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Thursday, May 21, 2020

मन बिना द्वंद्व के ठहर नही सकता



मन जहां तक है, वहां तक द्वंद्व भी रहेगा। मन बिना द्वंद्व के ठहर भी नही सकता; पलभर भी नहीं ठहर सकता। मन के होने का ढंग ही द्वंद्व है। वह उसके होने की बुनियादी शर्त है।



अगर तुम्हारे मन में प्रेम होगा तो साथ ही साथ कदम मिलाती घृणा भी होगी। जिस दिन घृणा विदा हो जाएगी, उसी दिन प्रेम भी विदा हो जाएगा।



इसलिए तो बुद्ध पुरुषों का प्रेम बड़ा शीतल मालूम पड़ता है। वह उष्णता प्रेम की, जो हम सोचते हैं, दिखाई नहीं देती। वैसा प्रेम गया। वह ज्वार, वह ज्वर गया। इसलिए तो बुद्ध पुरुषों के प्रेम को हमने प्रेम भी नहीं कहा, करुणा कहा है, प्रार्थना कहा है। प्रेम कहना ठीक नहीं मालूम पड़ता। प्रेम का पैशन, त्वरा, तूफान, वहां कुछ भी नहीं है।



ऐसा ही समझो कि सागर में लहरें उठी हैं, बड़ी आधी आई, बड़ा तूफान आया है, फिर लहरें शांत हो गईं। तो क्या तुम यह कहोगे—जब सागर में कोई तूफान न होगा—कि अब तूफान है लेकिन शांत है? तूफान बचा ही नहीं। अब यह कहना कि तूफान है और शांत है, व्यर्थ की बात हुई। शांत होने को अर्थ ही है कि तूफान न रहा। और जब सागर में तूफान उठता है तो अकेले सागर से नहीं उठता, हवाओं के थपेड़े भी चाहिए, आंधिया चाहिए। अकेले से कहीं तूफान उठे हैं! दो चाहिए, द्वंद्व चाहिए, संघर्ष चाहिए।



मन का सारा गुबार, मन की धूल के बवंडर द्वंद्व से उठते हैं। एक तरफ प्रेम—पैर मिलाती चलती घृणा भी साथ है। ही, तुम भूल जाते हो। जब तुम प्रेम से भरते हो, तुम घृणा को भूल जाते हो। जब तुम घृणा से भरते हो, तुम प्रेम को भूल जाते हो। क्योंकि दोनों को एक साथ देखना तुम्हारी सामर्थ्य के बाहर है। जिस दिन दोनों को साथ देख लोगे, दोनों से मुका हो जाओगे।



एक तरफ श्रद्धा करते हो, दूसरी तरफ अश्रद्धा भी पलती है। जिसके भीतर श्रद्धा है, उसी के भीतर अश्रद्धा हो सकती है।



इसे समझने की कोशिश करना। अगर कोई मेरे संबंध में अश्रद्धा से भरा है तो जान लेना कि कहीं पैर मिलाती श्रद्धा भी चलती होगी, उसने अभी देखी नहीं। इसलिए मेरे दुश्मनों को मेरे दुश्मन मत मान लेना, उनमें मेरे मित्र भी छिपे हैं, मौजूद हैं। आज नहीं कल प्रगट हो जाएंगे। जो मेरी निंदा करने का कष्ट उठाता है, उसके भीतर कहीं प्रशंसा छिपी है। अन्यथा निंदा भी व्यर्थ हो जाएगी। कौन निंदा की चिंता करेगा? जरूर कुछ राग है। जरूर मुझसे कुछ जोड़ है, कोई सेतु है।



दुश्मन के भीतर मित्रता छिपी है, मित्र के भीतर दुश्मनी छिपी है। इसलिए तुम किसी को दुश्मन न बना सकोगे अगर तुमने मित्र न बनाया। मित्र बनाकर ही दुश्मन बना सकते हो। मित्रता पहला कदम है।

एस धम्मो सनंतनो

ओशो


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