लतीफा! भारत केवल एक भूगोल या इतिहास का अंग ही नहीं है। यह सिर्फ एक
देश, एक राष्ट्र, एक जमीन का टुकड़ा मात्र नहीं है। यह कुछ और भी है एक
प्रतीक, एक काव्य, कुछ अदृश्य सा किंतु फिर भी जिसे छुआ जा सके! कुछ
विशेष ऊर्जा तरंगों से स्पंदित है यह जगह, जिसका दावा कोई और देश नहीं कर
सकता।
इधर दस हजार वर्षों में सहस्रों लोग चेतना की चरम विस्फोट की स्थिति तक
पहुंचे हैं। उनकी तरंगें अभी भी जीवंत हैं। उनका असर अभी भी हवाओं में
मौजूद है। तुम्हें सिर्फ एक विशेष तरह की ग्राहकता की संवेदनशीलता की, उस
अदृश्य को ग्रहण करने की क्षमता की जरूरत है जो इस अद्भुत भूमि को घेरे
हुए है।
अद्भुत इसलिए कहां, क्योंकि इसने सिर्फ एक ही खोज सत्य की खोज के लिए
सब कुछ न्यौछावर कर दिया। इस देश ने बड़े फिलासफर पैदा नहीं किए तुम्हें
जानकर आश्चर्य होगा न प्लेटो, न अरस्तू; न थामस एक्युनस, न कांट; न
हीगल, न ब्राडले; और न ही बर्ट्रेंड रसेल। भारत के पूरे अतीत ने एक भी
फिलासफर को जन्म नहीं दिया और वे सत्य की खोज में संलग्न, निश्चित ही उनकी खोज, अन्य देशों में की जा रही खोज से सर्वथा भिन्न थी।
दूसरे देशों में लोग सत्य के संबंध में चिंतन कर रहे थे। भारत में वे सत्य
के बारे में विचार नहीं कर रहे थे क्योंकि कोई सत्य के विषय में भला
क्या विचार कर सकता है! या तो सत्य को जानते हो, या नहीं जानते हो।
चिंतन मनन असंभव है, फिलासफी की संभावना ही नहीं, वह तो बिलकुल ही फिजूल और
व्यर्थ की मेहनत है। वह तो एक अंधे आदमी द्वारा प्रकाश के संबंध में
सोचने विचारने जैसी बात है क्या खाक चिंतन कर सकता है वह? हो सकता है वह
बड़ा प्रतिभाशाली हो, महान तर्कशास्त्री हो, पर इससे क्या फर्क पड़ता है? न
प्रतिभा की जरूरत है और न तर्कों की। जरूरत तो है बस आंखों की जो देख
सकें।
प्रकाश देखा जा सकता है, पर सोचा नहीं जा सकता। सत्य भी देखा जा सकता
है, किंतु विचारा नहीं जा सकता। इसीलिए भारत में हमारे पास ‘फिलासफी’ का
समानार्थी शब्द ही नहीं है। सत्य की खोज को हम दर्शन कहते हैं, और ‘दर्शन’
का मतलब होता है ‘देखना’। फिलासफी का अर्थ है सोचना विचारना, और स्मरण
रहे कि विचार प्रक्रिया हमेशा वर्तुलाकार होती है, इर्द गिर्द घूमती है…
बस विषय में, विषय में और विषय में.. वह कभी भी अनुभूति के केंद्र बिंदु पर
नहीं पहुंचती।
पूरी दुनिया में भारत ही एक ऐसी भूमि है, जिसने अद्भुत रूप से अपनी सारी
प्रतिभा को सत्य को जानने और सत्य ही हो जाने के प्रयास में एकाग्र कर
दिया, समर्पित कर दिया।
भारत के पूरे इतिहास में एक भी बड़ा वैज्ञानिक तुम न पाओगे। ऐसा नहीं कि
यहां बुद्धिमान और कुशल लोग न हुए, कि प्रतिभाएं नहीं जन्मी। गणित की
आधारशिला भारत में रखी गई थी, किंतु अल्वर्ट आइंस्टीन यहां पैदा नहीं हुआ।
चमत्कारिक रूप से यह पूरा देश किसी बाह्य खोज में उत्सुक ही नहीं था।’पर’
की पहचान नहीं, वरन् स्वयं को जानना ही यहां एकमात्र लक्ष्य रहा।
कम से कम दस हजार सालों से लाखों करोड़ों लोग सतत एक ही प्रयास में जुटे
रहे, उसके पीछे सब कुछ बलिदान कर दिया विज्ञान, तकनीकी विकास, समृद्धि।
उन्होंने दरिद्रता, रुग्णता, बीमारिया और मृत्यु को भी स्वीकार कर लिया,
परंतु सत्य की खोज को किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ा… इससे एक खास किस्म का
वातावरण निर्मित हुआ, कुछ विशेष तरह की तरंगों का सागर जो चारों ओर से
तुम्हें घेरे है।
यदि कोई थोड़े से भी ध्यानी चित्त को लेकर यहां आता है, तो उसे उन तरंगों
का संस्पर्श होगा। ही, अगर एक पर्यटक की भांति आते हो तो तुम चूक जाओगे।
तुम मंदिरों, महलों, खंडहरों को, ताजमहल, खजुराहो, और हिमालय को तो देख
लोगे, पर भारत को नहीं देख पाओगे। तुम असली भारत से बिना मिले ही भारत से
गुजर जाओगे। यद्यपि वह सब ओर व्याप्त था, पर तुम संवेदनशील न थे, ग्राहक न
थे। तुम कुछ ऐसा देखकर लौटोगे जो वास्तविक भारत नहीं, सिर्फ उसका
अस्थि पंजर है, आत्मा नहीं। तुम्हारे पास उस अस्थि पंजर के फोटोग्राफ्स
होंगे, उनका एलबम बनाओगे और सोचोगे कि भारत घूम आए, भारत को जान लिया.. .यह
स्वयं को धोखा दे रहे हो तुम।
एक आध्यात्मिक पहलू भी है। न तो तुम्हारे कैमरा उसके चित्र लेने में, और
न ही तुम्हारे शिक्षा संस्कार उसे पकड़ने में सक्षम हैं। जर्मनी, इटली,
फ्रांस, इंग्लैंड किसी भी देश में जाकर तुम वहा के लोगों से मिल सकते हो।
वहा के भूगोल से, इतिहास और अतीत से भलीभांति परिचित हो सकते हो। लेकिन
जहां तक भारत का प्रश्न है, ऐसा नहीं किया जा सकता। यदि अन्य देशों की
श्रेणी में भारत को गिना, तो प्रारंभ से ही तुमने चूक कर दी, क्योंकि उन
देशों में वैसा आध्यात्मिक आभामंडल नहीं है। उन्होंने एक भी गौतम बुद्ध,
महावीर, नेमीनाथ और आदिनाथ को जन्म नहीं दिया। एक भी कबीर, फरीद या दादू
पैदा नहीं किया। उन्होंने बड़े वैज्ञानिकों, कवियों, कलाकारों, चित्रकारों
और सभी प्रकार के प्रतिभा संपन्न व्यक्तियों को तो पैदा किया, पर
रहस्यदर्शी ऋषि भारत की मोनोपली है, एकाधिकार है, कम से कम अभी तक तो रहा
है।
और ऋषि एक बिलकुल ही भिन्न प्रकार का मनुष्य है। वह मात्र प्रतिभावान ही
नहीं, एक महान् चित्रकार या कवि ही नहीं वह तो दिव्यता का माध्यम है,
भगवत्ता के लिए एक पुकार और आमंत्रण है। वह भीतर दिव्यता के उतरने के लिए
द्वार खोलता है। और हजारों सालों से लाखों ऋषियों ने द्वार खोले हैं इस
देश की हवाओं को दिव्यता से भरने के लिए। मेरे लिए वह दिव्य वातावरण ही
वास्तविक भारत है। परंतु उसे जानने के लिए तुम्हें एक विशेष प्रकार की
भावदशा में होना होगा।
लतीफा, चूकि तुम शांत होने का प्रयास कर रही हो, ध्यान में डूब रही हो,
इसलिए वास्तविक भारत को तुम स्वयं के संपर्क में आने दे पा रही हो। ही,
तुम ठीक कहती हो जिस सरलता से इस गरीब देश में तुम सत्य को उपलब्ध कर सकती
हो, वैसा किसी और जगह पर संभव नहीं। यह अत्यंत दीन हीन है पर फिर भी इसकी
आध्यात्मिक वसीयत इतनी समृद्ध है कि अगर तुम अपनी आंखें खोलकर उसे देख सको
तो बहुत आश्चर्यचकित हो जाओगी। शायद यही एकमात्र मुल्क है जो बड़ी गहनता से
चैतन्य के विकास में संलग्न रहा, किसी और चीज में नहीं। दूसरे सभी मुल्क और
हजारों चीजों में व्यस्त रहे। लेकिन इस मुल्क का एक ही लक्ष्य, एक ही
उद्देश्य रहा कि कैसे मनुष्य की चेतना उस बिंदु तक उठ सके, जहां भगवत्ता से
मिलन हो। कैसे भगवत्ता और मनुष्य करीब आएं!
और यह किसी इक्के दुक्के आदमी की नहीं, करोड़ों करोड़ों व्यक्तियों के
जीवन की बात है। कोई एक दिन, महीना, या साल का सवाल नहीं, सहस्रों वर्षों
की सतत् साधना है। स्वभावत: इस देश में सब ओर एक अत्यंत ऊर्जामय क्षेत्र
निर्मित हो गया है, वह पूरी जगह पर छाया है। तुम्हें सिर्फ तैयार
(संवेदनशील) होना है।
यह संयोग मात्र ही नहीं है कि जब भी कोई सत्य के लिए प्यासा होता है,
अनायास ही वह भारत में उत्सुक हो उठता है, अचानक वह पूरब की यात्रा पर निकल
पड़ता है। और यह केवल आज की ही बात नहीं है। यह उतनी ही प्राचीन बात है
जितने पुराने प्रमाण और उल्लेख मौजूद हैं। आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व,
सत्य की खोज में पाइथागोरस भारत आया था। ईसामसीह भी भारत आए थे। ईसामसीह की
तेरह से तीस वर्ष की उम्र के बीच का बाइबिल में कोई उल्लेख नहीं है। और
यही उनकी लगभग पूरी जिंदगी थी, क्योंकि तैंतीस की उम्र में तो उन्हें सूली
पर ही चढ़ा दिया गया था। तेरह से तीस तक के सत्रह सालों का हिसाब गायब है!
इतने समय वे कहां रहे, और बाइबिल में उन सालों को क्यों नहीं रिकार्ड किया
गया? उन्हें जान बूझकर छोड़ा गया है, कि वह एक मौलिक धर्म नहीं है, कि
ईसामसीह जो भी कह रहे हैं वे उसे भारत से लाए हैं।
यह बहुत ही विचारणीय बात है। वे एक यहूदी की तरह जन्मे, यहूदी की तरह
जिए, और यहूदी की तरह मरे। स्मरण रहे कि वे ईसाई नहीं थे, उन्होंने तो—ईसा’
और ‘ईसाई’ ये शब्द भी नहीं सुने थे। फिर क्यों उनके इतने खिलाफ थे? यह
सोचने जैसी बात है, आखिर क्यों? न तो ईसाईयों के पास इस सवाल का ठीक—ठीक
जवाब है, न ही यहूदियों के पास। क्योंकि इस व्यक्ति ने किसी को कोई नुकसान
नहीं पहुंचाया। वे उतने ही निर्दोष थे, जितनी कि कल्पना की जा सकती है।
…..पर उनका अपराध बहुत सूक्ष्म था। पढे लिखे यहूदियों और चतुर रबाईयों
ने स्पष्ट देख लिया कि वे पूरब से विचार ला रहे हैं, जो कि गैर यहूदी हैं।
वे कुछ अजीबोगरीब और विजातीय बातें ला रहे हैं। और यदि इस दृष्टिकोण से
देखो तो तुम्हें समझ आएगा कि क्यों वे बार बार कहते हैं ” अतीत के
पैगम्बरों ने तुमसे कहां था कि यदि कोई तुम पर क्रोध करे, हिंसा करे, तो
आंख के बदले में आंख लेने और ईंट का जवाब पत्थर से देने को तैयार रहना।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्हें चोट पहुंचाता है, एक गाल पर
चांटा मारता है, तो उसे अपना दूसरा गाल भी दिखा देना।’’ यह पूर्णत:
गैर यहूदी बात है। उन्होंने ये बातें गौतम बुद्ध और महावीर की देशनाओं से
सीखी थीं।
वे जब भारत आए थे तब बौद्ध धर्म बहुत जीवंत था, यद्यपि बुद्ध की मृत्यु
हो चुकी थी। गौतम बुद्ध के पांच सौ साल बाद जीसस यहां आए, पर ने इतना विराट
आंदोलन, इतना बड़ा तूफान खड़ा किया था कि तब तक भी पूरा मुल्क उसमें डूबा
हूआ था: उनकी करुणा, क्षमा, और प्रेम के उपदेशों को पिए हुआ था। जीसस कहते
हैं कि ”अतीत के पैगम्बरों द्वारा यह कहां गया था” कौन, हैं ये पुराने
पैगम्बर? वे सभी प्राचीन यहूदी पैगम्बर हैं : इजेकिएल, इलिजाह, मोसेस,
”कि ईश्वर बहुत ही हिंसक है, और वह कभी क्षमा नहीं करता!? ”
यहां तक कि उन्होंने ईश्वर के मुंह से भी ये शब्द कहलवा दिए हैं। पुराने
टेस्टामेंट के ईश्वर के वचन हैं, ”मैं कोई सज्जन पुरुष नहीं चाचा नहीं।
मैं क्रोधी और ईर्ष्यालु और याद रहे जो भी मेरे साथ नहीं हैं, वे सब मेरे
शत्रु हैं।’’
और ईसामसीह कहते है कि ‘’मैं तुमसे कहता हूं : परमात्मा प्रेम है।’’ यह
खयाल उन्हें कहां से आया कि परमात्मा प्रेम है? गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के
सिवाय दुनिया में कहीं भी परमात्मा को प्रेम कहने का कोई और उल्लेख नहीं
है।
उन सत्रह वर्षों में जीसस इजिप्त, भारत, लद्दाख, और तिब्बत की यात्रा
करते रहे। और यही उनका अपराध था कि वे यहूदी परम्परा में बिलकुल अपरिचित और
अजनबी विचारधाराएं ला रहे थे। न केवल अपरिचित बल्कि वे बातें यहूदी
धारणाओं से एकदम विपरीत थीं।
रजनीश उपनिषद
ओशो
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