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Wednesday, January 27, 2016

सदगुरूओं को उनके शिष्‍यों ने सदा ही ईश्‍वर की भांति पूजा है। कृपया इसका महत्‍व समझायें।

सदगुरूओं को ईश्‍वर की भांति पूजा गया है। किंतु यह सिर्फ प्रारंभ है, न कि अंत। सदगुरू तभी वास्‍तव में सदगुरू है यदि वह अपने शिष्‍यों को अंत में सब पूजा से मुक्‍त कर दे। परंतु प्रारंभ में ऐसा ही होगा। क्‍योंकि प्रारंभ में सदगुरू तथा शिष्‍य के बीच एक प्रेम का संबंध होता है। और वह बड़ा गहन होता है। और जब भी तुम किसी के प्रेम में होते हो तो दूसरा तुम्‍हें दिव्‍य दिखाई पड़ता है।


सामान्‍य प्रेम में भी प्रेमी हमें परमात्‍मा दिखाई पड़ताहै। सदगुरू तथा शिष्‍य के बीच जो संबंध होता है वह बहुत ही गहरा प्रेमसंबंध होता है। असल में, तुम गुरु के प्रेम में पड़ जाते हो। और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। और जब तुम गुरु के प्रेम में पड़ जाते हो तो तुम पुजा करने लग जाते हो। लेकिन सदगुरू उसे एक खेल की भांति ही लेता है। यदि वह भी उसे गंभीरता से ले और उसमें रस लेने लगे, और महत्‍व देने लगे, तो वह फिर सदगुरू नहीं हे। उसके लिए वह सिर्फ एक खेल है लेकिन खेल अच्‍छा है, क्‍योंकि इससे शिष्‍य की सहायता की जा सकती है।


इससे शिष्‍य की सहायता कैसे होगी? जितना अधिक शिष्‍य गुरु की पूजा करता हे उतना ही वह गुरु के निकट आता जाता है। उतना ही वह घनिष्‍ठ होता जाता है, उसनाही वह सर्मिपित होता जाता है। ग्राहक, निष्कि्रय होता जाता है। और जितना अधिक वह ग्राहक निष्‍क्रिय तथा समर्पित होता है उतना ही वह गुरु जो भी कहने की कोशिश कर रहा है उसको समझ पाता है। और जब यह घनिष्ठता आखिरी बिंदु पर आ जाती है, केवल एक इंच की दूरी भर रह जाती है, एक जरा सा ही अंतराल शेष रह जाता है, जब निकटता इतनी गहरी हो जाती है कि सदगुरु शिष्य को उसकी ओर ही वापस मोड़ सकता है, तब सदगुरु शिष्य की सहायता करता है कि वह उससे भी मुक्त हो जाए।


प्रारंभ में यह असंभव है। तुम समझ न सकोगे। यदि गुरु तुम्हें अपने से मुक्त करने की कोशिश करे पो तुम नहीं समझ पाओगे। प्रारंभ में तो तुम चाहोगे कि कोई हो जिसका तुम सहारा ले सको। प्रारंभ में तुम किसी पर निर्भर होना चाहोगे। प्रारंभ में तुम चाहोगे कि तुम किसी के ऊपर पूरी तरह निर्भर हो जाओ। यह आंतरिक आवश्यकता है। और तुम्हें प्रारंभ से मालिक बनाया नहीं जा सकता। प्रारंभ तो एक आध्यात्मिक निर्भरता की भाति ही होगा।


लेकिन यदि सदगुरु भी इससे संतुष्ट हो जाए कि तुम उस पर निर्भर हो तो वह सदगुरु नहीं है। वह नुकसानदायक है, वह खतरनाक है; तब उसे कुछ भी पता नहीं है। यदि वह भी तृप्ति अनुभव करता हो तो फिर यह निर्भरता आपसी हो गई। तुम उस पर निर्भर करते हो और वह तुम पर निर्भर करता है। और यदि गुरु तुम पर किसी भी बात के लिए निर्भर करता हो तो फिर वह किसी काम का नहीं है। किंतु यदि वह तुम्हें प्रारंभ से ही मना कर दे तो कोई निकटता नहीं बन पाएगी। और यदि कोई निकटता ही न बनेगी तो अंतिम कदम नहीं उठाया जा सकता।


जब तुम गुरु में इतनी श्रद्धा करो कि जब वह तुम्हें कहे, ”अब मुझे भी छोड़ दो, ”तो तुम उसे भी छोड़ दो, तभी तुम मुक्त होने में समर्थ हो सकोगे। यदि तुम अपने गुरु पर इतनी अधिक श्रद्धा करते हो कि यदि गुरु कहे, ”तुम मुझे मार डालो, ”तो तुम उसको मार भी सकी, केवल तभी तुम मुक्त हो सकोगे, उसके पहले नहीं। और यह स्थिति धीरे धीरे ही लानी पड़ेगी। यह एक लंबी प्रक्रिया है। इसमें कभी पूरा जीवन निकल जाता है, और कभी कभी कितने ही जीवन बीत जाते हैं, गुरु शिष्य पर काम करता रहता है।


शिष्य को कुछ भी पता नहीं है। वह नहीं जानता, वह अंधेरे में चलता जाता है। गुरु शिष्य को उस बिंदु पर ले जा रहा है जहां शिष्य शिष्य नहीं रहेगा, बल्कि वह भी अपने आप में एक गुरु हो जाएगा। जब तुम भी गुरु हो जाते हो, जब गुरु पर निर्भर होने की जरूरत नहीं रहती, जब तुम अकेले भी हो सकते हो, और जब तुम अकेले हो तो भी कोई दुख नहीं है, कोई पीड़ा, कोई क्रोध नहीं है, जब तुम अकेले में भी आनंदित हो, तभी तुम मुक्त हो।
और वास्तव में, जब शिष्य गुरु के पास होता है तो गुरु उसको ईश्वर दिखाई पड़ता है।



केनोउपनिषद 

ओशो 

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