डेल कारनेगी कहता है कि अगर किसी को प्रभावित करना हो, किसी को बदलना
हो, किसी का विचार रूपांतरित करना हो, तो ऐसी बात मत कहना जिसको वह पहले
ही मौके पर ना कह दे। क्योंकि अगर उसने पहले ही ना कह दी, तो उसका न का भाव
मजबूत हो गया। अब दूसरी बात जों हो सकता था, पहले कही जाती, तो वह ही भी कह
देता अब उस बात पर भी वह ना कहेगा। इसलिए पहले दो चार ऐसी बात करना उससे
जिसमें वह हां कहे, फिर वह बात उठाना जिसमें साधारणत: उसने ना कही होती। चार हां कहने के बाद न कहने का भाव कमजोर हो जाता है। और जिस आदमी की हमने चार
बात में हां भर दी, वृत्ति होती है उसकी पांचवीं बात में भी हां भर देने की।
और जिस आदमी की हमने चार बात में ना कह दी, पांचवी बात में भी ना कहने का
भाव प्रगाढ़ हो जाता है।
डेल कारनेगी ने एक संस्मरण लिखा है, कि एक गांव में वह गया। जिस मित्र
के घर ठहरा था, वह इंश्योरेंस का एजेंट था। और उस मित्र ने कहा कि तुम बड़ी
किताबें लिखते हो कैसे जीतो मित्रता, कैसे प्रभावित करो। इस गाव में एक
बुढ़िया है, अगर तुम उसका इंश्योरेंस करवा दो, तो हम समझें, नहीं तो सब
बातचीत है।
डेल कारनेगी ने बुढ़िया का पता लगाया। बड़ा मुश्किल काम था, क्योंकि उसके
दफ्तर में ही घुसना मुश्किल था। जैसे ही पता चलता कि इंश्योरेंस एजेंट, लोग
उसे वहीं से बाहर कर देते। बुढ़िया अस्सी साल की विधवा थी, करोड़पति थी,
बहुत कुछ उसके पास था, लेकिन इंश्योरेंस के बिलकुल खिलाफ थी। जहां घुसना ही
मुश्किल था, उसको प्रभावित करने का मामला अलग था।
डेल कारनेगी ने लिखा है कि सब पता लगा कर, पाच बजे सुबह मैं उसके बगीचे
की दीवाल के बाहर के पास घूमने लगा जाकर। बुढिया छह बजे उठती थी। वह अपने
बगीचे में आई, मुझे अपनी दीवाल के पास फूलों को देखते हुए खड़े होकर उसने
पूछा कि फूलों के प्रेमी हो? तो मैंने उससे कहा कि फूलों का प्रेमी हूं
जानकार भी हूं; बहुत गुलाब देखे सारी जमीन पर, लेकिन जो तुम्हारी बगिया में
गुलाब हैं, इनका कोई मुकाबला नहीं है। बुढ़िया ने कहा, भीतर आओ दरवाजे से।
बुढ़िया साथ ले गई बगीचे में, एक एक फूल बताने लगी! मुर्गियां बताईं, कबूतर
बताए, पशु पक्षी पाल रखे थे, वे सब बताए.। और डेल कारनेगी ने यस मूड पैदा
कर लिया।
रोज सुबह का यह नियम हो गया। दरवाजे पर बुढ़िया उसके स्वागत के लिए तैयार
रहती। दूसरे दिन बुढ़िया ने चाय भी पिलाई, नाश्ता भी करवाया। तीसरे दिन
बगीचे में घूमते हुए उस बुढ़िया ने पूछा कि तुम काफी होशियार और कुशल और
जानकार आदमी मालूम पड़ते हो, इंश्योरेंस के बाबत तुम्हारा क्या खयाल है?
इंश्योरेंस के लोग मेरे पीछे पड़े रहते हैं, यह योग्य है करवाना कि नहीं? तब
डेल कारनेगी ने उससे इंश्योरेंस की बात शुरू की। लेकिन अभी भी कहा नहीं कि
मैं इंश्योरेंस का एजेंट हूं क्योंकि उससे ना का भाव पैदा हो सकता है।
जिंदगी भर जिसने इंश्योरेंस के एजेंट को इनकार किया हो, उससे ना का भाव पैदा
हो सकता है। लेकिन सातवें दिन इंश्योरेंस डेल कारनेगी ने कर लिया। जिससे
हा का संबंध बन जाए, उस पर आस्था बननी शुरू होती है। जिस पर आस्था बन जाए,
भरोसा बन जाए, उसको ना कहना मुश्किल होता चला जाता है। अंगुली पकड़ कर ही
पूरा का पूरा हाथ पकड़ा जा सकता है।
तो श्रुति अज्ञानी से ऐसी भाषा में बोलती है कि उसे हां का भाव पैदा हो
जाए। तो ही आगे की यात्रा है। अगर सीधे कहा जाए. न कोई संसार है, न कोई देह
है, न तुम हो। अज्ञानी कहेगा, तो बस अब काफी हो गया, इसमें कुछ भी भरोसे
योग्य नहीं मालूम होता।
इसलिए श्रुति कहती है अज्ञानी से कि देह आदि सत्य है, तुम्हारा संसार
बिलकुल सत्य है। अज्ञानी की रीढ़ सीधी हो जाती है, वह आश्वस्त होकर बैठ जाता
है कि यह आदमी खतरनाक नहीं है, और हम एकदम गलत नहीं हैं। क्योंकि किसी को
भी यह लगना बहुत दुखद होता है कि हम बिलकुल गलत हैं। थोडे तो हम भी सही
हैं! थोड़ा जो सही है, उसी के आधार पर आगे यात्रा हो सकती है।
अध्यात्म उपनिषद
ओशो
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