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Monday, January 13, 2020

प्रतीकों से अभिव्यक्ति




प्रतीक जिस वस्तु को अभिव्यक्त करता है उसका ज्यादा महत्व नहीं रह गया है। गुलाब का महत्व नहीं है 'गुलाब' शब्द महत्वपूर्ण हो गया है। और मनुष्य शब्द का इतना आदी हो गया है शब्द से इतना आविष्ट हो गया है कि शब्द से प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं। कोई 'नींबू' का नाम ही लेता है तो तुम्हारे मुंह में पानी आता है। यह शब्द का आदी हो जाना है। हो सकता है नींबू भी इतना प्रभावकारी न हो भले ही नींबू टेबल पर रखा हो और तुम्हारे मुंह में पानी भी न आए। लेकिन कोई कहता है 'नींबू? और तुम्हारे मुंह में पानी आ जाता है। शब्द वास्तविक से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है- यही उपाय है-और जब तक तुम इस शब्द- आसक्ति को नहीं छोड़ते तुम्हारा वास्तविकता से साक्षात्कार नहीं होगा। दूसरा कोई और अवरोध नहीं है।


बिलकुल भाषारहित हो जाओ और अचानक वास्तविकता वहां है-वह सदा से ही वहां है। अचानक तुम्हारी आंखें स्पष्ट होती हैं; तुम्हें स्पष्टता उपलब्ध होती है और सब आलोकित हो जाता है। सभी ध्यान-विधियों की बस यही चेष्टा है कि भाषा को कैसे छोड़ा जाए। समाज को त्याग देने से कुछ नहीं होगा, क्योंकि बुनियादी तौर पर समाज भाषा के सिवाय और कुछ नहीं है।


इसीलिए पशुओं के समाज नहीं हैं, क्योंकि भाषा नहीं है। जरा सोचो अगर तुम बोल न सकते, अगर तुम्हारे पास कोई भाषा न होती, तो समाज का अस्तित्व कैसे होता? असंभव! कौन तुम्हारी पत्नी होती? कौन तुम्हारा पति होता? कौन तुम्हारी मां होती और कौन तुम्हारा पिता होता?


बिना भाषा के सीमाएं संभव नहीं हैं। इसीलिए पशुओं के समाज नहीं हैं। और अगर कोई समाज है उदाहरण के लिए चींटियों और मधुमक्खियों का तो तुम सोच सकते हो कि भाषा जरूर होगी। और अब वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि मधुमक्खियों की भाषा होती है-बहुत ही छोटी भाषा केवल चार शब्दों की लेकिन उनकी एक भाषा है। चींटियों की कोई भाषा जरूर होगी उनका इतना व्यवस्थित समाज है वह भाषा के बिना नहीं हो सकता।


समाज का अस्तित्व भाषा के कारण है। जैसे ही तुम भाषा से बाहर हो जाते हो, समाज मिट जाता है। हिमालय जाने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि अगर तुम अपनी भाषा साथ ले जाते हो तो भले ही तुम बाहर से अकेले होओ लेकिन भीतर समाज होगा। तुम मित्रों से बात कर रहे होओगे अपनी या दूसरों की पत्नी से प्रेम कर रहे होओगे खरीद-फरोख्त चल रही होगी। जो कुछ भी तुम यहां कर रहे थे वहां भी वही जारी रखोगे।


एक ही हिमालय है और वह है अंतर-चेतना की एक अवस्था, जहां भाषा नहीं है। और यह संभव है- क्योंकि भाषा एक प्रशिक्षण है वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है। तुम भाषा के बिना पैदा हुए थे। भाषा तुम्हें दी गई है तुम उसे प्रकृति से लेकर नहीं आए हो। वह प्राकृतिक नहीं है, वह समाज का सह-उत्पाद है।

शून्य की किताब

ओशो 


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