मनुष्य द्विमुखी है पशु और देवता दोनों है। पशु उसका अतीत है और
देवता उसका भविष्य। और इससे ही कठिनाई पैदा होती है। अतीत बीत चुका है, वह
है नहीं, उसकी स्मृति भर शेष है। और भविष्य अभी भी भविष्य है, वह आया नहीं
है, वह एक स्वप्न भर है, एक संभावना मात्र है। और इन दोनों के बीच मनुष्य
है।
मुझे एक कहानी याद आती है। एक स्पोर्ट्स कार का उत्साही चालक ईसाइयों के
स्वर्ग द्वार पर, पर्ली गेट पर पहुंचा। संत पीटर ने उसका स्वागत किया। वह
अपनी जगुआर कार के साथ पहुंचा था और संत पीटर से उसने पहला ही प्रश्न पूछा :
‘आपके स्वर्ग में सुंदर राजपथ तो हैं न?’
संत पीटर ने कहा. ‘हां, यहां राजपथ तो हैं और सर्वश्रेष्ठ राजपथ हैं,
लेकिन एक कठिनाई है। कठिनाई यह है कि स्वर्ग में कार चलाना मना है।’
उस तीव्र गति के शौकीन चालक ने कहा : ‘तब यह जगह मेरे लिए नहीं है। कृपा
करके मुझे दूसरी जगह भिजवाने की व्यवस्था कर दें, मैं नरक जाना पसंद
करूंगा। मैं अपनी जगुआर से अलग नहीं हो सकता।’
ऐसा ही हुआ। वह नरक पहुंचा। और शैतान ने वहां उसका स्वागत करते हुए कहा
कि मुझे तुमसे मिल कर प्रसन्नता हुई। उसने कहा. ‘तुम तो मेरे जैसे ही हो,
मैं भी जगुआर का आशिक हूं।’
उस गति के प्रेमी ने कहा : ‘बहुत खूब! कृपया मुझे अपने राजपथों का
नक्शा दीजिए।’ यह सुनकर शैतान उदास हो गया। उसने कहा : ‘महाशय, यहां कोई
राजपथ नहीं हैं, यही तो नरक पीड़ा है।’
मनुष्य की स्थिति यही है। मनुष्य दोहरा है, दो में बंटा है। अगर एक
हिस्से के लिए तुम कुछ करोगे तो वही तुम्हारे दूसरे हिस्से के लिए अतृप्ति
का कारण हो जाएगा। और अगर तुम अन्यथा करोगे तो दूसरा हिस्सा अतृप्त अनुभव
करेगा। कुछ न कुछ अभाव सदा ही बना रहता है। और तुम दोनों को संतुष्ट नहीं
कर सकते, क्योंकि वे एक दूसरे के विपरीत हैं।
लेकिन हरेक आदमी इसी असंभव प्रयास में लगा है। वह कहीं समझौता करना
चाहता है जहां स्वर्ग और नरक दोनों मिलें, शरीर और आत्मा दोनों संतुष्ट
हों, जहां शिखर और घाटी, अतीत और भविष्य कहीं मिलें और एक समझौते पर
पहुंचें। और यह प्रयास हम अनेक जन्मों से कर रहे हैं। लेकिन यह संभव नहीं
हुआ और न संभव होने वाला है। पूरा प्रयास व्यर्थ है, असंभव है।
ये विधियां तुम्हारे भीतर कोई समझौता निर्मित करने के लिए नहीं हैं। ये
विधियां तुम्हारे अतिक्रमण के लिए हैं। ये विधियां पशु के विरुद्ध परमात्मा
को संतुष्ट करने के लिए नहीं हैं। वह असंभव है। उससे तुम्हारे भीतर और भी
ज्यादा उपद्रव पैदा होगा, और भी ज्यादा संघर्ष और हिंसा पैदा होगी। ये
विधियां परमात्मा के विरुद्ध तुम्हारे पशु को संतुष्ट करने के लिए भी नहीं
हैं। ये विधियां द्वैत के अतिक्रमण के लिए हैं। वे न पशु के पक्ष में हैं
और न परमात्मा के पक्ष में।
स्मरण रहे, तंत्र और अन्य धर्मों में यही बुनियादी भेद है। तंत्र कोई
धर्म नहीं है। क्योंकि धर्म का बुनियादी अर्थ है कि वह पशु के विरुद्ध
परमात्मा के पक्ष में है। इसलिए हरेक धर्म द्वंद्व का, संघर्ष का हिस्सा
है। तंत्र संघर्ष की विधि नहीं है, यह अतिक्रमण की विधि है। तंत्र पशु से
लड़ता नहीं है; यह परमात्मा के पक्ष में नहीं है। तंत्र समस्त द्वैत के पार
है। वह वस्तुत: न किसी के पक्ष में है और न विरोध में है। वह सिर्फ
तुम्हारे भीतर तीसरी शक्ति का निर्माण कर रहा है, अस्तित्व के तीसरे केंद्र
का निर्माण कर रहा है, जहां तुम न पशु हो और न परमात्मा। तंत्र के लिए यह
तीसरा बिंदु अद्वैत है।
तंत्र कहता है कि तुम द्वैत से लड़कर अद्वैत को नहीं उपलब्ध हो सकते हो।
तुम किसी एक पक्ष को चुनकर अद्वैत को नहीं प्राप्त हो सकते हो। तुम विकल्प
से, चुनाव से एक पर नहीं पहुंच सकते, उसके लिए निर्विकल्प साक्षी भाव
आवश्यक है, चुनाव रहित बोध मूलभूत है।
तंत्र के लिए यह बात बहुत बुनियादी है। और यही कारण है कि तंत्र को कभी
ठीक ठीक नहीं समझा गया। सदियों सदियों तक इसे लंबी नासमझी का शिकार होना
पड़ा है। क्योंकि जब तंत्र यह कहता है कि वह पशु के विरोध में नहीं है, तो
तुम तुरंत समझने लगते हो कि तंत्र पशु के पक्ष में है। और जब तंत्र कहता है
कि वह परमात्मा के पक्ष में नहीं है, तो तुम फिर सोचने लगते हो कि वह
परमात्मा के विरोध में है।
सचाई यह है कि तंत्र चुनाव रहित दर्शन है। न पशु के पक्ष में होओ और न
परमात्मा के पक्ष में होओ कोई द्वंद्व मत पैदा करो। थोड़ा पीछे हटो, जरा दूर
सरको, अपने और इस द्वैत के बीच अंतराल पैदा करो, थोड़ी दूरी बनाओ। तुम इन
दोनों के पार एक तीसरी शक्ति बन जाओ, साक्षी बन जाओ, जहां से तुम पशु और
परमात्मा दोनों को देख सकते हो।
मैंने तुम्हें कहा कि पशु अतीत है और परमात्मा भविष्य, और अतीत और
भविष्य एक दूसरे के विरोधी हैं। तंत्र वर्तमान में है। वह न अतीत है और न
भविष्य; वह अभी और यहीं है। इसलिए न अतीत से बंधे रहो और न भविष्य के पीछे
दौड़ो। भविष्य की कामना मत करो और अतीत से बंधे हुए मत रहो। अतीत को ढोओ मत
और भविष्य के लिए कोई प्रक्षेपण मत करो। इसी वर्तमान क्षण के प्रति
निष्ठावान रहो, ईमानदार रहो, और तुम अतिक्रमण कर जाओगे। तब तुम न पशु हो और
न परमात्मा।
तंत्र के लिए ऐसा होना, अतिक्रमण में होना, परमात्मा होना है। ऐसा होना,
वर्तमान क्षण की तथाता में होना, जहां अतीत छूट चुका है और भविष्य का
प्रक्षेपण नहीं है, तुम स्वतंत्र हो, तुम स्वतंत्रता हो।
इस अर्थ में ये विधियां धार्मिक नहीं हैं, क्योंकि धर्म सदा पशु के
विरोध में है। धर्म द्वंद्व निर्मित करता है। अगर तुम सचमुच धार्मिक हो तो
तुम खंडित हो जाओगे, स्कीजोफ्रेनिक हो जाओगे। सब धार्मिक सभ्यताएं खंडित
सभ्यताएं हैं। वे मानसिक रुग्णता पैदा करती हैं, क्योंकि वे आंतरिक विभाजन
पैदा करती हैं। वे तुम्हें दो में तोड़ देती हैं और तुम्हारा ही एक हिस्सा
तुम्हारा शत्रु बन जाता है। और तब तुम्हारी सारी ऊर्जा अपने से ही लड़ने में
नष्ट होती है। इस अर्थ में तंत्र धार्मिक नहीं है, क्योंकि तंत्र किसी
द्वंद्व में, किसी संघर्ष में, किसी हिंसा में विश्वास नहीं करता है।
और तंत्र कहता है कि स्वयं से लड़ो मत, सिर्फ बोधपूर्ण होओ, अपने प्रति
कठोर और हिंसक मत होओ। बस साक्षी होओ, द्रष्टा होओ। जब तुम साक्षी हो तो
तुम दो में से कोई भी नहीं हो; तब दोनों चेहरे विलीन हो जाते हैं। साक्षी
होने के क्षण में तुम मनुष्य नहीं हो; तुम बस हो। तुम किसी विशेषण के बिना
हो। तुम नाम रूप के बिना हो। तुम किसी कोटि के बिना हो। तुम कोई व्यक्ति
विशेष हुए बिना हो। बस शुद्ध होना है। ये विधियां उसी निर्दोष अस्तित्व की
उपलब्धि की विधियां हैं।
तंत्र सूत्र
ओशो
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