भगवान, प्रश्न मैं हूं। अपनी सारी कमजोरियों,
सारी बीमारियों, सभी सीमाओं सहित। यानी जैसा अब मैं हूं, फिलहाल एक प्रश्न
हूं। जवाब निस्संदेह आप हैं। फिर यह प्रश्न गिर क्यों नहीं जाता, मिट क्यों
नहीं जाता? मर्ज हूं मैं, दवा हैं आप, फिर भी मर्ज ज्यों का त्यों
है, उल्टे बढ़ता जाता है।
रणवीर, प्रश्न तुम हो, जवाब मैं हूं, तो प्रश्न हल कैसे होगा?
प्रश्न तुम हो तो जवाब भी तुम्हें ही होना पड़ेगा। जवाब मैं हूं, तो मेरा
प्रश्न हल हो गया। जहां समस्या है, वहीं समाधान चाहिए। समस्या एक जगह,
समाधान दूसरी जगह है दोनों का मिलन ही न होगा।
यही तो अड़चन है सदियों की।
तुम प्रश्न हो, कृष्ण उत्तर हैं। तुम प्रश्न हो, क्राइस्ट उतर हैं। तुम
प्रश्न हो, मुहम्मद उत्तर हैं। रहे आएं मुहम्मद, कृष्ण और क्राइस्ट उत्तर,
क्या होगा? सवाल है तुम्हारा। जहां प्रश्न है, वहीं खुदाई करो। हर प्रश्न
के भीतर उत्तर छिपा है। हर समस्या की तलहटी में खोदोगे, समाधान पाओगे। अगर
तुमने मुझे उत्तर माना, तो उलझन शुरू हुई। मेरा उत्तर तुम्हारे लिए
ज्यादा से ज्यादा विश्वास होगा, ज्ञान नहीं हो सकता। मेरा उत्तर तुम्हारे
भरोसे पर निर्भर होगा, तुम्हारी प्रतीति और साक्षात्कार पर नहीं। तुम मुझ
पर श्रद्धा कर सकते हो, मगर श्रद्धा ऊपर—ऊपर ही होगी। तुम्हारे प्राणों में
तो कहीं संदेह बना ही रहेगा। इसलिए बीमारी घटेगी नहीं। और जैसे—जैसे तुम
दवा करोगे, मर्ज बढ़ेगा। क्योंकि पहली बीमारी थी, वह तो रहेगी ही, अब मेरे
उत्तरों को तुम जो पकड़ोगे उनसे नई बीमारियां पैदा होंगी। पहला प्रश्न तो
अपनी जगह है, मेरा उत्तर और नए दस प्रश्न खड़े करेगा, इससे बीमारी बढ़ेगी।
नहीं, यह कोई सुलझने सुलझाने का रास्ता नहीं है। तुम अपने ही भीतर जाओ, आत्मदर्शन करो, अपना साक्षात्कार करो।
चलो सही कि तुम प्रश्न हो। परमात्मा प्रत्येक को प्रश्न की तरह ही जन्म
देता है, और आशा रखता है कि तुम उत्तर की तरह मरोगे। प्रश्न की तरह भेजता
है, उत्तर की तरह चाहता है कि तुम वापिस लौटो। जगत एक अनुभव, एक पाठशाला,
जहां प्रश्न उत्तर बनते हैं। एक कसौटी, जहां कसा जाता है जीवन अनुभव में,
जहां पकता है जीवन अनुभव में। लेकिन हम हैं सब कमजोर, कायर। हम उधार उत्तर
स्वीकार कर लेते हैं। कौन खोजे? कौन खोज की झंझट में पड़े?
खोजना त्तलाशना जिज्ञासा तो लंबी यात्रा है। और खतरों से भरी। और हजार
अड़चनों को पार करना होगा। लेकिन किसी और का उत्तर स्वीकार कर लेना तो बड़ा
सस्ता है। तुम्हें कुछ करना ही नहीं पड़ता। लेकिन अगर मेरे श्वास लेने से
तुम्हें श्वास नहीं मिलती, तो मेरे समाधान होने से तुम्हारा समाधान नहीं
होगा। अगर मेरा जीवन तुम्हारा जीवन नहीं बन सकता, अगर तुम लंगड़े हो तो मेरे
पैर तुम्हारे पैर नहीं बनते, और अगर तुम अंधे हो तो मेरी आंखों से तुम देख
न सकोगे, तुम्हें तुम्हारी आंखों की चिकित्सा करवानी ही होगी।
मैं तुम्हें उतर नहीं दे रहा हूं। ज्ञान देने में मेरी जरा भी उत्सुकता
नहीं है। मैं चाहता हूं, या तो तुम ध्यान लो, या भक्ति लो। ध्यान लो या
भक्ति, दोनों ही स्थिति में तुम्हें स्वयं ही समाधान बनना होगा। और जिस दिन
कोई स्वयं समाधान बनता है, उस दिन कैसे प्रश्न? सारे प्रश्न गिर जाते हैं।
जैसे दीया जले और अंधकार समाप्त हो जाए। ऐसी तुम्हारे भीतर की रोशनी जलनी
चाहिए।
सारे प्रश्न सुंदर हैं। क्योंकि प्रश्न न होते तो जिज्ञासा न होगी।
जिज्ञासा न होती तो तुम खोज पर न निकलते। लेकिन तुम कर लेते हो बेईमानी।
प्रश्न तो सच्चे हैं, उत्तर उधार ले लेते हो। इससे पांडित्य पैदा भले हो
जाए, मगर जीवन में समाधान नहीं हो सकता। समाधान तो केवल समाधि से होता है।
और समाधि का अर्थ है: स्वयं के भीतर एक ऐसे चैतन्य की दशा, जहां न कोई
विचार है, न कोई भाव है, न कोई स्मृति, न कोई कल्पनाजहां चित्त की सारी
लहरें शांत हो गईं; जहां चित्त के सारे व्यापार निरोध को उपलब्ध हो गए:
चित्त वृत्ति निरोध: बस वह योग की दशा है। जहां झील चित्त की बिलकुल ही
तरंग शून्य हो गई। उस तरंग शून्य झील में चांद का प्रतिबिंब बन जाता है।
ऐसे ही तुम्हारी चेतना की शांत शून्य अवस्था में परमात्मा का साक्षात्कार
हो जाता है। सत्य का साक्षात्कार ज्ञान है।
मेरा ज्ञान तुम्हारे लिए ज्ञान नहीं है। मेरा सत्य तुम्हारे लिए तो झूठ
हो जाएगा। उधार सत्य झूठ हो जाते हैं। अगर उधार सत्य सत्य हो सकते होते, तो
एक बुद्ध ने पा लिया था, सब बुद्ध हो गए होते। एक कबीर ने पा लिया, सब
ज्ञान को उपलब्ध हो जाते। एक नानक ने पा लिया, अब सबको पाने की क्या जरूरत
होती?
यही भेद है विज्ञान और धर्म का।
विज्ञान में एक व्यक्ति उत्तर पा लेता है, वही उत्तर सबका उत्तर हो जाता
है। क्यों? क्योंकि विज्ञान बाहर की खोज है। जो बाहर है, उसे सब देख सकते
हैं। अगर हम एक गुलाब के फूल को रख दें लाकर, तो तुम सबको दिखाई पड़ेगा।
पदार्थ है, विषय है। विज्ञान पदार्थगत है। इसलिए न्यूटन कुछ खोज ले, एडीसन
कुछ खोज ले, कि अलबर्ट आइंस्टीन कुछ खोज ले, फिर हर आदमी को बार बार नहीं
खोजना पड़ेगा। आइंस्टीन ने खोज लिया सापेक्षता का सिद्धांत, अब सबका हो गया।
अब तुम्हें भी उसी खोज से गुजरने की जरूरत न रही।
विज्ञान वस्तुगत है। वस्तुएं बाहर हैं। बाहर का ज्ञान सार्वजनिक हो जाता
है। बाहर के ज्ञान की परंपरा बनती है। उसे लिया दिया जा सकता है;
स्कूल कालेज विश्वविद्यालय में पढ़ाया जा सकता है; शास्त्र से समझा जा सकता
है, शब्द में अभिव्यक्त हो जाता है।
लेकिन धर्म है भीतर की अनुभूति। गुलाब के फूल को तो मैं रख सकता हूं
तुम्हारे सामने, सबको दिखाई पड़ेगा, लेकिन गुलाब के फूल में जो सौंदर्य मुझे
दिखाई पड़ रहा है, उसे मैं तुम्हें कैसे दिखलाऊं? गुलाब के फूल में जो
काव्य मुझे अनुभव हो रहा है, उसे कैसे तुम्हें अनुभव करवाऊं? गुलाब के फूल
में जो परमात्मा मेरे लिए प्रगट हो रहा है, कैसे तुमसे उसकी मुलाकात
करवाऊं? अगर कहूं कि परमात्मा मौजूद है, देखो! कि यह रंग, कि यह ढंग, कि यह
गंध, कि यह सौंदर्य परमात्मा का है, तो तुम कंधे बिचकाओगे। तुम कहोगे,
गुलाब के फूल तक तो बात ठीक है, आगे हमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता; हम कोई
परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता।
और ऐसा भी हो सकता है कि जो बहुत ही पदार्थगत है, वह तो पूछे कि
सौंदर्य? सौंदर्य कहां है? फूल है, यह समझ में आता है, मगर सौंदर्य कहां
है? दिखाओ। परीक्षण हो सके, इस ढंग से दिखाओ। प्रयोग हो सके, इस ढंग से
दिखाओ। सौंदर्य भी दिखलाया जा नहीं सकता। और जिस काव्य की मैं बात कर रहा
हूं, उस काव्य को तो तुम भी जिस दिन जान सकोगे, अनुभव कर सकोगे, बस उसी दिन
जान सकोगे, अनुभव कर सकोगे। हां, मेरी बात चाहो तो मान लो।
और अक्सर यही हुआ।
मुझसे तुम्हें प्रेम है, मुझसे तुम्हें लगाव है, तो मैं जो कहूंगा,
प्रेम की छाया में तुम उसे अंगीकार कर लोगे, तुम उसे स्वीकार कर लोगे।
लेकिन यह स्वीकृति तुम्हारे जीवन को रूपांतरित नहीं कर सकती है। यह
स्वीकृति बाधा बन जाएगी। मुझसे तो प्रेम करो, लेकिन मैं जो कहता हूं उसकी
तलाश करनी होगी। मेरा प्रेम तुम्हें, खोजी बना सके, तो ही तुमने मुझे प्रेम
किया। मेरा प्रेम तुम्हें विश्वासी बना दे, तो फिर तुम हिंदू, मुसलमान,
ईसाई जैसे ही एक और नए ढंग के विश्वासी हो गए! फिर मैं जिस नयी धार्मिकता
की बात कर रहा हूं, वह पैदा न हुई। फिर तुम्हें एक नया संप्रदाय और मिल
गया। पुराने कारागृह से छूटे, एक नया कारागृह मिल गया। और पुराने से तो तुम
छूटना चाहते थे, ऊब गए थे रहते रहते, नए से शायद तुम छूटना भी न चाहो।
शायद नया प्रीतिकर लगे। पुराना तो मां बाप ने दे दिया था, नया तुमने खुद
चुना है। इसलिए पुराने में तुम्हारा अहंकार उतना जुड़ा नहीं था, जितना नए
में तुम्हारा अहंकार जुड़ेगा। अपना चुनाव है। स्वभावतः तुम नए से ज्यादा जकड़
जाओगे। पुरानी जंजीरें तो तोड़ी जा सकती हैं, क्षीण हो जाती हैं समय के
कारण, लेकिन नई जंजीरें तो मजबूत होती हैं, अभी अभी ढल के आती हैं कारखाने
से, अभी तो बहुत मजबूत होती हैं।
मेरे प्रेम में अगर तुमने मेरी बातें मान लीं, तो वे बातें केवल जंजीरें
बनेंगी और नई जंजीरें पुरानी जंजीरों से भी ज्यादा खतरनाक हैं। मेरा
प्रेम तो सिर्फ चांद की तरफ अंगुली का इशारा है। अंगुली मत पकड़ लेना।
झेन फकीर रिंझाई कहा करता था: मेरी अंगुली मत चाटो, मेरी अंगुली मत
काटो, चांद की तरफ देखो। डोंट बाइट माय फिंगर, लुक ऐट द मून। लेकिन लोग
अंगुली चूसना ज्यादा पसंद करते हैं। जैसे छोटे बच्चे अंगुली चूसते हैं, ऐसे
ही बड़े बच्चे…धर्म के जगत में तो छोटे ही हैं, वहां तो बच्चे ही हैं। धर्म
के जगत में तो तुम अभी अपने झूले में ही झूल रहे हो। धर्म के जगत में तो
तुम्हारी स्थिति वही है, जो छोटे बच्चे की जिसको लोरी सुनाई जा रही है;
जिसे नींद की व्यवस्था की जा रही है कि जो किसी तरह सो जाए। छोटे बच्चे को
सुलाने का आयोजन किया जा रहा है।
एक महिला का बच्चा रो रहा था, आधी रात। घर में कोई मेहमान ठहरा था, उसने
कहा कि आप लोरी गाकर बच्चे को सुला क्यों नहीं देतीं? उस महिला ने कहा कि
लोरी गाने पर मेरे पड़ोस के लोग ऐतराज करते हैं। अतिथि ने कहा, मैं कुछ समझा
नहीं। उस महिला ने कहा, पड़ोस के लोग कहते हैं, तुम्हारी लोरी से तो
तुम्हारे बच्चे का रोना ही अच्छा लगता है।
लोरियां सुला दें छोटे बच्चों को, लेकिन बड़ों को तो जगाने का कारण बन
जाएं, उनको तो नींद तोड़ दे। धर्म के जगत में अभी तुम छोटे बच्चों की तरह
हो। तुम लोरी ही चाहते हो। तुम्हारे गीता, तुम्हारे कुरान, तुम्हारे वेद और
क्या हैं? तुमने उन्हें लोरियों में बदल लिया है। तुम उनको गाते हो और सो
जाते हो। तुम गुनगुनाते हो और सो जाते हो। नींद की शामक दवाएं हो गईं। और
मुफ्त और सस्ती। और अहंकार को भी बड़ा तृप्त करने वाली, क्योंकि धार्मिक भी।
परंपरा से आदृत भी।
मैं तुम्हें कोई लोरी नहीं दे रहा हूं। मैं तुम्हें जगाना चाहता हूं।
चाहे अप्रीतिकर ही क्यों न लगे। छोटा बच्चा अंगुली चूसने लगता है, वह भी
उसके सोने का ढंग है। अंगुली से वह अपने को धोखा देता है, लोरी से उसकी मां
उसको धोखा देती है। मां कहती है: सो जा, बेटा! मुन्ना, राजा, सो जा बेटा!
बार—बार दोहराती है: मुन्ना, राजा, सो जा बेटा! अब तुम बार बार किसी से भी
दोहराओ, बहुत ज्यादा दोहराओ: सो जा बेटा, सो जा बेटा, तो बच्चा क्या बेटे
का बाप भी सो जाए! उसकी खोपड़ी पर अगर यही बजाते रहो कि सो जा बेटा, सो जा
बेटा, तो करे भी क्या! भाग सके नहीं, भागकर अब जाए कहां, तो नींद ही भागने
का एक उपाय है।
बच्चे क्यों सो जाते हैं बार बार तुम्हारी बकवास सुनकर? और कहां जाएं?
मां बैठी है छाती पर हाथ रखे, और दोहराए चली जा रही है: सो जा बेटा! पहले
बेटा थोड़ा कुनमुनाता है, करवट बदलता है, भाग भी सकता नहीं, इस अंधेरी रात
में अब जाए तो जाए भी कहां, फिर एक ही भागने का उपाय बचता है कि नींद में
भाग जाए। किसी तरह यह बकवास सुनना बंद हो! तो सो जाता है।
इसी तरह तुम दोहरा रहे हो लोरियां। अगर मां दोहराने को न मिले, तो बच्चा
अपना अंगूठा चूसता है, अंगुली चूसता है। उससे भ्रम देता है मां के स्तन
का। खुद को भी धोखा दे लेता है।
ऐसे ही धर्म के जगत में बड़े बच्चे हैं। वह शास्त्रों की अंगुलियां चूसने
लगते हैं, सदगुरुओं की अंगुलियां चूसने लगते हैं। सोचते हैं पोषण मिल रहा
है। यह पोषण नहीं है, जहर है। अंगुलियां चूसने के लिए नहीं हैं। मेरी
अंगुली चांद की तरफ इशारा कर रही है। रणवीर, मेरी बातों को पकड़ो मत! अन्यथा
ज्यों—ज्यों दवा करोगे, त्यों त्यों मरीज हो जाओगे, त्यों त्यों बीमारी
बढ़ेगी। मेरा इशारा समझो। मैं क्या कह रहा हूं, उसको दोहराओ मत, उसको
बौद्धिक संपदा मत बनाओ, मैं क्या कह रहा हूं, उसे जीवन का आचरण बनाओ, उसे
अंतस की रूपांतरण की प्रक्रिया बनाओ; उससे गुजरो। मैं रसायन सिखा रहा हूं।
यहां कोई दर्शनशास्त्र नहीं पढ़ाया जा रहा है। जीवन को बदलने की रसायन दी जा
रही है।
तुम कहते हो, प्रश्न मैं हूं। अपनी सारी कमजोरियों, सारी बीमारियों और
सभी सीमाओं सहित। यानी जैसा अब मैं हूं, फिलहाल एक प्रश्न हूं। जवाब
निस्संदेह आप हैं। फिर यह प्रश्न गिर क्यों नहीं जाता, मिट क्यों नहीं
जाता? ऐसे नहीं गिरेगा। ऐसे नहीं मिटेगा। उत्तर भी तुम्हें ही बनना पड़ेगा,
तो गिरेगा। अंधेरा तुम हो, रोशनी भी तुम्हें ही होना होगा। भटके तुम हो,
राह पर भी तुम्हें ही आना होगा। आंखें तुमने बंद की हैं, मेरी आंखें खुली
हैं, मगर मेरी खुली आंखें तुम्हारी बंद आंखों से क्या संबंध? तुम मुझे मान
भी लो, मुझे आदर भी दो, सम्मान भी दो, तुम कहो कि मेरे गुरु की आंखें खुली
हैं तो गुरु की आंखें खुली हैं; फिर भी तुम्हारी आंखें बंद हैं सो बंद
हैं। काम तुम्हारी आंखें पड़ेंगी।
अपने दीए खुद बनो।
सदगुरु यही सिखाता है:
अपने दीए खुद बनो।
अप्प दीपो भवः
सपना यह संसार
ओशो
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