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Friday, April 7, 2017

देखने की क्षमता



मैंने सुना है, एक युवा सत्य की खोज में था। और न मालूम कहां-कहां भटका। और एक दिन पतझड़ होती थी और वृक्ष से सूखे पत्ते गिर रहे थे और हवाएं उन पत्तों को जगह-जगह नचा रही थीं--पूर्व और पश्चिम। और वह युवक खड़ा देख रहा था--और वह नाच उठा, और उसे वह मिल गया जिसकी वह खोज में था।

और बाद में जब लोग उससे पूछे, तुम्हें मिला क्या उन सूखे पत्तों को हवा में उड़ते देखकर? उसने कहा, सूखे पत्तों को हवा में उड़ते देखकर मुझे मेरे संबंध में सारी समझ आ गई। मुझे दिखाई पड़ा--मैं भी एक पत्ते से ज्यादा कहा हूं। जिसे हवाएं पूरब ले जाती हैं, तो पूरब जाता है; पश्चिम ले जाती हैं, तो पश्चिम जाता है। और तब से मैं एक सूखा पत्ता ही हो गया हूं। अब मेरा कोई रेजिस्टेंस नहीं है, अब जीवन के प्रति मेरा कोई विरोध नहीं। जीवन जहां ले जाता है, मैं चला जाता हूं।

और जिस दिन से मैंने अपना विरोध छोड़ दिया है जीवन से, उसी दिन से मेरे जीवन का सारा दुख विलीन हो गया। अब मैं जानता हूं कि मैं दुखी था, अपने कारण--चूंकि मैं था। अब मैं सूखे पत्ते की तरह हूं--हवाएं जहां ले जाती हैं, चला जाता हूं। हवाएं नहीं ले जातीं, तो वहीं पड़ा रह जाता हूं। हवाएं आकाश में उठा लेती हैं, तो आकाश में उठ जाता हूं। हवाएं नीचे गिरा देती हैं, तो नीचे गिर जाता हूं। अब मेरा अपना कोई होना नहीं है। अब मैं नहीं हूं। अब हवाएं हैं और मैं एक सूखा पत्ता हूं। लेकिन यह मुझे एक सूखे पत्ते से ही दिखाई पड़ा था।

देखने वाली आंख होगी, तो दिखाई पड़ गया। नहीं तो सूखे पत्ते इस माथेरान में कितने नहीं हैं? और आपके पैरों के नीचे कितने नहीं आकर कुचल जाते होंगे? और आपकी आंखों के सामने कितने नहीं वृक्षों से गिर जाते होंगे?

लेकिन सूखे पत्ते क्या करेंगे। अगर सूखे पत्ते कुछ करते होते तो बड़ी आसान बात थी। हम हर गांव में एक वृक्ष लगा लेते और उसमें से सूखे पत्ते टपकाते रहते, और गांव में जो भी निकलता ज्ञान को उपलब्ध हो जाता। नहीं, लेकिन सूखे पत्ते में हम तभी देख पाएंगे, जब हम देखने में समर्थ हैं।



असंभव क्रांति 

ओशो 

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