दो प्रकार के साधक हैं। एक प्रकार का साधक सदा इस खोज में रहता है कि
क्या किया जाए। वह साधक गलत मार्ग पर है, क्योंकि प्रश्न करने का बिलकुल
नहीं है। प्रश्न है होने का, प्रश्न है कि क्या हुआ जाए। कभी भी कृत्य की,
करने की भाषा में मत सोचो। क्योंकि तुम जो भी करोगे वह व्यर्थ होगा—अगर तुम
उसमें मौजूद नहीं हो। चाहे तुम संसार में रहो या मंदिर में रही, चाहे तुम
भीड़ में रहो या हिमालय के एकांत में चले जाओ, इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला
है। तुम यहां भी गैर मौजूद रहोगे और वहां भी गैर मौजूद रहोगे। और तब तुम
भीड़ में या एकांत में जो भी करोगे, वह दुख लाएगा। तुम यदि उपस्थित नहीं हो
तो तुम जो भी करोगे वह गलत होगा।
दूसरे ढंग का साधक सही ढंग का साधक इस खोज में नहीं रहता है कि क्या
किया जाए; उसकी खोज यह होती है कि कैसे हुआ जाए। कैसे हुआ जाए, यह पहली बात
है। एक बार एक आदमी गौतम बुद्ध के पास आया। उसके हृदय में बहुत सहानुभूति,
बहुत दया थी। उसने गौतम बुद्ध से पूछा ‘मैं संसार की क्या सहायता कर सकता
हूं?’
कहते हैं कि बुद्ध हंसे और उन्होंने उस आदमी से कहा. ‘तुम कोई सहायता
नहीं कर सकते, क्योंकि तुम नहीं हो। तुम कैसे कुछ कर सकते हो, जब तुम ही
नहीं हो? अभी संसार की फिक्र मत करो। मत चिंता लो कि सहायता कैसे की जाए,
दूसरों की सेवा कैसे की जाए।’ बुद्ध ने कहा. ‘पहले होओ। और जब तुम होगे तो
तुम जो भी करोगे वह सेवा हो जाएगी, प्रार्थना हो जाएगी, करुणा हो जाएगी।
तुम्हारी उपस्थिति तुम्हारे जीवन में एक नया मोड़ बन जाएगी, तुम्हारा होना
एक क्रांति बन जाएगा।’
तो दो मार्ग हैं, कर्म का मार्ग और ध्यान का मार्ग। और वे एक दूसरे के
विपरीत हैं सर्वथा विपरीत। कर्म का मार्ग बुनियादी रूप से तुम्हारे कर्ता
होने से संबंधित है। वह तुम्हारे कर्मों को बदलने की कोशिश करेगा, वह
तुम्हारे चरित्र को, नीति नियम को बदलने की कोशिश करेगा, वह तुम्हारे
संबंधों को बदलने की कोशिश करेगा। लेकिन वह कभी तुम्हें बदलने की कोशिश
नहीं करेगा।
ध्यान का मार्ग बिलकुल उलटा है। वह तुम्हारे कर्मों की फिक्र नहीं करता,
वह सीधे और इसी क्षण में तुम्हारी फिक्र करता है। तुम क्या करते हो, यह
अप्रासंगिक है, प्रासंगिक यह है कि तुम क्या हो। और यही बुनियादी और
प्राथमिक बात है, क्योंकि सारे कर्म तुमसे निकलते हैं।
स्मरण रहे, तुम्हारे कृत्य बदले जा सकते हैं, सुधारे जा सकते हैं, उनके
स्थान पर ठीक विपरीत कृत्य लाए जा सकते हैं, लेकिन उनसे तुम्हारा रूपांतरण
नहीं होगा। कोई भी बाह्य बदलाहट आंतरिक क्रांति नहीं ला सकती; क्योंकि
बाह्य बहुत ऊपर ऊपर है और उससे तुम्हारा अंतरस्थ मन अछूता रह जाता है। तुम
क्या करते हो, इससे तुम्हारा अंतरतम अस्पर्शित रह जाता है। क्रांति ठीक
विपरीत दिशा से आती है, अगर अंतरस्थ केंद्र बदल जाए तो बाह्य अपने आप ही
बदल जाता है।
तो मूलभूत प्रश्न पर विचार करो। तो ही हम ध्यान की इन विधियों में
प्रवेश कर सकते हैं। तुम क्या करते हो, इसकी चिंता मत लो। वह असली समस्या
से बचने की एक तरकीब हो सकती है, एक चाल हो सकती है। उदाहरण के लिए, तुम
हिंसक हो और तुम अहिंसक होने के सब प्रयत्न कर सकते हो। तुम सोच सकते हो कि
अहिंसक बनकर मैं धार्मिक हो जाऊंगा, अहिंसक बनकर मैं परमात्मा के निकट
पहुंच जाऊंगा। तुम क्रूर हो और तुम करुणावान बनने के सब उपाय कर सकते हो।
तंत्र सूत्र
ओशो
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