्वतंत्रता नहीं है। यानी आप जाना भी चाहें तो आप नहीं
जा सकते हैं। आप परतंत्र हैं इस कमरे में रहने को–एक तो शर्त यह हो सकती
है। दूसरी शर्त यह हो सकती है कि आप स्वतंत्र पूरे हैं बाहर जाने को, लेकिन
आप अपनी समझ के कारण बाहर नहीं जाते हैं। क्योंकि बाहर दुख है, क्योंकि
बाहर पीड़ा है, बाहर भटक जाना है, बाहर अशांति है। ये दो शर्तें हो सकती
हैं।
अगर आप परतंत्र हैं बाहर जाने के लिए, तो आपका सुख, आपकी शांति, आपकी
सुरक्षा, सभी थोड़े दिनों में आपको कष्टदायी हो जाएंगी, क्योंकि परतंत्रता
से बड़ा कष्ट और कोई भी नहीं है। अगर आपको सुख में रहने के लिए भी बाध्य
किया जाए तो सुख भी दुख हो जाएगा।
बाध्यता इतना बड़ा दुख है कि बड़े से बड़े सुख को यानी एक आदमी को हम कहें
कि हम तुम्हें सारे सुख देते हैं सिर्फ स्वतंत्रता नहीं, यानी यह भी
स्वतंत्रता नहीं देते कि अगर तुम चाहो तो इन सुखों को भोगने से इनकार कर
सको, तुम्हें भोगना ही पड़ेगा तो परतंत्रता इतना बड़ा दुख है कि सारे सुखों
को मिट्टी कर देगी। और अगर यह शर्त हो इस कमरे के भीतर रहने की कि बाहर
नहीं जा सकते, सुख नहीं छोड़ सकते, तो ये सब सुख अत्यंत दुख हो जाएंगे। और
बाहर निकलने की प्यास इतनी तीव्र हो जाएगी, विद्रोह इतना गहरा हो जाएगा,
जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। और यह शर्त कि बाहर नहीं जा सकोगे, अनिवार्य
रूप से बाहर ले जाने का कारण बनेगी। और यह भी हो सकता है फिर कि बाहर दुख
हो, लेकिन फिर भी आप भीतर आना पसंद न करें, क्योंकि भीतर से बाहर जाने की
कोई आज्ञा नहीं है। एक स्थिति यह है।
दूसरी स्थिति यह है कि आपको पूरी स्वतंत्रता है, आप बाहर जाएं या भीतर
रहें। लेकिन आप कभी बाहर नहीं गए हैं। आपने भीतर के सब सुख, सब शांति, सब
ज्ञान जाना है। लेकिन बाहर अज्ञात है, और आप बाहर जाते हैं। और जाएंगे तो
ही तो जान सकेंगे कि बाहर क्या है! जानेंगे, जानने के लिए यात्रा करेंगे,
भटकेंगे, दुख भोगेंगे, तब फिर वापस लौटेंगे। और अब जब आप वापस आएंगे तो
पहले का ही सुख आपको करोड़ गुना ज्यादा मालूम पड़ेगा, क्योंकि बीच में दुख का
एक अनुभव, अज्ञान का एक अनुभव पीड़ा से आप गुजरे हैं।
हो सकता है कि पहले वह कमरे के भीतर के सुख आपको सुख भी न मालूम पड़े
हों, क्योंकि आपको कोई दुख न था; और प्रकाश आपको प्रकाश न मालूम पड़ा हो,
क्योंकि आपने अंधेरा न देखा था। अब जब आप बाहर के जगत से वापस लौटते हैं,
तब आप जानते हैं कि प्रकाश क्या है। क्योंकि आपने अंधेरा जाना, क्योंकि
आपने पीड़ा जानी, इसलिए आप अब आनंद को पहचानते हैं। तो पहले का सुख रहा भी
होगा तो भी बोधपूर्वक न रहा होगा, कांशस नहीं हो सकते हैं उसके आप। आप
मूर्च्छित ही रहे होंगे, उस सुख में भी मूर्च्छित रहे होंगे। लेकिन जब बाहर
के सारे दुखों को झेल कर, बड़ी कठिनाइयों से वापस कदम उठा-उठा कर अपने घर
पर आप पहुंचते हैं, तब आप सचेतन पहुंचते हैं।
यानी मेरा कहना यह है कि आत्मा उसी अवस्था में पुनः पहुंचती है, जिस
अवस्था में वह थी। यह संसार की पूरी यात्रा उसे किसी नई जगह नहीं पहुंचा
देती है–वहीं, जहां वह सदा थी। लेकिन इस यात्रा के बाद पहुंचना अनुभव को
सचेतन, गहरा, अदभुत बना देता है। यानी वही स्थिति अब मोक्ष मालूम होती
है–वही स्थिति! वह स्थिति तब भी थी, लेकिन तब वह मोक्ष न थी, हो सकता है,
तब वह बंधन जैसी ही मालूम पड़ी हो। क्योंकि आपको विपरीत कोई अनुभव न था।
आत्मा स्वतंत्र है स्वयं के बाहर जाने के लिए, इसके लिए कोई परतंत्रता
नहीं है। आत्मा स्वतंत्र है भटकने के लिए। और स्वतंत्रता का हमेशा यही अर्थ
होता है, जहां भूल करने की स्वतंत्रता न हो, वहां स्वतंत्रता नहीं है। भूल
करने की स्वतंत्रता गहरी से गहरी स्वतंत्रता है।
आत्मा स्वतंत्र है, पहली बात। यानी आत्मा अमर है, आत्मा ज्ञानपूर्ण है;
उतना ही गहरा यह सत्य भी है कि आत्मा स्वतंत्र है, उस पर कोई परतंत्रता
नहीं है। स्वतंत्रता का मतलब होता है कि वह चाहे तो सुख उठाए, चाहे तो दुख
उठाए; चाहे तो ज्ञान में जीए और चाहे तो अंधकार में खो जाए; चाहे तो वासना
में जीए और चाहे वासना से मुक्त हो जाए। स्वतंत्रता का मतलब यह है कि ये
दोनों मार्ग उसके लिए बराबर खुले हुए हैं। और इसलिए बहुत अनिवार्य है कि
स्वतंत्रता की यह संभावना उसे उन स्थितियों में ले जाएगी, जो दुखदायी हों।
और तभी उस अनुभव से वह वापस लौट सकती है।
तो मैंने जैसा कहा निगोद, निगोद वह स्थिति है, जहां आत्माएं वही हैं, जो
वे हैं। निगोद वह स्थिति है, जहां उन्होंने कोई विपरीत अनुभव नहीं किया।
निगोद वह स्थिति है, जहां उन्होंने स्वतंत्रता का उपयोग नहीं किया। इसलिए
निगोद एक परतंत्रता की स्थिति है।
संसार वह स्थिति है, जहां आत्मा ने स्वतंत्रता का उपयोग करना शुरू किया।
वह भटकी, उसने भूलें कीं, उसने दुख पाए, उसने शरीर ग्रहण किए, उसने न
मालूम कितने प्रकार के शरीर ग्रहण किए, उसने हजारों तरह की वासनाएं पालीं
और पोसीं और प्रत्येक वासना के अनुकूल शरीरों को ग्रहण किया। यह भी उसकी
स्वतंत्रता है। यानी अगर मैंने शरीर ग्रहण किया है तो यह मेरा डिसीजन है,
यह मेरा निर्णय है। इसमें दुनिया में कोई मुझे धक्के नहीं दे रहा है कि तुम
शरीर ग्रहण करो। यह मेरी परम स्वतंत्रता की संभावना का ही एक हिस्सा है कि
मैं शरीर ग्रहण करूं।
फिर मैं कौन सा शरीर ग्रहण करूं, यह भी मेरी स्वतंत्रता है–कि मैं चींटी
बनूं, कि हाथी बनूं, कि आदमी बनूं, कि देवता बनूं, कि प्रेत बनूं, क्या
बनूं, यह भी सवाल मेरे ऊपर ही निर्भर है। इसके लिए भी कोई मुझे धक्के नहीं
दे रहा है। लेकिन चूंकि मेरी आत्मा स्वतंत्र है, इसलिए मैं इन सारी चीजों
का उपयोग कर सकता हूं। और उपयोग के बाद ही मैं इनसे मुक्त हो सकता हूं,
इनके पहले मुक्त भी नहीं हो सकता।
इसलिए निगोद में जो आत्मा है, वह अमुक्त है। अमुक्त का कुल मतलब इतना है कि उसने स्वतंत्रता का उपभोग ही नहीं किया।
महावीर मेरी दृष्टि में
ओशो
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