ब्राह्मण कोई जन्म से नहीं होता। और जिन्होंने समझ लिया है कि वे जन्म
से ब्राह्मण हैं, उनसे ज्यादा भ्रांत और कोई भी नहीं। उनकी स्थिति तो
शूद्रों से भी गयी बीती है। शूद्र को कम से कम यह तो ख्याल है कि मै शूद्र
हूं। महात्मा गांधी जैसे लोगों ने उसका भी ख्यालमिटाने की कोशिश की है।
उसको भी कहा कि हरिजन है तू, शूद्र नहीं। जैसे ब्राह्मण की भ्रांति है कि
जन्म से ब्राह्मण, ऐसे अब शूद्र को भी भ्रांति पैदा करवा दी है भले भले
लोगों ने, जिनको तुम महात्मा कहते हो कि तू हरिजन है। हरिजन ब्राह्मण का
ही दूसरा नाम हुआ। जिसने हरि को जाना वह हरिजन, जिसने ब्रह्म को जाना वह
ब्रह्म, वह ब्राह्मण। हरिजन कह दिया, उसको एक भ्रांति चलती ही थी कि कुछ
लोग जन्म से ब्राह्मण हैं, एक दूसरी भ्रांति पैदा करवा दी कि कुछ लोग जन्म
से हरिजन हैं। अब हरिजन अकड़े हैं। क्योंकि उनको भी अहंकार जगा है ब्राह्मण
होने का। ब्राह्म्ण भी ब्राह्मण नहीं है, हरिजन भी हरिजन नहीं हैं।
मुझसे अगर तुम पूछो तो मैं कहूंगा हम सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं।
जन्म से तो हम सब शूद्र होते है न कोई ब्राह्मण होता न कोई वैश्य होता, न
कोई क्षत्रिय होता, न कोई हरिजन होता। जन्म से तो हम सब शुद्र होते हैं
क्योंकि जन्म से हम सब अज्ञानी होते हैं। फिर जन्म के बाद हम क्या यात्रा
करेंगे इस पर निर्भर करेगा। सौ में निन्यानबे लोग तो शूद्र ही रह जाएंगे।
सद्गुरु को न पकड़ेंगे तो शूद्र ही रह जाएंगे। सौ में से एकाध ब्राह्मण हो
पाएगा। एकाध भी हो जाए तो बहुत। एकाध भी हो जाए तो काफी।
और सबसे बड़ी जो बाधा है वह यह कि हम जन्म के साथ ही मान लेते हैं कि
ब्राह्मण हैं। बस, वहीं चूक हो गयी। जैसे बीमार आदमी मान ले कि मैं स्वस्थ
हूं, तो क्यों इलाज करवाये? क्यों चिकित्सक के पास जाए? क्यों निदान
करवाये? क्यों औषधि ले? बीमार आदमी मान ले कि मैं स्वस्थ हूं, बात खत्म हो
गयी। ब्राह्मण तो बीमार था सदियों से, इधर महात्मा गांधी की कृपा से शूद्र
भी बीमार हो गया है। उसको भी हरिजन होने की अस्मिता छायी जा रही है। यह जो
हिन्दुओं और हरिजनों के बीच जगह जगह संघर्ष हो रहा है, इसमें सिर्फ
ब्राह्मणों का हाथ नहीं है, ख्याल रखना, इसमें हरिजनों में पैदा हो गयी अकड़
का भी हाथ है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जो हो रहा है वह ठीक हो रहा है।
ब्राह्मण जो कर रहे हैं वह तो बिलकुल गलत है, पाप है। मगर लोग अगर यह सोचते
हों कि उसमें सिर्फ ब्राह्मणों का हाथ. है, तो गलत बात है, उसमें हरिजन
में जो अकड़ पैदा हो गयी है हरिजन होने की, उसका भी बड़ा हाथ है। और स्वभावत:
ब्राह्मण तो गलत रहा है सदियों सदियों से, इसलिए उसकी अकड़ तो बहुत पुरानी
है, मगर ख्याल रखना, नया मुसलमान जोर से नमाज पढ़ता है। और नया मुसलमान रोज
मस्जिद जाता है, पुराना मुसलमान कभी चूक चाक भी जाए। नये मुसलमान की अकड़
बहुत होती है।
तौ जो पागलपन धीरे धीरे ब्राह्मणों में तो खून में मिल गया था, जिसका
उन्हें सीधा साधा बोध भी नहीं रह गया था, वह नया पागलपन हरिजनों में भी छा
गया है। और उनका नया नया है। और नये रोग खतरनाक होते हैं; उनका आघात खतरनाक
होता है। वे बड़ी अकड़ से चल रहे हैं। वे हर चीज में अकड़ खड़ी करते हैं। वह
कहता है, हमें मंदिर में जाने दो।
अब बड़े मजे की बात है, महात्मा गांधी जीवन भर कोशिश किये कि हरिजनों
को मंदिर में प्रवेश मिलना चाहिए। और महात्मा गांधी को इतनी भी समझ न आयी
कि जो मंदिर में बैठे जन्मों जन्मों से पूजा कर रहे हैं उनको क्या खाक कुछ
मिला है! जब ब्राह्मणों को ही पूजा करते करते कुछ नहीं मिला तो ये गरीब
हरिजनों को भी उन्हीं मंदिरों में प्रवेश करवाने से क्या मिल जाने वाला है?
अगर मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा हरिजनों, भूलकर भी मंदिरों में मत जाना। जो
मंदिरों में हैं उनको ही कुछ नहीं मिला, तुम अब इस झंझट में कहां पड़ रहे
हो! तुम परमात्मा को विराट आकाश में खोजो, इन दीवालों में बद परमात्मा
नहीं है।
लेकिन, नहीं महात्मा गांधी समझा रहे थे कि महाक्रांति है। हरिजनों को
मंदिरों में प्रवेश दिलवा देने से महाक्रांति हो जाएगी। ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य, तो मंदिरों में बैठे ही हुए थे, इनकी जिंदगी में कौनसी
क्रांति हो गयी? इनकी जिंदगी कूड़ा करकट है, उसी में तुम हरिजनों को भी
सम्मिलित कर दो। और उस कूड़ा करकट होने के लिए वे दीवाने हो गये। दंगे फसाद
शुरू हो गये।
इस दुनिया में रोग पैदा करवा देना बड़ा आसान है। महात्मा गांधी धार्मिक
व्यक्ति नहीं हैं, राजनैतिक व्यक्ति हैं, उन्होंने हरिजनों का उपयोग
राजनैतिक चालबाजी की तरह कर लिया। हरिजन शब्द पुराना है, कोई महात्मा गांधी
की अपनी ईजाद नहीं। लेकिन हरिजन हम कहते थे उसको जो हरि का था। नानक,
कबीर, दादू, भीखा, ये हरिजन थे। राबिया, मीरा, सहजो, ये हरिजन थे।
हरिजन बड़ी ऊंची बात है। उसका ठीक वही अर्थ है जो ब्राह्मण का। क्योंकि
ब्राह्मण का अर्थ मर गया था धीरे धीरे और शब्द थोथा हो गया था जन्म के साथ
जुड़ गया था, इसलिए संतों ने हरिजन खोजा। गांधी ने उस शब्द की भी हत्या कर
दी, उसको भी मार डाला।
ऐसे ही विनोबा ने सर्वोदय शब्द की हत्या कर दी। वह भी पुराना शब्द है,
कोई सोलह सौ साल पुराना शब्द है। सबसे पहले जैन शास्त्रों में उसका उल्लेख
हुआ है। अमृतचन्द्राचार्य ने सबसे पहले उसका उल्लेख किया है सर्वोदय, और
बड़ा प्यारा उल्लेख किया है। खराब कर दिया विनोबा ने।
राजनीतिज्ञों के हाथ में असली सिक्के भी चले जाएं तो खोटे हौ जाते हैं।
दुष्ट संगति का बुरा प्रभाव पड़ता है। अमृतचन्द्राचार्य ने सर्वोदय की
व्याख्या की है समाधि को उपलब्ध वे लोग, जिनके प्राणों में सबके उदय की
आकांक्षा है। सबके उसमें पत्थर, पौधे, पशु, पक्षी, मनुष्य, सब सम्मिलित
हैं। जिनके भीतर समस्त अस्तित्व को समाधि की तरफ ले जाने की महत्वाकांक्षा
जगी है, वे सर्वोदयी है।
और आजकल का सर्वोदयी? जिसको विनोबाजी सर्वोदयी कहते हैं, वह क्या है? वह
केवल राजनीति के सोपान चढ़ रहा है। सर्वोदय से शुरू करता है क्योंकि
सर्वोदय से ही शुरू करना आसान है। किसी की गर्दन दबानी हो तो पैर दबाने से
शुरू करना, ख्याल रखना, गणित ऐसा है, एकदम गर्दन दबाओगे तो किसी की दबा न
पाओगे। पहले पैर दबाना। पैर दबवाने को तो कोई भी राजी हो जाएगा। फिर
धीरे धीरे ऊपर बढ़ते जाना, फिर गर्दन दबा देना।
सर्वोदय एक राजनैतिक चालबाजी है। और इसलिए जयप्रकाश नारायण प्रगट होकर
रहे। जीवन दान दिया था सर्वोदय के लिए, मगर जीवन का अत हो रहा है इस देश के
सबसे गर्हित राजनीतिज्ञों के बीच में।
सुंदर शब्द भी गलत लोगों के हाथ में पड़कर असुंदर हो जाते हैं। ब्राह्मण
शब्द बड़ा प्यारा है, अलौकिक है ब्रह्म को जो जाने। बुद्ध ने भी यही
परिभाषा की है ब्रह्म को जो जाने, ब्रह्म मे जो रत हो।
गुरु प्रताप साध की संगती
ओशो
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