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Wednesday, December 26, 2018

मन कभी-कभी निर्लिप्त सा मालूम देता है, लेकिन क्षण भर। और उस क्षण आनंद और प्रसन्नता का अनुभव होता है। थोड़ी कृपा और करो, ताकि मैं निर्लिप्त हो जाऊं; क्योंकि क्षण भर की निर्लिप्तता स्वप्नवत है।




पहल बात, लोभ से न भरो। ध्यान में लोभ को मत लाओ, नहीं तो ध्यान खो जाएगा; जो क्षणभर मिल रहा है, वह भी खो जाएगा। अगर क्षण भर में मिल रहा है जो, उसे भी गंवाना हो, तो लोभ को ले आना।

 
यह मैं यहां रोज देखता हूं। जब ध्यान की घटना शुरू होती है, स्वभावतः लोभ जगता है। लोभ तो पड़ा है भीतर। लोभ कोई धन का ही थोड़े होता है, ध्यान का भी होता है। लोभ तो लोभ है; किस चीज का इससे कोई संबंध नहीं है।

 
लोभ का मतलब हैः और ज्यादा। धन हो, तो और ज्यादा। पद हो, तो और ज्यादा। प्रतिष्ठा हो, तो और ज्यादा। जो भी हो, वह और ज्यादा। यही लोभ पड़ा है तुम्हारी मटकी में। इस लोभ को बाहर विदा करो। अन्यथा जब ध्यान आएगा, यह लोभ कहेगाऔर ज्यादा। क्षणभर में क्या होगा! शाश्वत चाहिए।

 
अब थोड़ा समझो। एक बार में एक ही क्षण तो मिलता है। दो क्षण तो साथ कभी मिलते नहीं। अगर एक क्षण में भी शांत होना आ गया, तो और क्या चाहिए! सारा जीवन शांत हो जाएगा। एक क्षण में शांत होना आ गया, तो तुम्हारे हाथ में कला आ गई। मगर यह लोभ कहेगा कि एक क्षण की शांति से क्या होता है!

 
एक-एक कदम चल कर आदमी हजार मील की यात्रा पूरी कर लेता है। कोई हजारों कदम एक साथ तो चल भी नहीं सकता। दो कदम भी एक साथ नहीं चल सकते। चलते तो तब हो, जब एक कदम चलते हो।

 
एक क्षण मिलता है एक बार में। जब एक चला जाता है हाथ से, तब दूसरा आता है। तुम्हें एक क्षण को ध्यान में रंगने की कला आ गई, धन्यभागी हो। अब लोभ को मत जगाओ, नहीं तो इस क्षण को भी नष्ट कर देगा।

 
अब तुम कहते होः क्षण भर की निर्लिप्तता स्वप्नवत है। यह तुम्हारा लोभ कह रहा है। तुम्हारी मांग पैदा होने लगी।

 
जब ध्यान की घटनी शुरू होती है, तो पहले तो क्षण में ही घटेगी; क्षण का ही द्वार खुलेगा; क्षण के ही झरोखे से पहले झांकोगे।

 
अब जब क्षण का झरोखा खुले, तो दो बातें संभव हैं। एक तो यह कि तुम धन्यवाद दो परमात्मा कोकि हे प्रभु, मैं इतना भी योग्य न था, तूने क्षण भर को खिड़की खोली, इतना भी बहुत है। मेरी पात्रता इतनी भी न थी। यह तेरे प्रसाद से ही हुआ होगा; यह तेरी अनुकंपा से हुआ होगा, क्योंकि तू रहीम है, रहमान है, इसलिए हुआ होगा। तू करुणावान है, इसलिए हुआ होगा। मेरी योग्यता से तो कुछ भी नहीं हुआ। एक तो यह भाव है। यह भक्त का भाव है।

 
भक्त कहता है कि नहीं, नहीं, मैं भरोसा नहीं कर पाता कि तू और ध्यान की झलक मुझे देगा! मैं तो पापी; मैं तो दीन-हीन; मैं तो बुरे से बुरा। भला मुझमें क्या है! मैं तो बुरा खोजने जाता हूं, तो मुझसे बुरा मुझे कोई नहीं मिलता। और भला खोजने जाता हूं, तो सभी मुझसे भले मुझे मिलते हैं। मुझ पर तेरी कृपा! मुझ अंतिम पर तेरी कृपा? जरूर तेरा प्रेम है, तेरी अनुकम्पा है। अकारण तू मुझ पर बरस रहा है।

 
यह अगर भाव रहे, तो ध्यान बढ़ेगा। गहरा होगा, क्योंकि इसमें लोभ नहीं है। इसमें विनय है; इसमें निर्वासना है। जितना मिला, उसके लिए धन्यवाद है। उतना ही क्या कम है! उसे स्वप्नवत मत कहो।
क्षण भर भी जो ध्यान मिलता है, वह भी स्वप्न नहीं। और सौ वर्ष की भी जो जिंदगी है, वह भी स्वप्न है। ध्यान तो सत्य ही है क्षण भर मिले, कि शाश्वत मिले। और जिंदगी तो स्वप्न ही है क्षण भर रहे, कि सदा रहे; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

 
समय की मात्रा से सत्य और असत्य का कोई संबंध नहीं है।
 
अनुग्रह को जगाओ; लोभ को विदा करो।

नहीं साँझ नहीं भोर 

ओशो

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