एक बार ऐसा हुआ कि शैतान वर्षों वर्षों प्रतीक्षा करता रहा और एक आदमी
भी नरक नहीं आया। वह स्वागत के लिए तैयार था, लेकिन संसार इतने ढंग से चल
रहा था और लोग इतने नेक थे कि कोई आदमी नरक नहीं आया। स्वभावत:, शैतान बहुत
चिंतित हो उठा। उसने एक विशेष सभा बुलाई; उसके सर्वश्रेष्ठ शिष्य इस
स्थिति पर विचार करने के लिए इकट्ठे हुए। नरक बहुत बड़े संकट से गुजर रहा था
और यह बात बरदाश्त नहीं की जा सकती थी। कुछ करना जरूरी था। तो उसने सलाह
मांगी ‘हमें क्या करना चाहिए?’
एक शिष्य ने सुझाव दिया ‘मैं पृथ्वी पर जाऊंगा और लोगों से बातें
करूंगा, उन्हें समझाने की कोशिश करूंगा कि कोई ईश्वर नहीं है और सभी घर्म
झूठे है और बाइबिल, कुरान और वेद जो भी कहते हैं वह सब बकवास है।’
शैतान ने कहा. ‘इससे कुछ हल नहीं होगा, क्योंकि यह तो हम शुरू से ही
करते आ रहे हैं और इससे लोग बहुत प्रभावित नहीं हुए। ऐसी शिक्षा से तुम
सिर्फ उन्हें ही समझा सकते हो जो समझे ही हुए हैं। यह उपाय किसी काम का
नहीं है, यह बहुत काम का नहीं है।’
तब दूसरे शिष्य ने, जो पहले से ज्यादा कुशल था, कहा: ‘मैं जाऊंगा और
लोगों को यह सिखाने की, समझाने की कोशिश करूंगा कि बाइबिल, कुरान और वेद जो
भी कहते हैं वह सही है। स्वर्ग है, परमात्मा भी है। लेकिन कोई शैतान नहीं
है, इसलिए तुम्हें डरने की जरूरत नहीं है। और अगर हम उन्हें कम भयभीत बना
सके तो वे धर्म की बिलकुल फिक्र नहीं करेंगे; क्योंकि सभी धर्म भय पर खड़े
हैं।’
शैतान ने कहा. ‘तुम्हारा प्रस्ताव थोड़ा बेहतर है। तुम थोड़े से लोगों को
समझाने में सफल हो सकते हो, लेकिन बहुसंख्यक लोग तुम्हारी नहीं सुनेंगे। वे
नरक से उतने भयभीत नहीं हैं जितने वे स्वर्ग में प्रवेश पाने की कामना से
भरे हुए हैं। यदि तुमने उन्हें समझा भी लिया कि नरक नहीं है, तो भी वे
स्वर्ग की कामना करेंगे और उसके लिए वे नेक बनने की चेष्टा करेंगे।’
तब तीसरा शिष्य, जो सबसे बुद्धिमान था, बोला ‘मेरा एक सुझाव है, मुझे
उसे प्रयोग करने का मौका दें। मैं जाऊंगा और कहूंगा कि धर्म जो भी कहता है
वह बिलकुल सच है, ईश्वर भी है और स्वर्ग भी है और नरक भी है, लेकिन कोई
जल्दी नहीं है।’
और शैतान ने कहा : ‘बिलकुल ठीक, तुम्हारे पास सही उपाय है। तुम जाओ।’
और कहा जाता है कि तब से फिर कभी नरक में कोई संकट पैदा नहीं हुआ। बल्कि वे अति भीड़ भाड़ की समस्या से परेशान हैं।
हमारा मन भी इसी भांति काम करता है। हम सदा सोचते हैं कि कोई जल्दी नहीं
है। और ये विधियां जिनकी हम चर्चा कर रहे हैं, किसी काम की न होंगी, यदि
तुम्हारा मन कहता है कि कोई जल्दी नहीं है। तब तुम स्थगित करते रहोगे और
मृत्यु पहले पहुंच जाएगी और वह दिन नहीं आएगा जब तुम सोचो कि जल्दी करनी
है, कि अब समय आ गया है। तुम निरंतर स्थगित करते रह सकते हो। यही हम अपने
जीवन के साथ कर रहे हैं।
तुम्हें कुछ करने की दिशा में निर्णायक होना है। तुम संकट में हो घर जल
रहा है। जीवन सदा जल रहा है, क्योंकि मृत्यु सदा पीछे छिपी है। किसी भी
क्षण तुम नहीं हो सकते हो। और तुम मृत्यु के साथ तर्क—वितर्क नहीं कर सकते;
तुम कुछ नहीं कर सकते। जब मृत्यु आती है, आ जाती है। समय बहुत कम है। अगर
तुम सत्तर साल जीओगे, या सौ साल जीओगे, तो भी समय बहुत कम है। और तुम्हें
रूपांतरित होने के लिए, आमूल क्रांति से गुजरने के लिए अपने ऊपर जो काम
करना है, वह बहुत बड़ा है। इसलिए स्थगित मत करते रहो।
जब तक तुम्हें आपातस्थिति का, गहन संकट का बोध नहीं होगा, तुम कुछ नहीं
करोगे। जब तक धर्म तुम्हारे लिए जीवनमरण का प्रश्न न बन जाए, जब तक
तुम्हें ऐसा न लगने लगे कि रूपांतरण के बिना मेरा सारा जीवन व्यर्थ है, तब
तक कुछ नहीं होगा, तुम व्यर्थ ही जीओगे। जब तुम इस बात को बहुत तीव्रता से,
बहुत गंभीरता से और बहुत ईमानदारी से अनुभव करोगे तो ही ये विधियां काम की
हो सकती हैं। तुम उन्हें समझ सकते हो, लेकिन समझने से क्या होगा? समझ
किसी काम की नहीं है; यदि तुम उसके संबंध में कुछ कहते नहीं हो। दरअसल तुम
जब तक उस दिशा में कुछ करते नहीं, समझना कि तुमने समझा ही नहीं। क्योंकि
समझ को कृत्य बनाना जरूरी है; अगर समझ कृत्य नहीं बनती है तो वह परिचय भर
है, वह समझ नहीं है।
इस फर्क को समझने की कोशिश करो। परिचय समझ नहीं है। परिचय तुम्हें कृत्य
में उतरने को मजबूर नहीं करेगा, परिचय तुम्हें अपने में बदलाहट लाने के
लिए विवश नहीं करेगा। उससे तुम कुछ करने के लिए बाध्य नहीं होगे। तुम उसे
मन में इकट्ठा कर लोगे और वह तुम्हारी जानकारी बन जाएगा। तुम ज्यादा पंडित
हो जाओगे, ज्यादा जानकार हो जाओगे। लेकिन मृत्यु के सामने सब खो जाता है,
समाप्त हो जाता है। तुम बहुत सी चीजें इकट्ठी करते रहते हो, लेकिन उनके
संबंध में कुछ करते नहीं; फिर वे तुम्हारे ऊपर बोझ बन कर रह जाती हैं।
समझ का अर्थ कृत्य है, करना है। जब तुम किसी चीज को समझ लेते हो तो तुम
तुरंत उस दिशा में कुछ करने लगते हो। तुम्हें उसके संबंध में कुछ करना ही
होगा। क्योंकि अगर वह बात ठीक है और तुम समझते हो कि वह ठीक है तो तुम्हें
उसके लिए कुछ करना ही होगा। अन्यथा वह उधार ज्ञान बनकर रह जाता है, और उधार
ज्ञान समझ नहीं बन सकता।
तुम भूल सकते हो कि यह ज्ञान उधार है तुम भूलना चाहोगे कि यह उधार
है क्योंकि यह प्रतीति कि यह उधार है, तुम्हारे अहंकार को चोट पहुंचाती है।
इसलिए तुम भूल भूल जाते हो कि यह उधार है। और धीरे धीरे तुम मानने लगते
हो कि यह मेरा अपना ज्ञान है। और यह बात बहुत खतरनाक है।
तंत्र सूत्र
ओशो
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