हां, बहुत महत्व है। असल में, प्राणप्रतिष्ठा का मतलब ही यह
है। उसका मतलब ही यह है कि हम एक नई मूर्ति तो बना रहे हैं, लेकिन पुराने
समझौते के अनुसार बना रहे हैं। और पुराना समझौता पूरा हुआ कि नहीं, इसके
इंगित मिलने चाहिए। हम अपनी तरफ से जो पुरानी व्यवस्था थी, वह पूरी
दोहराएंगे। हम उस मूर्ति को अब मृत न मानेंगे, अब से हम उसे जीवित मानेंगे।
हम अपनी तरफ से पूरी व्यवस्था कर देंगे जो जीवित मूर्ति के लिए की जानी
थी। और अब सिंबालिक प्रतीक मिलने चाहिए कि वह प्राण प्रतिष्ठा स्वीकार हुई
कि नहीं। वह दूसरा हिस्सा है, जो कि हमारे खयाल में नहीं रह गया। अगर वह न
मिले, तो प्राण प्रतिष्ठा हमने तो की, लेकिन हुई नहीं। उसके सबूत मिलने
चाहिए। तो उसके सबूत के लिए चिह्न खोजे गए थे कि वे सबूत मिल जाएं तो ही
समझा जाए कि वह मूर्ति सक्रिय हो गई।
मूर्ति एक रिसीविंग प्वाइंट:
ऐसा ही समझ लें कि आप घर में एक नया रेडियो इंस्टाल करते हैं। तो पहले
तो वह रेडियो ठीक होना चाहिए, उसकी सारी यंत्र व्यवस्था ठीक होनी चाहिए।
उसको आप घर लाकर रखते हैं, बिजली से उसका संबंध जोड़ते हैं। फिर भी आप पाते
हैं कि वह स्टेशन नहीं पकड़ता, तो प्राणप्रतिष्ठा नहीं हुई, वह जिंदा नहीं
है, अभी मुर्दा ही है। अभी उसको फिर जांच पड़ताल करवानी पड़े; दूसरा रेडियो
लाना पड़े या उसे ठीक करवाना पड़े।
मूर्ति भी एक तरह का रिसीविंग प्याइंट है, जिसके साथ, मरे हुए आदमी ने
कुछ वायदा किया है वह पूरा करता है। लेकिन आपने मूर्ति रख ली, वह पूरा करता
है कि नहीं करता है, यह अगर आपको पता नहीं है और आपके पास कोई उपाय नहीं
है इसको जानने का, तो मूर्ति है भी जिंदा कि मुर्दा है, आप पता नहीं लगा
पाते।
तो प्राणप्रतिष्ठा के दो हिस्से हैं। एक हिस्सा तो पुरोहित पूरा कर
देता है कि कितना मंत्र पढ़ना है, कितने धागे बांधने हैं, कितना क्या करना
है, कितना सामान चढ़ाना है, कितना यज्ञ हवन, कितनी आग सब कर देता है। यह
अधूरा है और पहला हिस्सा है। दूसरा हिस्सा जो कि पांचवें शरीर को उपलब्ध
व्यक्ति ही कर सकता है, उसके पहले नहीं कर सकता दूसरा हिस्सा है कि वह कह
सके कि हां, मूर्ति जीवित हो गई। वह नहीं हो पाता। इसलिए हमारे अधिक मंदिर
मरे हुए मंदिर हैं, जिंदा मंदिर नहीं हैं। और नये मंदिर तो सब मरे हुए ही
बनते हैं; नया मंदिर तो जिंदा होता ही नहीं।
जिन खोज तीन पाइयाँ
ओशो
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