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Wednesday, December 26, 2018

जब गुरु शिष्य की मौत ही है, तो झटके से क्यों नहीं मार डालते? हलाल क्यों करते हैं?


कारण है। एक छोटी कहानी से कहूं। एक आदमी दांत के डाक्टर के पास गया। उसका दांत निकाला गया। लेकिन उसने इतना शोरगुल मचाया और इतनी हुल्लड़ की कि बाकी मरीज जो आए थे, वे सब भाग गए। जब डाक्टर ने उसको अपना बिल दिया, तो वह बिल साधारण से आठ गुना ज्यादा था। उस आदमी ने कहा, क्या मजाक कर रहे हो? कभी सुना है, एक दांत निकालने का इतना पैसा? यह तो आठ-दस गुना ज्यादा मालूम पड़ता है।

उस डाक्टर ने कहा कि नहीं, वे जो आठ मरीज भाग गए, उनका पैसा कौन देगा?

तुम्हें एक झटके से तो मार डालूं, मगर और मरीज भाग जाएंगे। ऐसे धीरे-धीरे हलाल करना पड़ता है। और जैसे-जैसे तुम तैयार होते हो, वैसे-वैसे ही मारे जा सकते हो। क्योंकि मृत्यु कोई साधारण घटना नहीं है।

गुरु के पास जो मृत्यु घटित होती है, वह तो परम घटना है। वह तो परम जीवन का द्वार है। उसकी तुम्हारी तैयारी भी तो होनी चाहिए। वह कोई आत्महत्या थोड़े ही है, कि जिसने चाहा, उसने कर ली। आत्महत्या के लिए कोई गुणधर्म तो नहीं चाहिए। कोई भी कूद पड़े पहाड़ से मर जाएगा। पानी में गिर पड़े, डूब जाएगा। कुएं में गिर जाए, मर जाएगा। जहर खा ले।

 
आत्महत्या तो नहीं है, गुरु के पास जो घटना घटती है, वह तो परम-मृत्यु है। उसको ही तो हमने समाधि कहा है।

यह हमारा शब्द समाधिबड़ा बहुमूल्य है। जब संन्यासी मरता है तो उसकी कब्र को भी हम समाधि कहते हैं। और जब कोई व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध होता है तब भी उसको हम समाधि कहते हैं। वह भी एक कब्र बन गई।

पुराना तो गया, नहीं बचा; नये का जन्म हुआ। रात टूट गई, सुबह हुई। अब सुबह का रात से क्या लेना-देना? सुबह का सूरज और सुबह पक्षियों के गीत और आकाश में फैला किरणों का जाल, इससे क्या संबंध है उस अंधेरी रात का, जो अभी-अभी थी? रात तो मर गई। रात में और दिन में कोई सिलसिला थोड़े ही है! राम और दिन किसी एक ही चीज का फैलाव थोड़े ही मालुम होते हैं। दोनों के बीच एक अंतराल है। रात रात है, दिन दिन है।

जब ध्यान गहरा होगा तो तुम अचानक पाओगे कि तुम्हारा जो कल तक था, तुम्हारा अतीत, वह ऐसे ही चला गया, जैसे सुबह रात खो जाती है। और एक नये व्यक्तित्व का जन्म हुआ, एक नई आत्मा बिल्कुल कुंआरी और ताजी पैदा हुई; जिससे तुम अपरिचित थे, जिसे तुमने कभी जाना ही न था। यह द्वार भी है तुम्हारे भीतर। यह तुमने कभी खोला ही न था।

और इस द्वार के भीतर परमात्मा विराजमान है सिंहासन पर। इसकी तुम्हें कभी भनक भी न पड़ी थी। तुम तो अपने घर के बाहर-बाहर जी लिए थे। तुम तो भीतर कभी आए ही न थे। यह जो भीतर आया है, वह बिल्कुल नया है। मृत्यु का यही अर्थ है।

गुरु मृत्यु है; इसका अर्थ है, कि गुरु के पास तुम्हारा अतीत, तुम्हारा जराजीर्ण, तुम्हारा पुराना मरेगा; अभिनव का, अलौकिक का, अज्ञात का जन्म होगा।

यह आत्महत्या होती तो एक क्षण में भी हो जाती। तैयार होना पड़ेगा। यह मृत्यु तुम्हारी तैयारी से आएगी। यह तो तुम्हें अहंकार को छोड़ने की क्षमता आएगी, तभी हो सकती है। यह गुरु के हाथ में नहीं है, कि वह तुम्हें हलाल कर दे या झटके से मार डाले। धीरे-धीरे मारे, या जल्दी मार डाले; यह तुम्हारे हाथ में है। अगर तुम राजी हो, तो एक क्षण में भी गुरु मार डाल सकता है। गुरु को क्या अड़चन है? तुम्हारी देर से ही देर होती है। लेकिन तुम राजी नहीं हो, इसलिए गुरु तुम्हें लुभाता है, समझाता है, बुझाता है, राजी करता है। हजार बातें समझाता है, जिनके बिना समझाए चल जाता। लेकिन तब तुम भाग खड़े होते। तब तुम डर जाते। तब तुम भयभीत हो जाते।

क्योंकि तुम तो मृत्यु का अर्थ एक ही जानते हो..मर जाना, मिट जाना। वह दूसरा अर्थ, कि मृत्यु के बाद एक पुनरुज्जीवन है, वह तो तुम्हें पता नहीं है। वह गुरु को पता होगा, लेकिन उसका पता होना तुम्हारे काम नहीं आ सकता। तुम तो उसके हाथ में छुरी देखकर घबड़ा जाओगे।

 
तो वह छुरी छिपा कर रखता है। फूलों में ढांकता है। शब्दों और सिद्धांतों में रखता है। शास्त्रों में दबा देता है। वह तुम्हें देखने नहीं देता। वह तुम्हें उसी दिन देखने देगा, जिस दिन तुम्हें इस बोध की थोड़ी सी भनक पड़नी शुरू हो जाएगी, कि मरे बिना महाजीवन नहीं मिलता। मिटे बिना परमात्मा होने का कोई उपाय नहीं। खोना ही पाना है।

जिस दिन तुम राजी हो जाओगे, जैसे सागर में नदी खोने को राजी हो जाती है, गिर जाती है, तो खोती थोड़े ही है! पूरा सागर उसका अपना हो जाता है।

मेरा मुझ में कुछ नहीं 

ओशो


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