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Sunday, May 10, 2020

माना कि आत्मज्ञानी के लिए निजी सुख—दुख के अनुभव समाप्त हो जाते हैं, लेकिन वे भी तो दूसरों के सुख—दुख से सुखी—दुखी होते ही होंगे न! कृपा कर प्रकाश डालें।


 

नहीं, जिसके सुखदुख के अनुभव समाप्त हो गए, वह दूसरे के सुखदुख से भी प्रभावित नहीं होता। तुम्हें कठिनाई होगी यह बात सोच कर, क्योंकि तुम सोचते हो कि उसे तो बहुत प्रभावित होना चाहिए तुम्हारे सुखदुख से। नहीं, उसे तो दिखाई पड़ गया कि सुखसुख होते ही नहीं हैं। तो तुम्हारा सुखदुख देख कर तुम पर दया आती है, लेकिन सुखीदुःखी नहीं होता। सिर्फ दया आती है कि तुम अभी भी सपने में पड़े हो!

ऐसा समझो कि दो आदमी सोते हैं, एक ही कमरे में, दोनों दुखस्वप्न में दबे हैं, दोनों बड़ा नारकीय सपना देख रहे हैं। एक जग गया। निश्चित ही जो जग गया अब उसे सपने के सुखदुख व्यर्थ हो गए। क्या तुम सोचते हो दूसरे को पास में बड़बड़ाता देख कर, चिल्लाता देख कर, उसकी बात सुन कर कि वह कह रहा है,’हटो, यह राक्षस मेरी छाती पर बैठा है,' यह दुखीसुखी होगा? यह हंसेगा और दया करेगा। यह कहेगा कि पागल! यह अभी भी सपना देख रहा है। यह इसके राक्षस को हटाने की कोशिश करेगा कि इसकी छाती पर राक्षस न हो? राक्षस तो है ही नहीं, हटाओगे कैसे? हटाने के लिए तो होना चाहिए। यह तो देख रहा है कि सज्जन अपनी ही मुट्ठी बांधे छाती पर, पड़े हैं। और गुनगुना रहे हैं कि राक्षस बैठा है, यह रावण बैठा दस सिर वाला मेरे ऊपर! इसको हटाओ!

यह जो जाग गया है, क्या करेगा? यह इस आदमी को भी जगाने की कोशिश करेगा। इसके दुख को हटाने की नहींइसको जगाने की। फर्क साफ समझ लेना। जब बुद्ध तुम्हें दुखी देखते हैं, तो तुम्हारे दुख को मान नहीं सकते कि है; क्योंकि वे तो जानते हैं दुख हो ही नहीं सकता, भ्रांति है। तुम्हें जगाने की कोशिश करते हैं। तुम्हें भागते देख कर कि तुम रस्सी को सांप समझ कर भाग रहे हो, वे एक दीया ले आते हैं। वे कहते हैं, जरा रुको तो, जरा इस सांप को गौर से तो देखें, है भी? उस प्रकाश में रस्सी तुम्हें भी दिखाई पड़ जाती है, तुम भी हंसने लगते हो।

ज्ञानी पुरुष तुम्हारे सुखदुख से जरा भी प्रभावित नहीं होता। और जो प्रभावित होता हो, वह ज्ञानी नहीं है। यद्यपि तुम्हारे सुखदुख से दया उसे जरूर आती है। कभीकभी हंसता भी हैदेख कर सपने का बल, व्यर्थ का बल; देख कर झूठ का बल!

ऐसा ही समझो, एक छोटा बच्चा है, और उसकी गुड़िया की टांग टूट गयी और वह रो रहा है। तुम क्या करते हो? रोते हो उसके पास बैठ कर? तुम भी दुखी होते, आंसू झारते हो? तुम उससे कहते हो कि बेटा, नासमझ, यह गुड़िया ही है! टूटने को ही थी। इसमें कोई प्राण थोड़े ही हैं कि तू परेशान हो रहा है? यह टांग कोई असली टांग थोड़े ही है।हालांकि तुम्हारी समझ की बातें शायद बेटे को समझ न भी आयें। लेकिन तुम भी जानते हो, यह भी बड़ा होगा कल, थोड़ी प्रौढ़ता आयेगी, गुड्डागुड्डी भूल जायेगा। फेंक देगा कहीं फिर, लौट कर देखेगा भी नहीं। अभी बचपना है, तो गुड्डागुड्डियों से खेल रहा है।



अष्टावक्र महागीता 

ओशो





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