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Tuesday, April 18, 2017

प्रश्नों का विसर्जन



बुद्ध के जीवन में उल्लेख है। मौलुंकपुत्त नाम के एक युवक ने बुद्ध से जाकर ग्यारह प्रश्न पूछे थे। उन ग्यारह प्रश्नों में जीवन के सारे प्रश्न आ जाते हैं। उन ग्यारह प्रश्नों में तत्व-चिंतन जिन्हें सोचता है वे सारी समस्याएं आ जाती हैं। बहुत मीठा संवाद हुआ। मौलुंकपुत्त ने अपने प्रश्न पूछे। बुद्ध ने कहा: मेरी एक बात सुनोगे; छह महीने, साल भर रुक सकते हो? साल भर प्रतीक्षा कर सकते हो? अच्छा हो कि साल भर मेरे पास रुक जाओ। साल भर बाद मुझसे पूछ लेना। मैं तुम्हें उत्तर दे दूंगा। 

मौलुंकपुत्त ने कहा: अगर उत्तर आपको ज्ञात है, तो अभी दे दें और अगर ज्ञात नहीं है, तो स्पष्ट अपने अज्ञान को स्वीकार लें, मैं लौट जाऊं। क्या साल भर आपको चिंतन करना पड़ेगा, तब आप उत्तर देंगे

बुद्ध ने कहा: मुझसे पहले भी तुमने ये प्रश्न किसी से पूछे थे

मौलुंकपुत्त ने कहा: अनेकों से। लेकिन उन सभी ने तत्काल उत्तर दे दिए, किसी ने भी यह नहीं कहा कि इतने दिन रुक जाओ। 

बुद्ध ने कहा: अगर वे उत्तर उत्तर थे तो तुम अब भी उन्हीं प्रश्नों को क्यों पूछते चले जाते हो? अगर वे उत्तर वस्तुतः उत्तर बन गए होते तो अब तुम्हें दुबारा उन्हीं प्रश्नों को पूछने की जरूरत न रह जाती? इतना तो निश्चित है कि तुम फिर उन्हीं को पूछ रहे हो। वे उत्तर जो तुम्हें दिए गए उत्तर साबित नहीं हुए हैं। मैं भी तुम्हें तत्काल उत्तर दे सकता हूं, लेकिन वे उत्तर व्यर्थ होंगे। असल में किसी भी दूसरे के दिए गए उत्तर व्यर्थ होंगे, उत्तर तुममें पैदा होने चाहिए। इसलिए मैं कह रहा हूं कि वर्ष भर रुक जाओ। और अगर तुम वर्ष भर के बाद पूछोगे, तो मैं उत्तर दूंगा।

बुद्ध का एक शिष्य था, आनंद, वह यह बात सुन कर हंसने लगा। उसने मौलुंकपुत्त से कहा कि तुम इनकी बातों में मत आना। मैं कोई बीस वर्षों से इनके निकट हूं। अनेक लोग आए और उन अनेक लोगों ने अनेक-अनेक प्रश्न पूछे। बुद्ध सबसे यही कहते हैं: वर्ष रुक जाओ, दो वर्ष रुक जाओ। मैं प्रतीक्षा करता रहा कि वर्ष भर बाद, दो वर्ष बाद वे पूछेंगे और हमें बुद्ध के उत्तर ज्ञात हो सकेंगे। लेकिन न मालूम क्या होता है, वर्ष भर बाद, दो वर्ष बाद वे पूछते नहीं, और बुद्ध के क्या उत्तर हैं आज तक पता नहीं चल पाया। इसलिए अगर पूछना है तो अभी पूछ लो, यह तो तय है कि वर्ष भर बाद तुम पूछोगे नहीं। 

बुद्ध ने कहा: मैं अपने वचन पर निर्भर रहूंगा, तुमने पूछे तो उत्तर दूंगा, तुम पूछो ही न, तो बात अलग है। 

मौलुंकपुत्त वर्ष भर रुका। वर्ष भर बाद बुद्ध ने कहा कि पूछते हो? वह हंसने लगा, वह बोला, पूछने की कोई जरूरत नहीं है।

भारत की पूरी की पूरी जो पकड़ है, जो एप्रोच है सत्य के प्रति, वह बाहर से उत्तर उपलब्ध करने की नहीं, भीतर एक द्वार खोलने की है। उस द्वार के खुलने पर प्रश्नों के पर्टीकुलर उत्तर मिलते हैं ऐसा नहीं, असल में प्रश्न गिर जाते हैं। प्रश्नों का उत्तर मिलना एक बात है, प्रश्नों का गिर जाना बिलकुल दूसरी भूमिका की बात है। महत्वपूर्ण उत्तर का मिलना नहीं है, महत्वपूर्ण प्रश्न का गिर जाना है।

हमारे मुल्क के लंबे योगिक प्रयोगों ने कुछ निष्कर्ष दिए हैं। उनमें निष्कर्ष एक यह है: प्रश्न हमारे अशांत चित्त की उत्पत्ति है। चित्त शांत हो जाए, प्रश्न उत्पन्न नहीं होता है। समस्त प्रश्न हमारे अशांत, उद्विग्न चित्त की उत्पत्ति हैं। ईश्वर के संबंध में, जन्म के संबंध में, मृत्यु के संबंध में, समस्त प्रश्न मात्र अशांत चित्त की उत्पत्ति हैं। चित्त शांत हो जाए, वे विसर्जित हो जाते हैं।

निष्प्रश्न हो जाना ज्ञान को उपलब्ध हो जाना है। प्रश्नों के उत्तर पा लेना पांडित्य को उपलब्ध होना है, निष्प्रश्न हो जाना ज्ञान को उत्पन्न हो जाना है। प्रश्नों के बहुत उत्तर याद कर लेना बौद्धिक है, प्रश्नों का विसर्जन आत्मिक है। 

साक्षी की साधना 

ओशो

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