रामकृष्ण, समाधि का कोई संबंध समय से नहीं है। समयातीत है
समाधि। देह बच्चे की है कि जवान की कि बूढ़े की, आप्रसांगिक है, आत्मा तो
सदा वही की वही है। बच्चे के पास भी वही, जवान के पास भी वही, बूढ़े के पास
भी वही। आत्मा की कोई उम्र नहीं होती। आत्मा शाश्वत है। उसकी उम्र कैसे हो
सकती है? न उसका कोई जन्म है और न कोई मृत्यु, तो कैसा बुढ़ापा और कैसी
जवानी! इसीलिए तो एक चौंकाने वाली बात अनुभव होती है जरा आंख बंद करके सोचो
कि मेरे भीतर की उम्र कितनी है? और तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे, कुछ तय
नहीं होगा। भीतर की कोई उम्र होती ही नहीं, उम्र बाहर ही बाहर की होती है।
उम्र वस्त्रों की होती है, तुम्हारी नहीं। देह बस वस्त्र मात्र है।
इसलिए चिंतित मत होओ कि अब मैं बूढ़ा हो गया तो समाधि को पा सकूंगा या नहीं? संभावना तो इसकी है कि तुम पा सकोगे। जवानी में तो बड़े तूफान होते हैं। बुढ़ापे में तो तूफान धीरे—धीरे अपने—आप शांत हो गए होते हैं। तूफान शांत हो गए हैं, इसीलिए तो तुम्हारे मन में संन्यास का भाव जगा। तूफानों से ऊब गए हो, बहुत देख लिए, जो देखना था जिंदगी में सब देख लिया, अब देखने को बचा भी क्या है, अब तो देखने को सिर्फ परमात्मा बचा है, अब तो आंख एकाग्र होकर परमात्मा की तरफ चल सकती है। हर परिस्थिति के लाभ हैं, हर परिस्थिति की हानियां हैं याद रखना।
समझदार आदमी हर परिस्थिति से लाभ उठा लेता है, नासमझ हर परिस्थिति से हानि उठा लेता है।
जवानी का एक लाभ है: ऊर्जा। अपार ऊर्जा। गहन श्रम करने की सामर्थ्य। आकाश छूने की आकांक्षा। सपने देखने का साहस, दुस्साहस। वह जवानी का लाभ है। अगर उस तरंग पर चढ़ जाओ तो समाधि तक पहुंच जाओ। लेकिन कितने जवान उसका लाभ उठा पाते हैं? चढ़ते तो हैं तरंग पर, लेकिन वह तरंग उन्हें बाजार की तरफ ले जाती है। धन की तरफ, पद की तरफ, प्रतिष्ठा की तरफ। वह तरंग उन्हें राजनीति में ले जाती है। वह तरंग उन्हें क्षुद्र और क्षणभंगुर में ले जाती है। ऊर्जा तो है, लेकिन मटकी फूटीफूटी। छेदों से सब ऊर्जा बह जाती है।
जिंदगी विक्षिप्त हो जाती है जवानी में। लोग पागल की तरह जीते हैं। होश खोकर जीते हैं। सोचते हैं, चार दिन की जवानी है; आज है, कल तो नहीं होगी, कर लें जो करना है, भोग लें जो भोगना है; पी लें, पिला लें; जी लें, जिला लें, फिर तो मौत है। तो लोग एक त्वरा से जीते हैंमगर जीते क्या हैं, सिर्फ जीवन गंवाते हैं! हां, कोई बुद्ध ठीक युवावस्था में समाधि की तरफ चल पड़ता है। बस, लेकिन कोई बुद्ध, कभीकभी; अंगुलियों पर गिने जा सकें, ऐसे लोग इतिहास में इतने कम हुए हैं जिन्होंने युवावस्था के ज्वार का उपयोग कर लिया, जिन्होंने युवावस्था की ऊर्जा को परमात्मा के चरणों में समर्पित कर दिया।
तब तो बड़ा अदभुत है, क्योंकि तुम्हारे पास शक्ति होती। शक्ति से कुछ भी हो सकता है। विनाश हो सकता है, सृजन हो सकता है।
ऐसे ही बुढ़ापे के भी लाभ हैं और हानियां हैं। हानि है, क्योंकि देह कमजोर हो गई। तो तुम उदास बैठ जाओ, हताश बैठ जाओ, क्योंकि अब तो मौत ही होनी है और क्या होना है, तो तुम मरने के पहले मरेमरे हो जाओ, ये हानि है। कि तुम देह के साथ इतना तादात्म्य कर लो कि देह की शक्ति होती क्षीण, समझो कि मेरी ही जीवनऊर्जा क्षीण हो रही है, कि मैं ही मर रहा हूं। और लाभ भी हैं बुढ़ापे के। जिंदगी देख चुके, तूफान देख चुके, आंधियां देख चुकेसब देख लिया, सब व्यर्थ पायाअब एक शांति अपनेआप सघन होने लगी। तूफान जा चुका, तूफान के बाद की शांति सघन होने लगी। संध्या आ गई, दोपहरी की धूप कट गई, अब सांझ की शीतलता आने लगी; इसका उपयोग कर लो तो यही शीतलता, यही शांति समाधि का द्वार बन जाए।
जो भी मिला, मिट्टी हो गया। और जो भी नहीं मिला, उसमें आशा अटकी रही,
आंखें अटकी रहीं। मगर इतना पाने और गंवाने के बाद समझ में नहीं आता कि दूर
के ढोल सुहावने! मृगमरीचिकाएं हैं। इतनी भागदौड़ के बाद दिखाई नहीं
पड़ता कस्तूरी कुंडल बसै! कि अपने ही कुंडल में, कि कहीं अपने ही भीतर छिपा
है रहस्य और हम बाहर दौड़ते दौड़ते व्यर्थ थक गए हैं!
जरूर अगर बाहर दौड़ना हो तो बुढ़ापा मुश्किल देगा। लेकिन बाहर दौड़ना नहीं
है। बाहर क्या, दौड़ना ही नहीं है! समाधि तो रुक जाने का नाम है, ठहर जाने
का नाम है, थिर हो जाने का नाम है। पड़े पड़े समाधि हो जाएगी। बैठे बैठे
समाधि हो जाएगी। शरीर दौड़ कर थक चुका है, अब मन को भी कह दो कि तू भी थक!
अब तू भी रुक! अब शरीर और मन दोनों की दौड़ को जाने दो। घिर जाए सन्नाटा! हो
जाओ शून्य! रामकृष्ण, समाधि घट जाएगी। समाधि स्वभाव है। चुप होते ही
स्वभाव का अनुभव होने लगता है। शोरगुल बुद्धि का, विचार का बंद होते ही
स्वभाव की अनुभूति होने लगती है।
फिर जवानी और बुढ़ापा खयाल की बातें हैं। ऐसे जवान हैं तो जवानी में बूढ़े
हैं और ऐसे बूढ़े हैं जो बुढ़ापे में जवान हैं। जवानी और बुढ़ापा शरीर की कम,
मन की ज्यादा अवस्थाएं हैं।
सपना यह संसार
ओशो
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