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Thursday, January 28, 2016

वास्तविक संन्यासी क्षुद्र की चिंता नहीं करता...

सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन को नींद नहीं आती थी। हजार उपाय कर चुका था। जो भी बताता था, वह करता था। उपायों की वजह से और मुसीबत हो गई क्योंकि रात उपाय करने में बीत जाती थी। और उपाय करके वह इतना एक्साइटेड, इतना उत्तेजित हो जाता था कि उसकी वजह से और भी नींद मुश्किल हो जाती थी।


आखिर उसकी पत्नी ने कहा कि मुल्ला, तुम फिजूल के बड़े जटिल उपायों में पड़े हो। मैंने तो सुना है बचपन से कि कुछ ज्यादा करने की जरूरत नहीं है, तुम ऐसा करो कि भेड़ों की गिनती किया करो। घर में भेड़ें हैं। गिनती करो एक से सौ तक। जब तक तुम सौ पर पहुंचोगे, सारा खयाल छोड़कर एक भेड़, दो भेड़, तीन भेड़ गिनती करते गए, भेड़ों को देखते गए, सौ तक भी नहीं पहुंच पाओगे कि नींद लग जाएगी।


मुल्ला ने वह भी कोशिश आजमाई। सुबह उसकी पत्नी ने पूछा, कैसा हाल है? उसने कहा कि मूरख, तूने मुझे ऐसा उलझाया कि एक रात तो क्या कई रात न सो सकूंगा। क्या हुआ? उसने कहा, मैं गिनती करता ही गया, लाखों के पार गिनती निकल गई, सिर चकराने लगा। फिर मैंने सोचा यह ठीक नहीं है, फिर मैंने सोचा कुछ और करूं, तो लाखों भेड़ें थीं घर में क्या करूं? ऊन काट डाला। ऊन कट गया लाखों भेड़ों का। फिर इस ऊन का क्या करना? कोट सिला डाले, फिर एक मुसीबत आई कि लाखों कोट इकट्ठे हो गए, इनको खरीदेगा कौन? बिकेंगे कहां? और अभी मैं इसी चिंता में पड़ा था कि तू आकर पूछ रही है।


वह जो नींद है, उसका अर्थ ही है कि वह तब आती है, जब आप कुछ कर नहीं रहे हों। जब आप कुछ कर रहे होते हैं, तब वह नहीं आती। करना ही उसमें बाधा है, प्रयत्न ही विरोध है, चेष्टा ही उपद्रव है। नींद आती है तब, जब आप कुछ कर नहीं रहे हैं; नींद लाने की कोशिश भी नहीं कर रहे हैं। जब सब कोशिश नहीं हो जाती है, अचानक आप पाते हैं, नींद उतर गई।


अगर हम जीवन के द्वारों को गलत ढंग से खटखटाएं, तो भी मुसीबत हो जाएगी। और जितना सुक्ष्म में प्रवेश होता है, उतनी ही जटिलता बढ़ती चली जाती है। क्योंकि स्थूल को तो हम समझ भी लें, सुक्ष्म को समझना और भी मुश्किल हो जाता है। बड़ी से बड़ी तकलीफ यही है कि हम क्षुद्र के साथ उलझे हुए हैं। चाहे हम गृहस्थ हों, चाहे हम संन्यासी हों। गृहस्थ उलझे हैं क्षुद्र के साथ कैसे क्षुद्र को इकट्ठा कर लें–धन को कैसे इकट्ठा कर लें, मकान कैसे बना लें, जायदाद कैसे बड़ी हो, जमीन कैसे बड़ी हो–इसमें उलझा है।


संन्यासी भी इसी क्षुद्र में उलझा है कि मकान का मोह कैसे छूटे, धन की तृष्णा कैसे छूटे, कैसे मुक्त हो जाऊं जमीन-जायदादों के उपद्रव से। वह भी उससे उलझा है। दोनों के भाव विपरीत हैं, लेकिन दोनों का केंद्र एक है। दोनों ही क्षुद्र में ग्रसित हैं। एक पीठ किए खड़ा है और एक मुंह किए खड़ा है। एक क्षुद्र की तरफ भाग रहा है और एक क्षुद्र की तरफ से भाग रहा है। लेकिन क्षुद्र दोनों के प्राणों में समाया है।


वास्तविक संन्यासी क्षुद्र की चिंता नहीं करता, विराग की चिंता करता है। क्षुद्र का विचार ही नहीं करता है। उसको इतना भी मूल्य नहीं देता कि उसका विरोध करना है। विरोध करना भी मूल्य देना है, विरोध करना भी क्षुद्र की शक्तियों को स्वीकार करना है। विराग का अर्थ है, क्षुद्र की शक्ति की हम कोई चिंता ही नहीं करते–पक्ष या विपक्ष दोनों में। हम खोज करते हैं विराट की।

समाधी के सप्त द्वार 

ओशो 



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