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Sunday, November 15, 2015

अगर परमात्मा प्रयास से नहीं मिलता, तो फिर प्रयास का क्या सार?

मैं कभी बोलता हूं कि नहीं, परमात्मा  प्रयास से नहीं मिलेगा। उसी सांझ मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, फिर हम प्रयास क्यों करें? तो हम सब छोड़ दें? तो ध्यान इत्यादि का जो हम श्रम कर रहे हैं, क्यों करें अगर वह बिना प्रयास के मिलेगा? और आप ही ने कहा कि अगर परमात्मा  प्रयास से नहीं मिलता, तो फिर प्रयास का क्या सार?

इन पागलों को…इनका जो तर्क है, वह जीवन की आत्यंतिक व्यवस्था से भी मेल खाना चाहिए, ऐसी इनकी धारणा है। जीवन का आत्यंतिक रूप तुम्हारे तर्क को मान कर नहीं चलता। तुम्हें अपने तर्क को ही उसके हिसाब से जमाना पड़ता है। वह तुम्हारी फिक्र नहीं करता। सत्य तुम्हारे मन की धारणाओं की चिंता नहीं करता। तुम्हें अपने मन की धारणाएं ही उसके अनुरूप जमानी पड़ती हैं।

ऐसा हुआ। इस सदी के प्रारंभ में भौतिकशास्त्रियों ने, फिजिसिस्ट ने एक खोज की। और वह खोज बड़ी तर्क के बाहर थी। वह खोज यह थी कि जो पदार्थ का अंतिम कण है इलेक्ट्रान, उसका व्यवहार बड़ा बेबूझ है। वह संतों की वाणी से तो मेल खाता है, विज्ञान की परीक्षण और विज्ञान की प्रयोगशाला में उसकी कोई संगति नहीं है। उससे ज्यादा पहेली की और कोई घटना कभी वैज्ञानिक के समझ में नहीं आयी थी। वह जो इलेक्ट्रान है, वह एक साथ दोहरा व्यवहार करता है; जो कि बिलकुल गणित के बाहर है। एक साथ वह कण की तरह भी व्यवहार करता है और तरंग की तरह भी। यह असंभव है।

अगर ज्योमेट्री तुम ने पढ़ी है, तो लकीर लकीर है और बिंदु बिंदु है। बिंदु कभी लकीर जैसा नहीं हो सकता और लकीर कभी बिंदु जैसी नहीं हो सकती। क्योंकि बिंदु तो एक बिंदु है। लकीर बहुत से बिंदुओं का जोड़ है। अनंत बिंदुओं का जोड़ है। अगर तुम किसी एक ऐसे बिंदु को बना सको अपनी पुस्तक में, जिसको तुम देखते रहो तो कभी तो वह लकीर हो जाए और कभी बिंदु हो जाए, तो तुम खुद ही घबड़ा जाओगे। कि या तो तुम पागल हो गए हो, या कोई मजाक कर रहा है, कोई जादू कर रहा है। क्योंकि बिंदु या तो बिंदु है, या लकीर। दोनों एक साथ, एक ही चीज के रूप नहीं हो सकते।

और ऐसे ही कण और तरंग हैं। कण एक बात है, बिंदु है; और तरंग है लहर। लेकिन फिजिसिस्ट इस सदी के प्रारंभ में इस नतीजे पर पहुंचे कि इलेक्ट्रान दोनों व्यवहार एक साथ कर रहा है। एक साथ, एक ही समय में वह तरंग भी है और कण भी। बड़ी मुसीबत हो गयी सारा तर्क!

और विज्ञान तो तर्कनिष्ठ है। वह कोई रहस्यवादियों का खेल तो नहीं है। वह कोई काव्य तो नहीं है। वह तो गणित है। तो क्या करना? जितना खोजा उतनी ही मुसीबत बढ़ती गयी। और आखिर में यह स्वीकार कर लेना पड़ा कि यह दोनों ही उसका एक साथ व्यवहार हो रहा है।

लोगों ने पूछा खोजियों से कि आपको कहते शर्म नहीं आती? ये दोनों चीजें एक साथ कैसे हो सकती हैं? यह तो बिलकुल गणित के विपरीत है। और इससे यूक्लिड की पूरी ज्योमेट्री गलत हो जाती है। तो वैज्ञानिकों ने जो उत्तर दिए, उन्होंने कहा, हम करें भी क्या? अगर वह कण ज्योमेट्री को नहीं मानता और यूक्लिड को नहीं मानता, तो हम क्या करें? हमने सब तरफ से खोज कर देख लिया। वह जो व्यवहार कर रहा है, हम तो वही कहेंगे। अगर वह तर्क के बाहर है, तो तर्क के बाहर है। तर्क को तुम सुधार लो। लेकिन उस कण को कौन समझाने जाए कि तू तर्क के हिसाब से चल?

इसलिए नयी ज्योमेट्री  का जन्म हुआ–नान यूक्लिडियन ज्यामेट्री। बदलनी पड़ी ज्योमेट्री । वह कण तो मानेगा नहीं। इलेक्ट्रान, वह तो किसी की सुनेगा नहीं। वह तो जैसा कर रहा है, कर रहा है। तुम अपना गणित ठीक जमा लो। तुम अपने तर्क में फर्क कर लो।

पहली दफा इलेक्ट्रान के अध्ययन से यूक्लिड व्यर्थ हो गया। यूक्लिड की सब परिभाषाएं खराब हो गयीं। और अरिस्टोटल के सब तर्क के सिद्धांत व्यर्थ हो गए!

यही मुसीबत संतों की है। वे वैज्ञानिकों से पहले उसके दरवाजे पर दस्तक दिए हैं। और वहां उन्होंने पाया कि प्रयास के बिना नहीं मिलता और प्रयास से भी नहीं मिलता। यह स्थिति है। इसमें कुछ किया नहीं जा सकता। प्रयास भी करना पड़ता है और मिलता बिना प्रयास के है। लेकिन अगर तुम समझो, तो भीतर एक गहरी संगति है। वह खयाल में आ जाए।

तो अपनी तरफ से तुम पूरा दांव पर लगा देना। मिलेगा तो वह उसकी अनुकंपा से। लेकिन उसकी अनुकंपा पाने के योग्य तुम तभी बनोगे, जब तुमने अपने को पूरा दांव पर लगा दिया। यही इस सूत्र का सार है।

तंत्र सुत्र 

ओशो 
 
 

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