आकाश पर ध्यान करना बहुत सुंदर है। बस लेट जाओ, ताकि पृथ्वी को भूल सको।
किसी स्वात सागरतट पर, या कहीं भी जमीन पर पीठ के बल लेट जाओ और आकाश को
देखो। लेकिन इसके लिए निर्मल आकाश सहयोगी होगा निर्मल और निरभ्र आकाश। और
आकाश को देखते हुए, उसे अपलक देखते हुए उसकी निर्मलता को, उसके निरभ्र
फैलाव को अनुभव करो। और फिर उस निर्मलता में प्रवेश करो, उसके साथ एक हो
जाओ, अनुभव करो कि जैसे तुम आकाश ही हो गए हो।
आरंभ में अगर तुम सिर्फ कुछ और नहीं करो खुले आकाश पर ही ध्यान करो, तो
अंतराल आने शुरू हो जाएंगे। क्योंकि तुम जो कुछ देखते हो वह तुम्हारे भीतर
प्रवेश कर जाता है। तुम जो कुछ देखते हो वह तुम्हें भीतर से उद्वेलित कर
देता है। तुम जो कुछ देखते हो वह तुममें बिंबित प्रतिबिंबित हो जाता है।
तुम एक मकान देखते हो। तुम उसे मात्र देखते नहीं हो; देखते ही तुम्हारे
भीतर कुछ होने भी लगता है। तुम एक पुरुष को या एक स्त्री को देखते हो, एक
कार को देखते हो, या कुछ भी देखते हो। वह अब बाहर ही नहीं है, तुम्हारे
भीतर भी कुछ होने लगता है, कोई प्रतिबिंब बनने लगता है; और तुम प्रतिक्रिया
करने लगते हो। तुम जो कुछ देखते हो वह तुम्हें ढालता है, गढ़ता है, वह
तुम्हें बदलता है, निर्मित करता है। बाह्य सतत भीतर से जुड़ा हुआ है।
तो खुले आकाश को देखना बढ़िया है। उसका असीम विस्तार बहुत सुंदर है। उस
असीम के संपर्क में तुम्हारी सीमाएं भी विलीन होने लगती हैं, क्योंकि वह
असीम आकाश तुम्हारे भीतर प्रतिबिंबित होने लगता है।
और तुम अगर आंखों को झपके बिना, अपलक ताक सको तो बहुत अच्छा है। अपलक
ताकना बहुत अच्छा है; क्योंकि अगर तुम पलक झपकोगे तो विचार प्रक्रिया चालू
रहेगी। तो बिना पलक झपकाए अपलक देखो। शून्य में देखो, उस शून्य में डूब
जाओ, भाव करो कि तुम उससे एक हो गए हो। और किसी भी क्षण आकाश तुममें उतर
आएगा।
पहले तुम आकाश में प्रवेश करते हो और फिर आकाश तुममें प्रवेश करता है,
तब मिलन घटित होता है आंतरिक आकाश बाह्य आकाश से मिलता है। और उस मिलन में
उपलब्धि है। उस मिलन में मन नहीं होता है, क्योंकि यह मिलन ही तब होता है
जब मन नहीं होता। उस मिलन में तुम पहली दफा मन नहीं होते हो। और इसके साथ
ही सारी भ्रांति विदा हो जाती है। मन के बिना भ्रांति नहीं हो सकती है।
सारा दुख समाप्त हो जाता है; क्योंकि दुख भी मन के बिना नहीं हो सकता है।
तुमने क्या कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि दुख मन के बिना नहीं हो
सकता? तुम मन के बिना दुखी नहीं हो सकते। उसका स्रोत ही नहीं रहा। कौन
तुम्हें दुख देगा? कौन तुम्हें दुखी बनाएगा? और उलटी बात भी सही है। तुम मन
के बिना दुखी नहीं हो सकते हो और तुम मन के रहते आनंदित नहीं हो सकते हो।
मन कभी आनंद का स्रोत नहीं हो सकता है।
तंत्र सूत्र
ओशो
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