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Tuesday, April 2, 2019

मैंने कहा कि ज्ञान से मुक्त हो जाना जरूरी है। यह तो बड़ी अजीब बात है!


एक छोटी सी कहानी इस प्रश्न के उत्तर में कहूंगा।

बंगाल में एक फकीर हुआ। छोटा उसका एक आश्रम था। उस आश्रम में नये-नये लोग आते, ठहरते, ज्ञान लेते। एक नया संन्यासी भी आया, पंद्रह दिन तक वहां रुका, उसने उस वृद्ध संन्यासी की बातें सुनीं। लेकिन उसे लगा कि उस वृद्ध संन्यासी के पास बहुत बातें नहीं हैं, थोड़ी सी ही बातें हैं। रोज-रोज उन्हीं को दोहरा देता है। पंद्रह दिन में ऊब जाना युवक का स्वाभाविक था। वह ऊब उठा और उसने सोचाः छोड़ दूं इस आश्रम को, कहीं और खोजूं। यह जगह मेरे लिए नहीं, यह गुरु मेरे लिए नहीं, यह तो बंधी हुई कुछ थोड़ी सी बातें दोहराता है और बात समाप्त। इनको कब तक सुनूंगा? और क्या सीखूंगा? लेकिन जिस संध्या वह छोड़ने को था, उसी संध्या कोई बात घट गई और फिर उस युवक ने वह आश्रम कभी नहीं छोड़ा। क्या घट गई उस रात बात?

एक और संन्यासी आ गया कहीं से। और रात उस आश्रम के अंतेवासी इकट्ठे हुए। वह जो नया संन्यासी आया था, उसने दो घंटे तक तत्व की बड़ी गहरी बातें कीं। बड़े सूक्ष्म, बड़े बारीक सिद्धांत समझाए। जो युवक संन्यासी छोड़ना चाहता था, वह भी बैठ कर सुनता था। उसके मन में हुआः ओह! गुरु हो तो ऐसा! कितनी गहरी इसकी बातें! कितने सूक्ष्म इसके विचार! कितनी पैनी इसकी दृष्टि! कैसा कुशल इसका तर्क! धन्य हुआ, ऐसा गुरु हो, इसी के साथ चला जाऊं कल सुबह। ठीक मिल गया वह आदमी जिसकी तलाश थी। एक यह बूढ़ा है, जो कुछ पिटी-पिटाई बातें रोज दोहरा देता है, जिनमें न कोई बहुत सार है, न अर्थ। सोचा उस युवक ने कि आज इस वृद्ध संन्यासी के मन में कितनी ग्लानि न अनुभव होती होगी, अपमान! कितना इसकी प्रतिभा हीन हो गई होगी मन ही मन में! कितनी हीनता लगती होगी! इस संन्यासी की बातें सुन कर कैसा मन ही मन में पछताता और दुखी होता होगा!

बात पूरी हुई, वह नया संन्यासी रुका, रुक कर उसने सबकी तरफ देखा कि क्या प्रभाव पड़ा है! उसने उस बूढ़े संन्यासी से पूछाः महानुभाव! मैंने जो बातें कहीं, क्या सोचते हैं उस संबंध में?
वह बूढ़ा इतनी देर तक आंख बंद किए बैठा सुनता था, उसने आंख खोलीं और उसने कहाः मेरे मित्र, पहली बात तो यही कहनी है कि मैं दो घंटे से सुनता हूं, तुम तो कुछ बोलते ही नहीं।
वह बोलाः मैं नहीं बोलता था, तो इतनी देर से कौन बोलता था?

उस वृद्ध ने कहाः शास्त्र बोलते थे, किताबें बोलती थीं, तुम नहीं बोलते थे। तुम्हारा बोला हुआ एक भी शब्द नहीं है। तो तुम कहते हो कि मैंने जो कहा उसका क्या परिणाम हुआ? तो पहले तो मैं यही निवेदन कर दूं कि तुमने कुछ कहा ही नहीं, परिणाम का सवाल कहां है!

वह जो संन्यासी छोड़ कर जाना चाहता था, रुक गया, फिर कभी उस आश्रम को नहीं छोड़ा उसने। यह बूढ़ा क्या बोला? यह बोला कि तुम्हारे भीतर से किताबें बोलती हैं, तुम नहीं बोलते।
ऐसा ज्ञान, जो कहीं और से आकर हमारे भीतर बोलने लगता है, किसी भी अर्थ का नहीं है, उसे छोड़ देना जरूरी है। और तब जागेगा वह, जो हमारे भीतर छिपा है।

दो तरह के ज्ञान हैं। एक तो ज्ञान होता है कुएं की भांति, और एक ज्ञान होता है हौज की भांति। हौज में हम क्या करते हैं? मिट्टी लाते, ईंट लाते, पत्थर इकट्ठे करते, दीवाल बनाते, हौज का घेरा बनाते हैं, फिर कहीं से पानी लाकर हौज में भर देते हैं। हौज में अपना कोई पानी नहीं होता, हौज में सिर्फ अपनी ईंट-पत्थर की दीवाल होती है। हौज में कोई पानी नहीं होता, हौज केवल दीवाल होती है ईंट-पत्थर की, घेरा होता है। लेकिन कुएं में? कुएं में काम उलटा करना पड़ता है। कुएं में सबसे पहले ईंट-पत्थर, मिट्टी, जो कुछ हो, उसे निकाल कर अलग करना पड़ता है। लाना नहीं पड़ता, अलग करना पड़ता है। हौज में लाना पड़ता है, कुएं में अलग करना पड़ता है। और जब सारी मिट्टी, पत्थर, ईंट अलग हो जाते हैं, तो नीचे से वह निकल आता है, जो जल का स्रोत है। कुएं में जल है, ईंट-पत्थर ऊपर पड़े हैं, उन्हें अलग कर देना होता है। हौज में जल नहीं है, जल लाना पड़ता है, रोकने के लिए ईंट-पत्थर की दीवाल बनानी पड़ती है।

ज्ञान भी ठीक ऐसे ही दो तरह का होता है। एक हौज वाला ज्ञान होता है, जिससे पंडित पैदा होते हैं। पंडित ईंट-पत्थर इकट्ठा करके दीवाल बना लेता है अपने दिमाग में--हिंदू होने की दीवाल, मुसलमान होने की दीवाल, वेदांती होने की दीवाल, फलांवादी होने की दीवाल--सब तैयार कर लेता है दीवाल। फिर जगह-जगह से पानी ले आता है और अपनी हौज में भर लेता है। फिर जिसकी हौज जितनी बड़ी, वह उतना बड़ा पंडित हो जाता है। हालांकि सच्चाई यह है कि हौज जितनी बड़ी हो, उतनी जल्दी सड़ जाती है और उसका पानी बदबू फेंकने लगता है। इसलिए पंडितों के मस्तिष्क से जितनी दुर्गंध जीवन में फैलती है, और कहीं से फैलती नहीं। लेकिन कुएं की बात और है। जो आदमी अपने मस्तिष्क से सारी ईंट-पत्थर को बाहर निकाल कर फेंक देता, जो अपने मस्तिष्क की सारी दीवालें गिरा देता, जिसके मस्तिष्क पर कोई सीमा नहीं रह जाती, मिट्टी-पत्थर की सारी पर्त अलग हो जातीं, उसके भीतर से आ जाता है वह स्रोत जीवन का, जल का, ज्ञान का। यह है ज्ञानी, जो कुएं की भांति अपने भीतर से ज्ञान को ले आता। वह है पंडित, जो हौज की भांति सब तरफ से ज्ञान को इकट्ठा कर लेता।
 
धर्म का पंडित से कोई संबंध नहीं है, यद्यपि पंडित सब तरफ से धर्म से संबंधित होने की घोषणा करते रहे हैं। धर्म से पंडित का कोई भी संबंध नहीं है। ज्ञानी का संबंध हो सकता है। पांडित्य एक कुशलता है, ज्ञान एक क्रांति है।

तो जिस ज्ञान को छोड़ने के लिए मैंने कहा, वह हौज वाला ज्ञान है। और इसलिए छोड़ने को कहा, ताकि कुएं वाला ज्ञान उपलब्ध हो सके। जो कुआं बनना चाहते हैं, उन्हें हौज अपनी मिटा ही देनी होगी। और जो कुआं बनने से रुकना चाहते हैं, उनकी मर्जी, वे अपनी हौज को और मजबूत बना सकते हैं, और ग्रंथ लाकर अपनी दीवाल खड़ी कर सकते हैं, और शब्द-सूत्र इकट्ठे करके इतना मजबूत किला बना सकते हैं कि उसके भीतर सूरज की कोई किरण कभी प्रवेश न कर सके।
 
यह चित्त की दशा है। इस चित्त की बंधी हुए दशा को, मैंने कहा, ज्ञान कोई छोड़े तो उसके जीवन में क्रांति आनी शुरू होती है।

अपने माहिं टटोल 

ओशो

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