पहली तो बात मैं द्रोणाचार्य नहीं हूं। द्रोणाचार्य, मेरे लिए,
थोड़े से गंदे नामों में से एक है। और गंदा इसीलिए नाम हो गया : एकलव्य को
अस्वीकार करने के कारण।
द्रोणाचार्य को गुरु भी नहीं कहना चाहिए। और अगर वे गुरु रहे होंगे, तो
उसी अर्थों में जिस तरह स्कूल के मास्टर को हम गुरु कहते हैं। उनमें कुछ
गुरुत्व नहीं था। शुद्ध राजनीति थी।
एकलव्य को इनकार कर दिया, क्योंकि वह शूद्र था। लेकिन उससे भी ज्यादा
भीतर राजनीति थी। वह थी कि वह अर्जुन से आगे निकल सकता था, ऐसी क्षमता थी
उसकी। राजपुत्र से कोई आगे निकल जाए, और शूद्र आगे निकल जाए क्षत्रिय से यह
द्रोणाचार्य के ब्राह्मण को बर्दाश्त न था।
फिर नौकर थे राजा के। उसके बेटे को ही दुनिया में सबसे बड़ा धनुर्धर
बनाना था। जिसका नमक खाया, उसकी बजानी थी। गुलाम थे। एकलव्य को इनकार
किया यह देखकर कि इस युवक की क्षमता दिखायी पड़ती थी कि यह अर्जुन को पानी
पिला दे! इसने पानी पिलाया होता। इसने वैसे भी पानी पिला दिया। इनकार करने
के बाद भी पिला दिया पानी।
तो इनकार कर दिया। यह तो बहाना था कि शूद्र हो। इस बहाने के पीछे गहरा
राजनैतिक दाव था। वह यह था कि मेरा विशिष्ट शिष्य अर्जुन दुनिया में
सर्वाधिक प्रथम हो। सबसे ऊपर हो।
फिर राजपुत्र ऊपर हो, तो मुझे कुछ लाभ है। यह शूद्र अगर ऊपर भी हो गया, तो इससे मिलना क्या है? इनकार कर दिया।
लेकिन एकलव्य अदभुत था। द्रोणाचार्य, मेरे लिए गंदे नामों में से एक है।
एकलव्य, मुझे बहुत प्यारे नामों में से एक है। अपूर्व शिष्य था, शिष्य
जैसे होने चाहिए। द्रोणाचार्य ऐसे गुरु, जैसे गुरु नहीं होने चाहिए। एकलव्य
ऐसा शिष्य, जैसे शिष्य होने चाहिए।
कोई फिकर न की। मन में शिकायत भी न लाया। यह राजनीति दिखायी भी पड़ गयी
होगी। लेकिन जिसको गुरु स्वीकार कर लिया, उसके संबंध में क्या शिकायत करनी!
जाकर मूर्ति बना ली जंगल में। मूर्ति के सामने ही कर लूंगा।..
जरा भी शिकायत नहीं है! क्रोध नहीं है। जिसको गुरु स्वीकार कर लिया,
स्वीकार कर लिया। अगर गुरु अस्वीकार कर दे, तो भी शिष्य कैसे अस्वीकार कर
सकता है? शिष्य ने तो सोचा होगा. शायद इसमें ही मेरा हित है! इसीलिए
उन्होंने अस्वीकार कर दिया।
गुरु राजनीतिज्ञ था। शिष्य धार्मिक था। उसने सोचा : मेरा इनकार किया, तो
जरूर मेरा हित ही होगा। इससे कुछ लाभ ही होने वाला होगा। नहीं तो वे क्यों
इनकार करते!
मूर्ति बनाकर मूर्ति की पूजा करने लगा और मूर्ति के सामने ही
धनुर्विद्या का अभ्यास शुरू कर दिया। इतनी भावना हो, ऐसी आस्था, ऐसी
श्रद्धा हो, तो गुरु की जरूरत भी क्या है? श्रद्धा की कमी है, इसलिए गुरु
की जरूरत है।
तो बिना गुरु के भी पहुंच गया। मूर्ति से भी पहुंच गया। श्रद्धा हो, तो
मूर्ति जीवंत हो जाती है। और श्रद्धा न हो, तो जीवित गुरु भी शइrत ही रह
जाता है। सब तुम्हारी श्रद्धा पर निर्भर है।
इस मूर्ति को ही मान लिया कि यही गुरु है। तुम देखते रहना मूर्ति को
कहता होगा मैं अभ्यास करता हूं; कहीं भूल चूक हो, तो चेता देना। कहीं जरूरत
पड़े, तो रोक देना।
इस अपूर्व प्रक्रिया में वह उस जगह पहुंच गया, जहां अर्जुन फीका पड़ गया।
खबरें उड़ने लगीं कि एकलव्य का निशाना अचूक हो गया है। ऐसा अचूक निशाना कभी
किसी का देखा नहीं!
ऐसी श्रद्धा हो, तो निशाना अचूक होगा ही। यह श्रद्धा का निशाना है, यह
चूक ही कैसे सकता है? और जिसको मूर्ति पर इतनी श्रद्धा है, स्वभावत: उसे
अपने पर इतनी ही श्रद्धा है।
तुम्हारी श्रद्धा दूसरे पर तभी होती है, जब तुम्हें आत्म श्रद्धा होती
है। तुम्हारी श्रद्धा उतनी ही होती है दूसरे पर, जितनी तुम्हारे भीतर होती
है, जितनी तुम्हें स्वयं पर होती है। जिस आदमी को अपने पर श्रद्धा नहीं है,
उसको अपनी श्रद्धा पर भी कैसे श्रद्धा होगी? जिस आदमी को अफ्ते पर श्रद्धा
है, वही अपनी श्रद्धा पर श्रद्धा कर सकेगा। वहीं से सब चीजें शुरू होंगी।
श्रद्धा पहले भीतर होनी चाहिए।
एकलव्य अपूर्व रहा होगा। इसी श्रद्धा को देखकर ही तो द्रोण चौंके होंगे
कि यह आदमी खतरनाक सिद्ध हो सकता है। इसकी आंखों में उन्हें झलक दिखायी पड़ी
होगी, लपट दिखायी पड़ी होगी।
लेकिन वे भूल में थे। जिसमें इतनी आत्मश्रद्धा हो, उसे गुरु इनकार कर
दे, तो भी वह पहुंच जाता है। और जिसमें इतनी आत्मश्रद्धा न हो। गुरु लाख
स्वीकार करे, तो भी कहां पहुंचेगा!
एकलव्य की खबरें आने लगीं कि एकलव्य पहुंच गया, पा लिया उसने अपने
गंतव्य को। जिस गुरु ने एकलव्य को शिष्य बनाने से इनकार कर दिया था, वह
दक्षिणा लेने पहुंच गया!
बेईमानी की भी एक सीमा होती है! शर्म भी न खायी। चुल्लभर पानी में डूब
मरना चाहिए था द्रोण को। ऐसे शिष्य के पैर जाकर छूने चाहिए थे। लेकिन फिर
राजनीति आती है, फिर चालबाजी आती है।
अब वे यह इरादा करके गए हैं कि जाकर उसके दाएं हाथ का अंगूठा माग लूंगा।
वे जानते हैं कि वह देगा। उसकी आंखों में उन्होंने वह झलक देखी है कि वह
जान दे दे उन लोगों में से है। उसको शूद्र कहना तो बिलकुल गलत है। वह
अर्जुन से ज्यादा क्षत्रिय है। वह इनकार नहीं करेगा, जो मांगता। अगर गरदन
मांगता, तो गरदन दे देगा। क्योंकि खबरें आती थीं कि उसने आपकी मूर्ति बना
ली है। मूर्ति के सामने अभ्यास करता है।
द्रोण पहुंच गए। देखी उसकी निशानेबाजी, छाती कैप गयी। उनके सारे शिष्य
फीके थे। वे खुद फीके थे। इस एकलव्य के मुकाबले वे कहीं नहीं थे। खुद भी
नहीं थे। तो उनके शिष्य अर्जुन इत्यादि तो कहा होंगे! बहुत भय आ गया होगा।
उससे कहा कि ठीक, तू सीख गया। मैं तेरा गुरु। मैं गुरुदक्षिणा लेने आया।
एकलव्य की आंखों में आंसू आ गए होंगे। उसके पास देने को कुछ भी नहीं है।
गरीब आदमी है। उसने कहा. आप जो मांगें; जो मेरे पास हो, ले लें। ऐसे मेरे
पास देने को क्या है!
एकलव्य इसलिए भी अदभुत है कि जिस गुरु ने इनकार किया था, उस गुरु को दक्षिणा देने को तैयार है। और जो मागेबेशर्त!
गुरु चालबाज है। कूटनीतिज्ञ है। शिष्य बिलकुल सरल और भोला है। और
द्रोणाचार्य ने उसका अंगूठा महा लिया दाएं हाथ का अनूठा। क्योंकि अंगूठा कट
गया, तो फिर कभी वह धनुर्विद नहीं हो सकेगा। उसकी धनुर्विद्या को नष्ट
करने के लिए अंगूठा मांग लिया।
उसने अंगूठा दे भी दिया। यह अपूर्व व्यक्ति था। यह क्षत्रिय था, जब आया
था। शूद्र इसको मैं नहीं कह सकता। यह क्षत्रिय था, जब यह आया था गुरु के
पास। अंगूठा देकर ब्राह्मण हो गया। समर्पण अपूर्व है! जानता है कि यह
अंगूठा गया कि मैंने जो वर्षों मेहनत करके धनुर्विद्या सीखी है, उस पर पानी
फिर गया। लेकिन यह सवाल ही कहां है? यह सवाल ही नहीं उठा उसे। एक दफा भी
संदेह नहीं उठा मन में कि यह तो बात जरा चालबाजी की हो गयी!
तो मैं द्रोण नहीं हूं तुमसे कह दूं।
तुम पूछते हो ‘क्या मैं शूद्र होकर भी आपका शिष्य हो सकता हूं?’
शूद्र सभी हैं। शूद्र की तरह ही सभी पैदा होते हैं। और जिस शूद्र में
शिष्य बनने की कल्पना उठने लगी, वह बाहर निकलने लगा शुद्रता से। उसकी
यात्रा शुरू हो गयी। इस भाव के साथ ही क्राति की शुरुआत है। चिनगारी पड़ी।
तुम शिष्य बनना चाहो और मैं तुम्हें अस्वीकार करूं, यह असंभव है। मैं तो
कभी कभी उनको भी स्वीकार कर लेता हूं जो शिष्य नहीं बनना चाहते। ऐसे ही
भूल चूक से कह देते हैं कि शिष्य बनना है। उनको भी स्वीकार कर लेता हूं।
द्रोण ने एकलव्य को अस्वीकार किया। मैं उनको भी स्वीकार कर लेता हूं,
जिनमें एकलव्य से ठीक विपरीत दशा है, जो हजार संदेहों से भरे हैं; हजार
रोगों से भरे हैं, हजार शिकायतों से भरे हैं, जिन ने कभी प्रार्थना का कोई
स्वर नहीं सुना और श्रद्धा का जिनके भीतर कोई अंकुर नहीं फूटा है कभी। जो
जानते नहीं कि श्रद्धा शब्द का अर्थ क्या होता है।
नास्तिकों को भी मैं स्वीकार कर लेता हूं। मैं इसलिए स्वीकार कर लेता
हूं कि जो किसी भी कारण से सही, शिष्य बनने को उत्सुक हुआ है, चलो, एक
खिडकी खुली। फिर बाकी द्वार—दरवाजे भी खोल लेंगे। एक रंध्र मिली। जरा सा भी
छिद्र मुझे तुममें मिल जाए, तो मैं वहीं से प्रविष्ट हो जाऊंगा। जरा सा
रंध्र मिल जाए, तो सूरज की किरण यह थोड़े ही कहेगी कि दरवाजे खोलो, तब मैं
भीतर आऊंगी। जरा खपड़ों में जगह खाली रह जाती है, सूरज की किरण वहीं से
प्रवेश कर जाती है।
तुम्हारी खोपड़ी के खपड़ों में कहीं जरा सी भी संध मिल गयी, तो मैं वहीं
से आने को तैयार हूं। मैं तुमसे सामने के दरवाजे खोलने को नहीं कहता। मैं
तुमसे बैंडबाजे बजाने को भी नहीं कहता। तुम बड़ी उदघोषणा करो, इसकी भी
चिंता नहीं करता। तुम किसी भी क्षण में, किसी ब्राह्मण क्षण में…।
अब यह प्रश्न किसी ब्राह्मण क्षण में उठा होगा। शूद्र को तो यह उठता ही
नहीं। शूद्र तो यहां आता ही कैसे? शूद्र तो मेरे खिलाफ है। तुम यहां आ गए,
यह किसी ब्रह्ममुहूर्त, किसी ब्राह्मण क्षण में हुआ होगा।
तुम्हारे मन में शिष्य होने का भाव भी उठा अच्छा है।
द्रोण मैं नहीं हूं। और तुमसे मैं चाहूंगा कि तुम अगर एकलव्य होना चाहो,
तो उस पुराने एकलव्य की सारी हालात समझकर होना। क्योंकि नए एकलव्य बड़ी
उलटी बातें कर रहे हैं!
मैंने सुना है :
कलियुग के शिष्यों ने गुरुभक्ति को ऐसा मोड़ दिया कि नकल करते हुए एकलव्य ने, द्रोणाचार्य का ही अंगूठा तोड़ दिया!
तुम आधुनिक एकलव्य नहीं बनना। जमाना बदल गया है। अब शिष्य, द्रोणाचार्य का अंगूठा तोड़ देते हैं!
न मैं द्रोण हूं न तुम्हें एकलव्य कम से कम आधुनिक एकलव्य बनने की कोई
जरूरत है। और चूंकि मैं द्रोण नहीं हूं इसलिए तुम्हें इनकार नहीं करूगा। और
तुम्हें जंगल में कोई मूर्ति बनाकर धनु र्विद्या नहीं सीखनी होगी। मैं ही
तुम्हे सिखाऊंगा। और जो मेरे पास है, वह बांटने से घटता नहीं। इसलिए क्या
कंजूसी करनी! कि इसको बनाएंगे शिष्य, उसको नहीं बनाएंगे! क्या शर्तें
लगानी! नदी के तट पर तुम जाते हो, तो नदी नहीं कहती कि तुम्हें नहीं पानी
पीने दूंगी। जो आए, पीए। नदी राह देखती है कि कोई आए, पीए।
फूल जब खिलता है, तब यह नहीं कहता कि तुम्हारी तरफ न बहूंगा। तुम्हारी
तरफ गंध को न बहने दूंगा। शूद्र! तू दूर हट मार्ग से! मैं तो सिर्फ
ब्राह्मणों के लिए हूं। जब फूल खिलता है, तो सुगंध सब के लिए है। और जब
सूरज निकलता है, तो सूरज यह भी नहीं कहता कि पापियों पर नहीं गिरूंगा,
पुण्यात्माओं के घर पर बरसूंगा। पुण्यात्माओं के घर और पापियों के घर में
सूरज को कोई भेद नहीं है। और जब मेघ घिरते हैं और वर्षा होती है, तो
महात्माओं के खेतों में ही नहीं होती, सभी के खेतों में हो जाती है।
तुम मुझे एक मेघ समझो। तुम अगर लेने को तैयार हो, तो तुम्हे कोई नहीं
रोक सकता। और यह कुछ संपदा ऐसी है कि देने से घटती नहीं, बढ़ती है। जितना
तुम लोगे, उतना शुभ है। नए स्रोत खुलेंगे। नए द्वार से और ऊर्जा बहेगी। लो!
लूटो!
तुम यह पूछो ही मत कि तुम कौन हो, क्या हो। मैं भी नहीं पूछता। तुम्हारे भीतर प्यास है, बस, काफी योग्यता है।
पी लो! जो कलश छलक रहा है, अंजुलि भर लो!
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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