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Saturday, January 16, 2016

वेदांत के तीन चरण : श्रवण, मनन और निदिध्यासन का क्या अर्थ है?

मैंने सुना है, एक परिवार के बैठकखाने में दो मछलियां काच के बर्तन में चक्कर मार रही थीं। एक मछली ने रुककर दूसरी से पूछा, तुम्हारा क्या खयाल है, ईश्वर है या नहीं? दूसरी मछली थोड़ी दार्शनिक प्रकृति की थी। उसने थोड़ा विचार किया। उसने कहा, होना ही चाहिए, अन्यथा हमारा पानी रोज कौन बदलता है! अगर परमात्मा न हो, तो इस बर्तन का पानी कौन बदलता है रोज!

मछलियों के लिए यह बहुत भारी घटना है कि कोई पानी बदलता है।

तुम्हारा परमात्मा भी इन मछलियों के परमात्मा से ज्यादा नहीं है। क्योंकि तुम सोच नहीं सकते कि बिना बनाए चीजें कैसे बनायी जाएंगी! लेकिन तुम्हारे बचपन में तुमने जो धारणा पकड़ी थी, कभी तुमने पूछा कि परमात्मा को किसने बनाया है?

तब तुम्हारी धारणा डगमगाने लगेगी। तब तुम्हें संदेह उठेगा। तब तुम्हें लगेगा कि अगर परमात्मा बिना बनाया हो सकता है, तो फिर यह धारणा कुम्हार की और बढ़ई की, नासमझी की है।

लेकिन बचपन की धारणाए तुम्हें घेरे रखती हैं। नास्तिकता आस्तिकता, हिंदू इस्लाम, जैन बौद्ध, सब बचपन में पकड़ी गई धारणाएं हैं। उनसे तुम घिरे बैठे हों। उनकी दीवारें तुम्हारे चारों तरफ हैं। वह तुम्हारा कारागृह है।
जब तुम सुनने आते हो, तो उस कारागृह के बाहर आकर सुनो, खुले आकाश के नीचे।

मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि जो मैं कह रहा हूं उसे मान लो। मानने का तो सवाल ही नहीं है। मैं तो तुमसे कह रहा हूं? पहले सुन लो, मानने की बात तो बाद में उठती है। पहले समझ तो लो कि मैं क्या कह रहा हूं! फिर मानना, न मानना।

और मजे की तो घटना यह है कि अगर सत्य हो, तो तुम्हें सोचने की जरूरत ही न पड़ेगी। अगर तुमने खुले आकाश के नीचे खड़े होकर सुन लिया, तो सत्य को सुन लेना ही पर्याप्त है। तुम्हारा रोआं रोआं उसके साथ सिहर उठेगा। तुम्हारी धड़कन धड़कन उसे ताल देगी। तुम्हारी समग्रता कहेगी, ठीक है।

यह नहीं कि तुम्हारे मन के कुछ विचार कहेंगे, ठीक है। तुम्हारा समग्र अस्तित्व कहेगा कि ठीक है। हड्डी मांसमज्जा कहेगी कि ठीक है। यह कोई तर्क की निष्पत्ति न होगी, यह तुम्हारे पूरे जीवन की भाव—दशा बन जाएगी।

तो श्रवण से उपलब्ध हो सकता है कोई, लेकिन श्रवण सीखना पड़े। अभी तो तुम सभी मानते हो कि श्रवण तुम जानते ही हो, क्योंकि तुम्हारे कान ठीक हैं। और कोई कान का डाक्टर नहीं कहता कि कान में कोई खराबी है। तुम समझे कि बस, जब कान में कोई खराबी नहीं है, तो सम्यक श्रवण है ही।

कान का डाक्टर जिसको ठीक सुनना कहता है, उसको हम ठीक सुनना नहीं कहते। कान थोड़े ही सुनते हैं। कान तो केवल उपकरण हैं। कान के पीछे जो बैठा है, वह सुनता है।

हां, कान बिगड जाएं, तो उस तक खबर नहीं पहुंचती। कान सिर्फ खबर पहुंचाते हैं।

यह तो ऐसे ही है, जैसे किसी ने फोन किया। तुमने फोन उठाया। फोन थोड़े ही सुनता है, तुम सुनते हो। लेकिन तुम नहीं सुनने को राजी हो, तुम जबरदस्ती सुन रहे हो, कि ठीक है। या तुम पहले से ही तय हो कि यह आदमी गलत है। अब किया है फोन, तो सुने लेते हैं। फोन थोडे ही सुनता है।

कान तो फोन से ज्यादा नहीं है। वह तो यंत्र है। उनके पीछे तुम जो हो, तुम्हारी चेतना जो पीछे खड़ी है। कान से आने दो आवाज; मन को तुम्हारे और कान के बीच खड़ा मत होने दो। हटाओ। मन से कहो, तू जरा रास्ता दे। मेरी आंख को जरा खाली छोड़, मेरे कान को जरा खाली छोड़। मैं देख सकूं। फिर जरूरत होगी, तुझे बुला लेंगे।
अगर श्रवण से न हो सके, तो फिर मनन करना। फिर मन को बुला लेना। और अगर मन से भी न हो सके, तो फिर साधना करना। फिर शरीर को भी बुला लेना।

ये तीन अंग हैं। सुनकर ही हो जाए, तो शुद्ध चैतन्य में घट जाता है। सुनकर न हो, तो मन की सहायता की जरूरत है; तो मनन। अगर मनन से भी न हो, तो फिर शरीर की भी साधना में जरूरत है; तो फिर निदिध्यासन।

जब चेतना, मन और शरीर तीनों लग जाते हैं, तो साधना। जब चेतना और मन दोनों लगते हैं, तो मनन। और जब चेतना शुद्ध सुनती है, अकेली, और उतना ही काफी होता है, तो सम्यक श्रवण।

गीता दर्शन 

ओशो 

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