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Sunday, January 5, 2020

कृष्ण का नाम ही सुना है। शिव को जाना भी नहीं। किंतु कुंडलिनी ध्यान में ऐसा क्यों लगा कि यहीं शिव का नृत्य हो रहा है और यहीं की मुधर आवाज कृष्ण की बांसुरी की आवाज है? बिना पहचान के ऐसा आभास क्यों हुआ?


पन्नालाल पांडेय! सभी नृत्य कृष्ण का नृत्य है। सभी धुन कृष्ण की धुन है। कृष्ण तो प्रतीक हैं, नृत्य असली बात है। नाच तुम्हारे भीतर खिलने लगेगा तो सुनी हुई बात कृष्ण के नृत्य की अचानक सार्थक हो जाएगी। अचानक उसका अर्थ तुम्हारे अनुभव में आ जाएगा। गीत तुम्हारे भीतर खुलने लगेगा तो अचानक, तुमने सुना है कृष्ण की बांसुरी की टेर--उसकी बात ही सुनी है--मगर जब तुम्हारे भीतर टेर खुलने लगेगी और तुम्हारे भीतर पुकार आने लगेगी तो तुम्हें वही प्रतीक याद आ जाएगा जो सुना है। स्वाभाविक।


ऐसा किसी ईसाई को नहीं होगा। ऐसा किसी जैन को भी नहीं होगा। जैन भी कुंडलिनी कर रहे हैं। उनको कृष्ण की टेर नहीं सुनाई पड़ेगी। उनको शिव का नृत्य नहीं दिखाई पड़ेगा। वह प्रतीक उनके भीतर नहीं है। नृत्य तो उनके भीतर भी होगा, स्वर उनके भीतर भी जागेगा, मगर उस स्वर को प्रकट करने वाला प्रतीक उनके पास नहीं है। तुमने सुना है, तुम्हारे पास प्रतीक है। इसलिए प्रतीक एकदम जीवंत हो उठा। इससे चौंको मत। इससे कृष्ण का कुछ लेना-देना नहीं है। तुम्हारे मन में, तुम्हारी स्मृति में एक संस्कार है। अनुभव हुआ, अनुभव ने संस्कार सजग कर दिया।


लेकिन शुभ हुआ। सब प्रतीक प्यारे हैं मगर प्रतीक तभी यारे हैं जब उनका अर्थ तुम्हारे भीतर फले। घर में बैठे हो कृष्ण की मूर्ति लगाए, कि तस्वीर लटकाए, इससे कुछ भी न होगा। तुम्हारे भीतर नाच उठे, तो कुछ हुआ। घर में बैठे हो महावीर की प्रतिमा बिठाए, इससे कुछ भी न होगा। जब तुम्हारे भीतर सब स्थिर हो जाएगा महावीर जैसा, निस्तरंग! अब जैसे तुम्हें यह हुआ, ऐसे ही विपस्सना ध्यान में किसी जैन को अचानक महावीर की याद आ जाएगी, उनकी प्रतिमा आ जाएगी। हिंदू के पास वैसा प्रतीक नहीं है।


सब धर्मो ने प्रतीक चुन लिए हैं।


और मैं तुम्हें यहां जिस वातावरण में प्रवेश दे रहा हूं, यह सारे धर्मो का वातावरण है। यह किसी एक संप्रदाय का मंदिर नहीं है। इस मंदिर के सब द्वार खुले हैं! एक तरफ से यह मस्जिद है, एक तरफ से यह मंदिर है, एक तरफ से गिरजा है, एक तरफ से गुरुद्वारा है, एक तरफ से चैत्यालय है। इन सब द्वारों से मंदिर में प्रवेश संभव है। यहां जब कोई मस्त हो जाएगा, अगर उसके पास कृष्ण का प्रतीक है, तो अचानक उसे समझ में आएगी पहली दफा बात कृष्ण के रास की और अगर किसी ने मीरा को प्रेम किया है तो नाचते में उसे मीरा की याद आ जाएगी, मीरा के भजन गूंज उठेंगे। किसी ने चैतन्य को प्रेम किया है, अचानक उसे लगेगा कि चैतन्यमय हो गया। किसी ने महावीर को चाहा है, महावीर की परंपरा में पैदा हुआ है, महावीर का प्यारा प्रतीक उसके मन में बैठा है, मौन जब सधेगा, सब स्थिर जब होगा, तब उसे लगेगा कि आज जाना। बहुत गया जैन मंदिरों में, बहुत की पूजा, बहुत चढ़ाए चावल, बहुत झुका, लेकिन आज दर्शन हुए। आज अपने भीतर दर्शन हुए!


यहां तो अलग-अलग धर्मो के लोग हैं। शायद पृथ्वी पर ऐसी कोई और दूसरी जगह नहीं है जहां सारे धर्मो के लोग हों! यहां ईसाई हैं, पारसी हैं, यहूदी हैं, मुसलमान हैं--यहां सारी जातियों के लोग हैं, सारे देशों के लोग हैं। सारे प्रतीकों को ले आए हैं। यह बड़ी समृद्ध जगह है। सातों रंग यहां हैं, यह पूरा इंद्रधनुष है। और मैं चाहता यह हूं कि तुम धीरे-धीरे सभी प्रतीकों में लीन होने लगो। कृष्ण का ही प्रतीक क्यों रहे, महावीर का प्रतीक भी जुड़ जाए, बुद्ध का प्रतीक भी जुड़ जाए। क्योंकि ध्यान की अलग-अलग स्थितियों में सारे प्रतीकों के अर्थ हैं। ध्यान में मस्ती भी आती है, बांसुरी भी बजती है, मौन भी छा जाता है, शून्य भी प्रगट होता है। ध्यान के बड़े चढ़ाव हैं, बड़े पड़ाव हैं। अलग-अलग अर्थ अलग-अलग पड़ावों पर खुलते हैं। धर्मो ने एक-एक पड़ाव को पकड़ लिया है। मैं तुम्हें पूरी यात्रा देता हूं। इस यात्रा में सब पड़ाव आते हैं, सब तीर्थ आते हैं। इस यात्रा में काशी आती है और काबा आता है और कैलाश आता है और गिरनार भी, और जेरूसलम। हम एक विश्वयात्रा पर निकले हैं।


तो तुम अपने ही प्रतीकों में बंधे मत रह जाना। तुम धीरे-धीरे अपने मन को खोलो; और प्रतीकों को भी अपने निकट आने दो। तुम औरों के प्रतीक भी सीखो और समझो। क्योंकि जितने प्रतीक तुम जानोगे, उतनी ही तुम्हारी भाषा समृद्ध होगी। तुम्हारा भाव समझने में आसानी होगी।

अरी में तो नाम के रंग छकी 

ओशो

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