ओशो ने अपनी धारदार विचार शक्ति के द्वारा सारे संसार में फैले सभी तरह
के शोषण के धंधों पर तेज चोट की है। स्वाभाविक ही इससे सभी तथाकथित संतों,
महंतों, धर्मों व तरह तरह के नामों से शोच्च की दुकानें खोले बैठे लोग
नाराज हो गये। धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक हर तल पर स्थापित शक्तियां आहत
हुईं और ओशो की दुश्मन बनती चली गईं। ऐसे ही किसी संगठन के किसी व्यक्ति को
इस बात के लिए तैयार किया कि वह ओशो की हत्या कर दे। उसे इस कृत्य के लिए
पूरा प्रशिक्षण दिया गया। तीन माह तक उस व्यक्ति ने तैयारी की कि किस
प्रकार वह ओशो को मार सके।
ओशो उन दिनों में सणमुखानंद हॉल, मुंबई में प्रवचन कर रहे थे। जब वह
व्यक्ति उस हॉल में पहुंचा तो देखा कि हॉल की सभी कुर्सियां पूरी तरह से भर
चुकी हैं। लेकिन स्टेज पर भी कुछ लोग बैठे चुके थे तो वह तरकीब से स्टेज
पर चढ़ कर एक तरफ बैठ गया।
अब ओशो को मारना सबसे आसान था। जब ओशो आए…….प्रणाम की मुद्रा है, श्वेत
चादर से ऊपर अंगों को ढका है, नीचे श्वेत लुंगी, ओशो की मुस्कुराती छबी… वह
व्यक्ति तो बस देखता ही रह गया। उसके हाथ कब प्रणाम की मुद्रा में जुड़ गये
पता ही नहीं चला। कुछ ही देर में ओशो के मुख से मन को मोह लेने वाले वचन
फूट चले। वह व्यक्ति तो बेसुध होकर ओशो की वाणी के साथ बहता ही चला गया।
उसे यह भी होश नहीं रहा कि वह यहां हत्या करने आया है, उसकी जेब में
रिवॉल्वर इसी काम के लिए पड़ी है। जब ओशो ने प्रवचन पूरा किया तो वह व्यक्ति
आंखों में अश्रु की धाराएं लिए ओशो के पास पहुंचा, उनके चरणों में
रिवॉल्वर रख दी, बताया कि वह उनकी हत्या करने आया था लेकिन उल्टा ओशो ने
उसकी पाशविक प्रवृत्ति की हत्या कर दी। वह ओशो से संन्यस्त हुआ।
ओशो का कहा याद आ रहा है, ‘एक बार ऐसा हुआ कि मेरे एक मित्र भारत के एक
राज्य के राज्यपाल बन गए, और उन्होंने मुझे अपने राज्य के सभी जेलों में
जाने की अनुमति दे दी। और मैं सालों तक वहां जाता रहा, और मैं वहां जाकर
आश्चर्यचकित था। जो लोग जेलों में हैं, वे दिल्ली में जो राजनेता हैं उनसे,
अमीरों से, तथाकथित धार्मिक संतों से अधिक निर्दोष हैं।’
आँख हो तो यह देखना कितना आसान है कि जिन्हें हम अपराधी कह देते हैं उनके
किसी कृत्य मात्र को इतना बडा कर देते हैं कि एक इंसान ही पूरा का पूरा उस
छोटे से कृत्य के पीछे छुप जाता है, हम उसे अपराधी का तमगा दे कर एक तरफ
डाल देते हैं लेकिन ओशो के आशीर्वाद तो सभी को मिलते हैं, बिना किसी भेद
भाव के।
मैं मिटा कि फिर चमत्कार ही चमत्कार है। जब तक मैं है तब तक विषाद ही विषाद है।
यहां जो हो रहा है, ऐसा कहना ठीक नहीं कि मैं कर रहा हूं; मैं नहीं हूं
इसलिए हो रहा है। मैं जो बोल रहा हूं मैं नहीं बोल रहा हूं कोई और बोल रहा
है। यह जो सतत उपक्रम हो रहा है, इसमें मैं परमात्मा के हाथ में एक सूखे
पत्ते की तरह हूं हवाएं जहां उड़ा ले जाएं! अब मेरा न कोई व्यक्तिगत लक्ष्य
है, न कोई गंतव्य है। मैं ही नहीं हूं तो क्या लक्ष्य, क्या गंतव्य!
परमात्मा पूरब ले जाता तो पूरब और पश्चिम ले जाता तो पश्चिम। आकाश में उठा
दे तो ठीक और धूल में गिरा दे तो ठीक। जैसी उसकी मर्जी!
तुम धीरे धीरे मुझे व्यक्ति की तरह देखना बंद ही कर दो। तुम भूल ही जाओ
कि यहां कोई है। तुम तो मुझे बांस की पोली पोगरी समझो। कोई बांसुरी का गीत
अपना तो नहीं होता! बांसुरी से निकलता होगा। हां, अगर कोई भूल चूक होती हो
तो बांसुरी की होगी, मगर गीत बांसुरी का नहीं होता। अगर बेसुरा मैं कर दूं
गीत तो वह बेसुरापन मेरे बांस का होगा; लेकिन अगर गीत में कोई माधुर्य हो
तो माधुर्य तो सदा उस परमात्मा का है। अगर कोई सत्य हो तो सदा उसका है; अगर
कुछ असत्य हो तो जरूर बांस ने जोड़ दिया होगा। बांस के कारण जरूर गीत उतना
मुक्त नहीं रह जाता, बांस की संकरी गली से गुजरना पड़ता है, संकरा हो जाता
है।
मेरी भूलों के लिए मुझे क्षमा करना। लेकिन मुझसे अगर कोई सत्य तुम्हें मिल जाए, उसके लिए मुझे धन्यवाद मत देना।
मैं तो बस वैसे हूं जैसे सूरज निकले तो रोशनी फैलती है। अब कमल कोई यह
थोड़े ही कहेगा कि सूरज आया और उसकी किरणों ने आकर मेरी पंखुड़ियों को खोला।
वह तो सूरज निकला, कमल खुल जाता है। रात होती है, आकाश तारों से भर जाता
है। फूल खिलते हैं, गंध उड़ती है। अब वर्षा आने को है, मेघ घिरेंगे, मेघ
घिरेंगे, वर्षा भी होगी, प्यासी धरती तृप्त भी होगी। यह सब हो रहा है। बस
इसी होने के महाक्रम में मैं भी एक हिस्सा हूं।
और चाहता हूं मेरा प्रत्येक संन्यासी इस महाक्रम में एक हिस्सा हो जाए।
उसे भाव ही न रहे अपने होने का, बस परमात्मा के होने का भाव पर्याप्त है,
उसके आगे और क्या चाहिए!
तुम तो मेरे संबंध में ऐसा ही सोचना जैसे पहाड़ से एक झरना गिरता हो, कि
पक्षी सुबह गीत गाते हों! तुम मुझे भूल ही जाओ। तुम जितना मेरे व्यक्ति को
भूल जाओगे उतने मेरे करीब आ जाओगे। जिस दिन मैं तुम्हें व्यक्ति की तरह
दिखाई ही न पडूगा उस दिन तुम बिलकुल मेरे साथ संयुक्त हो जाओगे, एक हो
जाओगे।
वही घड़ी गुरु और शिष्य के मिलन की घड़ी है न गुरु गुरु रह जाता, न शिष्य
शिष्य रह जाता। एक बचता है, दो खो जाते हैं। और उस दो के खो जाने में अमृत
की वर्षा है, आनंद के द्वार खुलते हैं, प्रभु के मंदिर में प्रवेश होता है!
और वही मेरा संदेश है।
उत्सव आमारजाति, आनंद आमारगोत्र।
ओशो
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