लोग मुझसे पूछते हैं कि आप गांव-गांव क्यों नहीं घूमते? अगर मैं
गांव-गांव घूमूं तो मैं पागल हूं। बुद्ध को घूमना पड़ा क्योंकि और कोई उपाय न
था। मैं तो यहां एक जगह बैठकर सारी दुनिया से लोगों को बुला ले सकता हूं,
जरूरत नहीं है गांव-गांव घूमने की। और गांव-गांव मैं घूमूं तो जो काम मैं
एक जगह बैठकर कर सकता हूं, वह नहीं हो सकेगा।
लोग मुझसे पूछते हैं कि प्रचार की क्या आवश्यकता है? बुद्ध ने तो नहीं
किया। तो बुद्ध बयालीस साल क्या करते रहे, मक्खियां मारते रहे? हां, अखबार
में नहीं प्रचार किया क्योंकि अखबार नहीं थे। रेडियो और टेलीविजन और फिल्म
नहीं बनाई क्योंकि नहीं बन सकती थी। बन सकती होती तो तुम जैसे बुद्धू नहीं
थे कि नहीं बनाते। जो भी साधन उपलब्ध हो सकते थे सत्य को पहुंचाने के लिए
उन्होंने उनका उपयोग किया। अपने शिष्यों को भेजा दूर-दूर तक।
आज विज्ञान ने बहुत साधन उपलब्ध कर दिए हैं। उन सारे साधनों का उपयोग
किया जाना जरूरी है। और मनुष्य को एक बहुत बड़ी संपदा आज मिली है जो कभी
नहीं मिल सकती थी पहले। यहूदी और ईसाई और जैन और बौद्ध इन सबने अलग-अलग,
अपने-अपने देशों में, अपनी-अपनी धाराओं में, अपने-अपने ढंग से, जीवन-सत्य को पाने के लिए विधियां खोजी थीं। आज हम
सारी विधियों को साथ अनुभव कर सकते हैं, साथ समझ सकते हैं। आज सारी विधियों
का निचोड़ निकाल सकते हैं। वही महत् कार्य यहां हो रहा है। यहां सूफियों का
नृत्य हो रहा है, बौद्ध भिक्षु आता है तो वह हैरान होता है क्योंकि बौद्ध
भिक्षु तो सिर्फ बैठकर ही ध्यान करना जानता है। उसे यह पता ही नहीं है कि
ध्यान नृत्य करके भी हो सकता है। और जब सूफी फकीर आता है तो वह भी हैरान
होता है क्योंकि वह सोचता है सिर्फ नाचकर ही ध्यान हो सकता है। लेकिन यहां
विपस्सना का प्रयोग भी हो रहा है, लोग आंख बंद किए घंटों बैठे हुए हैं।
सूफी समझ नहीं पाता विपस्सना को, बौद्ध समझ नहीं पाता सूफी के दरवेश
नृत्य को। उदारता चाहिए, बड़ा दिल चाहिए, बड़ी छाती चाहिए। इस प्रयोग को
समझने के लिए बड़ी गहरी समझ, बड़ी शुद्ध समझ चाहिए। इसलिए यह प्रयोग बहुत
थोड़े-से लोग ही कर पाएंगे, लेकिन वे धन्यभागी होंगे जो इस प्रयोग को कर
पाएंगे। क्योंकि यही प्रयोग भविष्य की आधारशिला बनेगा, यही प्रयोग भविष्य
के मंदिर की पहली ईंट है। जब मंदिर की आधारशिला रखी जाती है तो तुम्हें
मंदिर के शिखर तो दिखाई नहीं पड़ते; अभी तो शिखर आए ही नहीं, दिखाई भी कैसे
पड़ेंगे। यह तो बहुत स्वप्नद्रष्टा जो होते हैं, भविष्यद्रष्टा जो होते
हैं कवि और मनीषी, वे केवल देख पाएंगे कि जो आज ईंट रखी जा रही है बुनियाद
की वह केवल ईंट नहीं है, जल्दी ही उस पर स्वर्ण-शिखर चढ़ेंगे। लेकिन
स्वर्ण-शिखरों की बुनियाद में ईंट होती हैं।
और ध्यान रखें कि मंदिर सिर्फ ईंट ही नहीं होता, ईंटों के जोड़ से कुछ
ज्यादा होता है। कोई काव्य सिर्फ शब्दों का ही जोड़ नहीं होता, शब्दों के
जोड़ से ज्यादा होता है। कोई संगीत सिर्फ स्वरों का जोड़ नहीं होता, स्वरों
का अतिक्रमण होता है? जो लोग बाहर-बाहर से देखेंगे उनको तो दिखाई पड़ेगा कि
क्या हो रहा है? सिर्फ ईंटें रखी जा रही हैं। अभी तो ईंटें रखी जा रही हैं
लेकिन जल्दी यह मंदिर बनेगा, इस पर स्वर्ण-शिखर चढ़ेंगे। और तब जिन लोगों ने
ईंट रखी हैं उनके आनंद का पारावार न रहेगा; उनके भी हाथ उपयोग में आए इस
महत् मंदिर के बनने की प्रक्रिया में।
बुद्ध भी यही चाहते थे, महावीर भी यही चाहते थे, कृष्ण भी यही चाहते थे;
लेकिन जो उस समय हो सकता था उन्होंने किया, जो आज हो सकता है वह आज किया
जाएगा। लेकिन इतने पर ही अंत नहीं हो जाता, मनुष्य तो विकासमान है, रोज
विकसित होता रहेगा; भविष्य में बुद्ध आते रहेंगे और इस मंदिर के नए-नए रूप
प्रगट होते रहेंगे। इस मंदिर पर ही कोई यात्रा समाप्त नहीं हो जाने वाली
है। इसलिए सच्चा धार्मिक आदमी नए मंदिरों को अंगीकार करने की क्षमता रखता
है। ये तो झूठे धार्मिक आदमी हैं जो नए मंदिर को इनकार करते हैं, जो पुराने
की ही पूजा करते हैं, जो मुर्दा की ही पूजा करते हैं।
स्मरण है, कल भीखा ने कहा : धन्यभागी हैं जो जीवित ब्रह्म की वाणी को
समझ लें। बहुत आसान है सदियों के बाद सद्गुरुओं को समझना क्योंकि तब तक
उनके पीछे परंपरा, इतिहास, पुराण की लंबी धारा खड़ी हो जाती है। लेकिन जब
कोई सद्गुरु पहली बार खड़ा होता है तो उसके पीछे कोई परंपरा नहीं होती, वह
अपरिभाष्य होता है। उसे किस कोटि में रखें, किस गणना में रखें यह भी समझ
में नहीं आता। उसे क्या कहें यह भी समझ में नहीं आता। उसके लिए अभी भाषा भी
नहीं है, शब्द भी नहीं है; परिभाषा भी नहीं है, व्याख्या भी नहीं है।
धीरे-धीरे व्याख्या खोजी जाएगी, परिभाषा खोजी जाएगी। लेकिन समय लगेगा। और
तब तक सद्गुरु विदा हो जाता है। तब तक पिंजड़ा पड़ा रह जाता है, हंसा उड़ जाता
है।
जिनके पास आंखें हैं वे इन छोटी बातों में नहीं पड़ते कि व्याख्या,
परिभाषा, कोटि। वे तो सीधे आंख में आंख डालकर देखने की चेष्टा करते हैं, वे
तो सीधे प्रयोग में सम्मिलित हो जाते हैं। वैसा प्रयोग ही संन्यास है।
संन्यास का अर्थ है : तुम बिना चिंता किए मेरे साथ अज्ञात में उतरने को
तैयार हो। तुम जोखिम उठा रहे हो, तुम मेरे साथ एक नाव में उतर रहे हो जो
अज्ञात सागर में जाएगी। दूसरे किनारे का कोई पता नहीं है और दूसरे किनारे
का कोई आश्वासन भी नहीं दिया जा सकता। यह यात्रा ऐसी है कि इसमें आश्वासन
होते ही नहीं। इसमें आश्वासन दिए कि यात्रा खराब हुई क्योंकि आश्वासन से
अपेक्षा पैदा होती है। और जहां अपेक्षा है वहां वासना है। और जहां वासना है
वहां प्रार्थना नहीं।
गुरु प्रताप साध की संगति
ओशो
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