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Sunday, January 24, 2016

सत्य का स्वभाव रहस्य है

एक पंडित एक गांव की यात्रा पर गया था। बड़ा पंडित था। एक छोटी सी घोड़ागाड़ी में गांव का किसान उसे ले जा रहा था। गांव में कोई यज्ञ होने को था। एक मक्खी घोड़े के आस-पास सिर के चक्कर काटती। और कभी-कभी पंडित के सिर के पास भी चक्कर काटती। पंडित बकवासी था, जैसे कि पंडित होते हैं। लंबा रास्ता था तो कुछ बातचीत चलाने के लिए उसने कहा उस देहाती से, क्यों रे–वह जो देहाती घोड़ागाड़ी को हांक रहा था–इस मक्खी का क्या नाम है? पंडितों की उत्सुकता नाम में ही रहती है। भगवान का क्या नाम है? मक्खी का क्या नाम है?

उस गांव के गंवार ने कहा कि इसका नाम घुड़-मक्खी है। घुड़-मक्खी? घुड़-मक्खी का क्या मतलब होता है? उस गांव के गंवार ने कहा कि यह घोड़े, खच्चर, गधे, उनके सिर के आस-पास चक्कर…इसलिए इसका नाम घुड़-मक्खी है। उस पंडित ने कहा, क्या तेरा मतलब कि मैं घोड़ा हूं? उस ग्रामीण ने कहा कि नहीं, आप घोड़ा बिलकुल नहीं हैं, और घोड़ा जैसे लगते भी नहीं। तो उस पंडित को और थोड़ी बेचैनी हुई; उसने कहा, इसका क्या मतलब? तू मुझे खच्चर समझता है? उसने कहा कि नहीं, खच्चर भी आप नहीं हैं। आपके चेहरे से साफ है, आप खच्चर भी नहीं हैं। नहीं, मेरा यह मतलब नहीं है। तो पंडित ने कहा, अब तो एक ही विकल्प बचा, क्या तू मुझे गधा समझता है? उस ग्रामीण ने पंडित को नीचे से ऊपर तक कई बार देखा और कहा कि नहीं, गधा भी आप नहीं हैं, और गधे जैसे लगते भी नहीं हैं। लेकिन घुड़-मक्खी को धोखा देना मुश्किल है।

धोखा किसको दे रहे हो? घुड़-मक्खी तक को धोखा देना मुश्किल है, तुम परमात्मा को, अस्तित्व को धोखा देने चले हो। वह तुम्हारा पांडित्य दो कौड़ी का है; जितने जल्दी कचरेघर पर रख आओ उतना अच्छा है।

लाओत्से कहता है कि अगर मूढ़ों को ये परम सिद्धांत मूढ़ता जैसे न लगते तो वे कभी के तुच्छ हो गए होते। उनकी ताजगी है कि आज भी लाओत्से को समझने में उतनी ही अड़चन है जितनी कभी पहले थी। लाओत्से अब भी उतना ही बेबूझ है जितना कभी था। और लाओत्से सदा बेबूझ रहेगा। क्योंकि वह जिस सत्य की बात कर रहा है, सत्य का स्वभाव बेबूझ है। सत्य का स्वभाव रहस्य है। जिन्होंने अपने अज्ञान को समझ लिया वे तो शायद उसे समझने को तैयार हो जाएं, लेकिन जिन्होंने अपने अज्ञान को ज्ञान समझा है, उनके लिए वह सदा मूढ़ता जैसा ही रहेगा।

ताओ उपनिषद 

ओशो 

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